हॉलीवुड की दुकानें बॉलीवुड में हो रही हैं बंद...

हॉलीवुड ने विश्व सिनेमा को काफी नुकसान पहुंचाया है। कई देशों का स्थानीय सिनेमा इसीलिए मर गया क्योंकि वे हॉलीवुड फिल्मों और बड़े स्टुडियो के कार्य करने की प्रक्रिया का मुकाबला नहीं कर पाए। कई देशों में हॉलीवुड के कारण फिल्में बनना बेहद कम हो गई। 
 
भारत में भी जब हॉलीवुड ने प्रवेश किया था तब खतरा महसूस किया गया था। पिछले कुछ वर्षों से हॉलीवुड फिल्मों का दबदबा बढ़ता जा रहा है, लेकिन भारतीय सिनेमा ने भी कड़ा मुकाबला किया है और यह मान लिया गया है कि भारतीय सिनेमा को पछाड़ना फिलहाल हॉलीवुड फिल्मों के बस की बात नहीं है। हॉलीवुड फिल्मों का मिजाज भारतीय फिल्मों से बेहद अलग है। भारतीय दर्शक को एक थाली में कई वैरायटी चाहिए और इसी तरह की डिमांड वह सिनेमा में भी करता है। एक्शन, इमोशन, रोमांस, आइटम नंबर सभी उसे संतुलित मात्रा में एक ही फिल्म में चाहिए। 
 
जब बॉलीवुड फिल्मों को पछाड़ना मुश्किल हो गया तो बड़े हॉलीवुड स्टुडियो ने भारत में ही अपनी दुकानें खोल ली। वे भारतीय कलाकारों और निर्देशकों को लेकर फिल्में बनाने लगे। वॉर्नर ब्रदर्स, फॉक्स स्टार, सोनी, डिज्नी सहित कुछ स्टुडियो ने यह प्रयास शुरू किया, लेकिन लगातार मिल रही असफलताओं से ये स्टुडियो दहल गए हैं। 
हाल ही में यूटीवी-डिज्नी की अत्यंत महंगी फिल्म 'मोहेंजो दारो' बुरी तरह असफल रही है। फितूर, फैंटम और कट्टी बट्टी जैसी लगातार फ्लॉप फिल्में इस स्टुडियो ने बनाई या खरीदी हैं। इन असफलताओं से यूटीवी ने भारतीय फिल्मों का प्रोडक्शन बंद करने का फैसला लिया है और अपने यहां कार्यरत अस्सी प्रतिशत कर्मचारियों को कह दिया है कि वे नई नौकरियां ढूंढ ले। 
 
इस तरह का निर्णय सोनी और वॉर्नर ब्रदर्स पहले ही ले चुके हैं। इन्हें भी जोरदार झटके लगे और समझ में आ गया कि भारतीय दर्शकों के मिजाज को समझना इनके लिए मुश्किल है। हालांकि इनके ऑफिस में काम करने वाले ज्यादातर कर्मचारी भारतीय थे, लेकिन फिल्म और उससे जुड़े लोगों को समझना इनके बस की बात नहीं थी। 
 
एमबीए जैसी बड़ी डिग्री हासिल करने वालों को इन्होंने अपने यहां नौकरियां दी जिनके लिए फिल्म एक प्रोडक्ट के समान है। वे साबुन बनाना और फिल्म बनाना एक जैसा ही समझते हैं। इन्हें फिल्म, स्क्रिप्ट, यहां पर काम करने वाले लोगों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वे न गुरुदत्त की महानता से परिचित हैं और न राज कपूर को जानते हैं। उन्होंने कभी मदर इंडिया, शोले, पाकीजा जैसी फिल्मों के नाम भी नहीं सुने हैं। कागज पर वे बायोडाटा पढ़ते हैं और तुरंत फैसला लेते हैं कि कौन सी फिल्म को ग्रीन सिग्नल देना है। उन्हें बजट और उसकी रिकवरी का कोई ज्ञान नहीं है। 
 
यही कारण है कि गुलजार जैसे निर्देशक को फिल्म बनाने का अवसर नहीं मिलता और सिद्धार्थ आनंद जैसा निर्देशक फ्लॉप पर फ्लॉप बनाने के बावजूद अवसर पा लेता है। ये उन निर्माता-निर्देशकों को तुरंत अवसर देते हैं जो बड़े स्टार को फिल्म करने के लिए राजी कर लेते हैं। बॉम्बे वेलवेट, बैंग बैंग, मोहेंजो दारो जैसी फिल्मों पर अनाप-शनाप पैसा लगाने की इन्होंने अनुमति दे दी, बिना ये बात जाने कि इन फिल्मों की यूनिवर्सल अपील है या नहीं। किस तरह से ये फिल्में लागत वसूलेंगी इस पर भी उन्होंने विचार नहीं किया। हॉलीवुड स्टुडियोज़ वाली गलती भारत के अन्य कॉरपोरेट भी दोहरा रहे हैं। इन कारपोरेट हाउस की नींव भी हिलने लगी हैं। 
 
दूसरी ओर हम देखें तो आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, साजिद नाडियाडवाला, राकेश रोशन, इरोस जैसे निर्माता लगातार सफल फिल्म दे रहे हैं। ये लोग फिल्म व्यवसाय को बारीकी से समझते हैं। किस हीरो को लेकर कितने बजट की फिल्म बनाना है ये बात इन्हें पता है। इसलिए इनकी सफलता का प्रतिशत ऊंचा है। कोई फिल्म फ्लॉप भी होती है तो इन्हें ज्यादा घाटा नहीं होता। स्क्रिप्ट, संगीत, अभिनय की बारीकियां ये समझते हैं। 
 
हॉलीवुड स्टुडियोज़ फिलहाल आत्ममंथन के दौर से गुजर रहे हैं और यदि वे अपनी गलतियां समझ गए तो जल्दी ही वापसी कर सकते हैं। 
 

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