ड्रामा फेस्टिवल को क्यों सजाता है फिल्मों का आर्ट डायरेक्टर?

दिल्ली के ड्रामा फेस्टिवल भारत रंग महोत्सव में हिट फिल्मों का आर्ट डायरेक्टर! वो डायरेक्टर जो अनीज़ बज़्मी की फिल्म आंखें टू की सीक्वल में व्‍यस्त है। कई फिल्में फ्लोर पर है। टीवी सीरियल्स और विज्ञापनों का काम है। वो आराम से कैम्पस में आपको दिखे तो थोड़ी हैरानी तो होगी ही। आपके दिमाग़ में घूमने लगेगी राजनीति, मकबूल, सिंग इज़ किंग और वेलकम जैसी फिल्में।..लेकिन जयंत देशमुख पिछले चार साल से सारे काम छोड़कर भारत रंग महोत्सव को सजाने आ जाते हैं। उन्हें ऐसा कर बड़ा सुकून मिलता है। पढ़ि, कला के योगी जयंत देशमुख से मुलाक़ात पर यह दिलचस्प रिपोर्ट। (तस्वीरें : जास्मीन शर्मा)
 
जयंत देशमुख इस बार मेरे नसीब में आए दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के कैम्पस में। देखा, जुटे हैं कैम्पस में कुछ सहयोगियों के साथ भारत रंग महोत्सव को अपने रंग की कला-दृष्टि देने में। सिर पर कैप..बढ़ी हुई दाढ़ी..वही सपनीली आंखें..और हाथों में सोच का धुआं! पहले मैं विस्मित देखता रहा..कुछ ही लम्हो में उनके पास पहुंचा.. और फिर उनसे गले लगते ही लौट आया.. बीस साल पुराना यादों का कारवां! भारत भवन रंगमंडल के 90 के दशक के वो दिन। गोपाल दुबे, आशीष कोतवाल जैसे इंदौर के कलाकारों समेत बहुत से साथियों का भारत भवन रंगमंडल से जुड़ा सफ़र.. अचानक स्मृति ने दिमाग़ में भारत के उन दिनों के हिट नाटकों की एक विंडो खोल दी..नज़र आने लगे..जयंत के साथ ही उन दिनों हीरो लगने वाले अपने कलाकारों के हिट नाटकों के सीन......हयवदन..दो कश्तियों का सवार.. घासीराम कोतवाल.. शंकुतला..किंगलियर.. स्कंद गुप्त.. इंसाफ़ का घेरा.. थ्री सिस्टर्स.. बेग़म का तकिया..कबीर...! 
 
