जगजीत सिंह : क्या गम है जिसको छुपा रहे हो

दर्द के साथ उनका रिश्ता कितना गहरा रहा, यह उनकी गजल गायिकी में साफ महसूस किया जा सकता है, लेकिन अपने साथ जुड़े इस दर्द को उन्होंने कभी अपनी शख्सियत पर हावी होने नहीं दिया। गले के अदब और सीधे दिल को लगने वाले खरज तथा उस पर दर्दी श्रोताओं के दिल में हाथ डालने की तासीर जैसी खासियतों के चलते उनकी आवाज में सुनने वाले को अपना दर्द भुला देने की ताकत रही।

60-70 के दशक से पहले गजल और फोक के बीच के लंबे फासले को खत्म करते जगजीतजी ने गजल के क्लासिकल अंदाज को गीत के नजदीक लाते इतने प्रासादिक तरह से आमजनों के सामने पेश किया कि ऊँचे लोगों की ऊँची पसंद वालों से लेकर तो ट्रक ड्राइवर तक सभी की जुबान पर गजल चढ़ गई।

यहाँ गौर करने वाली बात है कि पंजाब कुरुक्षेत्र विवि में अंतर विवि संगीत प्रतियोगिता में शिरकत करने दो छात्रों का जाना तय था, जिनमें एक को शास्त्रीय और एक को सुगम संगीत के लिए भेजना था। उनसे सीनियर छात्र का चयन शास्त्रीय के लिए तय था, सो जगजीतजी का चयन सुगम संगीत में हुआ। उस प्रतियोगिता में सबसे अधिक इनाम जगजीतजी को मिले, शायद यहीं से उन्हें सुगम संगीत की अहमियत का अंदाजा हो गया था।

बेहद संजीदा किस्म के नफासत पसंद जगजीतजी को तेज रफ्तार घुड़दौड़ से बेहद लगाव रहा, जिसके चलते न सिर्फ आपने घोड़े पाले बल्कि उनके घोड़े रेस में शिरकत भी करते थे। जिसके लिए आपने उम्दा दर्जे के ट्रेनर और जॉकी की सेवाएँ भी ले रखी थीं।

गजल यूँ तो आशिक और माशूक के बीच का बेहद निजी रिश्ता है, जिसका हंगामा पहले हमारे पड़ोसी मुल्क में बरपा होता रहा, लेकिन जगजीतजी ने इसकी नजाकत और नफासत को समझते उसे उनके, हमारे और आपके बीच कुछ इस अपनेपन से पेश किया कि यह जादू लोगों की जुबान पर चढ़ गया। लेकिन नियती को कुछ और ही मंजूर था। ...विवेक (28 जुलाई 1990) के जाने के गम ने चित्राजी की आवाज ही छीन ली। तब चित्राजी ने आखिरी बार उनका साथ दिया-

कौन समझेगा क्या राजे गुलशन,
मेरे दुख की कोई दवा न करो!

लेकिन जगजीत दर्द को दवा बना अकेले ही जिंदगी के दर्द को सुरों में साधते आगे बढ़े ही थे कि ईश्वर ने उन्हें फिर आजमाया। चित्रा की बेटी मोनिका दत्ता (मॉडल बॉम्बे डांइग) ने भी दो बेटों को जन्म देने के बाद जाने क्यों आत्महत्या कर ली।

इन तमाम गमों को छिपाते वे न जाने कहाँ कितनों की बीमारी में तो महाराष्ट्र में लातूर के जलजले से जूझते लोगों की मदद को आगे आते रहे। यही नहीं, अपने कांसर्ट से मिलने वाली अधिकांश रकम वे उन गरीब बेसहारा लड़कियों के शादी-ब्याह पर खर्च करते थे, जिन्हें मजबूरियाँ मुंबई की बदनाम गलियों तक पहुँचाती हैं। बहुत-सी नौजवान बेवाओं और उनके बच्चों में वे विवेक को देखते थे। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि लीलावती अस्पताल के जिस कमरे में उन्होंने जिंदगी की आखिरी जंग लड़ी, उस वार्ड की बुनियाद भी बेटे विवेक के नाम पर रखते, वे गुमनाम ही रहे।

पीडब्ल्यूडी में तृतीय श्रेणी कर्मचारी पिता, माँ और चार बहनों और दो भाइयों के भरे-पूरे परिवार के सपनों को साकार करने का जज्बा दिल में लिए जब वे मुंबई पहुँचे तो जेब में मात्र 400 रुपए ही थे, लेकिन भाई-बहनों के प्यार और वालदैन की दुआओं का क्या जादू रहा कि वे रुपए कभी खर्च ही नहीं हुए और जिंदगी कामयाबी की तरफ बढ़ती रही और वे 400 रुपए उनके पास आखिरी वक्त तक महफूज रहे, जिसे वे बेहद जतन से सहेजते थे।

दर्द को छिपाने के बाबद उनका कहना था कि लोगों को अपने गम से गमजदा क्यों करूँँ? लेकिन फिर भी कहते हैं न कि वह कभी न कभी तो लब पर आ ही जाता है। अपने दोस्त के नजदीक उनके भीतर का शायर कुछ इस तरह बयाँ हुआ-

मेरे दोस्त, जब मेरा वक्त आए तो
कुछ देर को अपना बेटा उधार दे देना।

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