पुराने फील वाला लुक रखना!
जिस वक्त मैं जयंत से मिल रहा था..उनकी स्मृति में डूबकर उन्हें देख रहा था..उस वक्त जयंत अपने सहयोगियों के साथ भारत रंग महोत्सव, 2017 के आर्ट डायरेक्शन को लेकरचर्चा कर रहे थे..कह रहे थे.., ‘लुक हमें पुराने फील वाला ही रखना है...मतलब पुराने अक्स भी नज़र आए...मेहराब, स्तंभ, गुंबद...साथ में सजा नज़र आए इंटरनेशनल थिएटर फेस्टिवल।’ बाद में मैंने उनकी यही बात को समझने की कोशिश की..बताने लगे... ‘सोच रहा हूं...बहावलपुर हाउस में सब वैसा ही रहे...1920 के राज दरबार जैसा...और इसमें मैं बिखेर दूं...थिएटर के रंग..जैसे एक दरख़्त पर लटके हुए मुखौटे.. कहीं कलाकारों की मूर्तियां.. मंच की तरह लटके हुए बड़े-बड़े साइड कर्टन..फॉरमल पोस्टर वॉल..और एक स्कल्पचर पर एनएसडी के डायरेक्टर्स इब्राहिम अलकाज़ी से लेकर वामन केंद्र तक के फेसेस....’ 
आंगन और परकोटा थी पुरानी थीम 
जयंत पिछले साल भी भारत रंग महोत्सव के लिए कैम्पस को सजाने आए थे...वो बताने लगे...बीते साल कैम्पस को डिज़ाइन करते वक्त मैंने आंगन और परकोटा थीम को रखा था।इस बार उसे एक नया विस्तार दे रहा हूं। आप इस तरह से भी समझ सकते हैं कि जैसे कनॉट प्लेस है, चारों तरफ पिलर्स हैं। बीच के सर्किल में शॉप्स है। यानी नया और पुराना..तो यह भी पुराने का प्रतीक जैसा है। कैम्पस में मेन गेट से ही आपको वैसा ही पुराना परिवेश महसूस होता है। एनएसडी की बुक शॉप,ऑफिस सब उसी के दायरे में आ गए हैं। जहां पुराना रंगमंडल है, उस स्ट्रक्चर को भी हमने इस आकल्पन के दायरे में लिया है। यहां तक की जो फूड कोर्ट और थिएटर बाज़ार है, वो सब भी इसी पुराने लुक का हिस्सा बन गए हैं। यानी लुक पुराना है। बीच में मॉर्डन चीज़ें हैं। हमने कैम्पस में ही दो स्टेज बना दिए हैं। 
चार साल से भारंगम की सजावट
जयंत देशमुख एनएसडी में लगातार चार साल से भारत रंग महोत्सव के माहौल को डिज़ाइन कर रहे हैं। इसकी वजह वो बताने लगे...असल में मुझे यहां पर आर्ट डायरेक्शन करना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि मैं मूल रूप से थिएटर से हूं। रंगमंडल भोपाल में बीवी कारंत के साथ मैंने दस साल तक काम किया है। सारे हिंदुस्तान और दुनिया के कई बड़े डायरेक्टर्स के साथ काम काम मौका मिला। यानी थिएटर मुझमें रचा-बसा है। मैं और कहीं इस तरह का काम नहीं करता। प्रस्ताव के बावजूद फिल्मों के अवार्ड फंक्शन का भी नहीं। एक बात और,भारत रंग महोत्सव में पूरे हिंदुस्तान के कलाकार आते हैं। इनसे मैं कभी नहीं मिल पाता लेकिन यहां पर आकर उन सबसे मुलाकात हो जाती है। एक तरह से थिएटर बिरादरी से जुड़ने का अवसर मिलता है। ऐसे में मैं यहां साल में एक बार आकर एक ताज़गी सी महसूस करता हूं। 
मुंबई में व्यावसायिक काम का दबाव
मुंबई में फिल्मों का कर्मशियल काम और उसका दबाव होता है। यहां पर मुझे अपने काम की आज़ादी मिलती है। मैं अपनी आसानी से काम करता हूं। मैं खुद ही सबको बताता हूं कि मैं यहां किस तरह से क्या करूंगा। सुझाव मिलने के बाद मैं अपना काम क्रिएट करता हूं। इस तरह थिएटर को मैं अपनी तरफ से योगदान देता हूं। फेस्टिवल में दिवंगत अभिनेता ओमपुरी की स्मृति को दरकिनार कर दिए जाने पर जंयत ने कहा, लेकिन मैं रंगमंच के तीन दिग्गजों स्व. पणिक्कर,प्रेम मटियानी और कन्हैयालाल के साथ ही ओमपुरी को भी यहां स्थान दे रहाहूं। मैंने यहां पर खुद ही कहा है। ड्रामा स्कूल की तरफ से भी कहा गया है, चारों को स्थान मिलना चाहिए। वो मैं कर रहा हूं। दो तो एनएसडी के ही हैं।

भोपाल में फिल्म-टीवी की बड़ी संभावनाएं 
दिल्ली में भारंगम के साथ मध्यप्रदेश के कला परिदृश्य को लेकर भी ज़िक्र चला। जंयत कहने लगे , भोपाल में फिल्म और टेलीविज़न के काम की काफी संभावनाएं हैं। काफी लोकेशन्स हैं।1993 में अनीता देसाई के नॉवल पर बनी फिल्म ‘इन कस्टडी’ जैसी फिल्मों से यह सिलसिला शुरू हुआ था। उसके बाद मैंने विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ से ए काम शुरू किया। ‘मकबूल’ के बात प्रकाश झा की सारी फिल्में मैंने भोपाल में ही की। उसके बाद रूमी जाफ़री की फिल्म ‘गली-गली में चोर’है की। अभी एक और फिल्म करने जा रहा हूं। मुंबई में अक्सर फिल्म डायरेक्टर्स से कहता हूं, भोपाल में लोकेशन है, चलो देखते हैं। इसका असर यह हुआ है कि काम लगातार हो रहा है। भोपाल में फिल्म का एक कल्चर बन गया है। आर्टिस्ट की भी कमी नहीं है। भोपाल में भारत भवन, रंगमंडल के बंद होने के बाद शौकिया थिएटर के समूहों ने बहुत काम किया।
भारत भवन, रंग मंडल का था बड़ा नाम  
1982 से 1991 तक जयंत रंग मंडल के कलाकार रहे। उस दौर को याद करते हुए कहने लगे, ‘मेरा यह मानना है कि जब भोपाल में रेपेटरी ज़िंदा थी, पूरे हिंदुस्तान में हम ड्रामा शोज़ लेकर घूमते थे। तब भारत भवन के उस रंगमंडल का एक प्रभाव था। लोग पूछते थे कि रंग मंडल का प्ले अब कब आ रहा है। अभी मुश्किल है कि वो हैपनिंग का दौर निकल गया। वो हिंदी थिएटर के लिए बड़ा नुकसान हुआ है। वहां दुनिया के बड़े डायरेक्टर्स आते थे। बड़े प्लेज़ वहां देखने को मिलते थे। सबकुछ बंद हो गया। हमारे रंग मंडल के लोग अब अपना ग्रुप बनाकर अपना काम कर रहे हैं। मगर पहले रेपटेरी होने की वजह से एम्योचोर नाट्य समूहों के सामने भी एक चुनौती रहती थी। वो खुद काफी सीखते थे, बेहतर करने की कोशिश करते थे। अब आपके सामने कोई है नहीं।'
एमपी का ड्रामा स्कूल बनाए आत्मनिर्भर 
भोपाल में अब मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय चल रहा है, उसका कोर्स एक साल का है लेकिन एक साल के कोर्स के बाद ड्रामा स्कूल का सर्टिफिकेट लेकर आर्टिस्ट जाएगा कहा, इसकी अभी तक कोई योजना नहीं है। आपने तो सर्टिफिकेट दे दिया। अब स्टूडेंट के सामने मुंबई या कहीं और संघर्ष करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। यह बेहद चिंता की बात है कि थिएटर का एजुकेशन आपको आत्मनिर्भर नहीं बना रहा है। बहुत एक्सट्रॉ ऑर्डनरी वर्क के बाद दो चार नाम निकल पाते हैं। मगर ज़्यादातर लोग गुम हो जाते हैं। मेरे विचार में थिएटर का एजुकेशन ऐसा होना चाहिए कि एक स्टुडेंट डिग्री पाने के बाद जीविका चला सके। 
रहा सवाल थिएटर का तो हमें इस बात का रोना बंद करना पड़ेगा कि थिएटर ग़रीब है। पैसा नहीं है। इसे बड़ा और अमीर बनाने के लिए आपको नए तरीके ढूंढना चाहिए। हम कैसे इसको मिडिल क्लास और फिर उससे और ऊपर ले जाएंगे। यह सोचना होगा। कहने लगे, जब मुंबई के काम से जी भर जाएगा, एमपी में थिएटर करने आ जाऊंगा। रायपुर,भोपाल,इंदौर में। जयंत रायपुर में पत्रकारिता कर चुके हैं। उनके इंदौर के ज़िक्र पर याद आया, इंदौर में सीनियर थिएटर आर्टिस्ट प्राजंल क्षोत्रिय टेरस थिएटर चला रहे हैं।  हाल ही में प्रांजल के टेरेस थिएटर में जब मैं एक शो देखने पहुंचा, तब उन्होंने मुझे बताया था कि अपनी इंदौर यात्रा के दौरान जयंत उनके बनाए टेरेस थिएटर को देखने आए थे। देखकर वो बेहद खुश हुए। कहने लगे, मैं जल्द ही इंदौर आकर एक ड्रामा डायरेक्ट करूंगा। 
 
सरकारी मदद से नहीं चलेगा थिएटर
अभी पूरे हिंदुस्तान में लोग ग्रांट ओरिएंटेड( सरकारी मदद से ) थिएटर कर रहे हैं। सरकार से जो पैसा मिल गया उसका एक शो कर दिया। उसके बाद बंद। पहले ऐसा था कि नाट्य मंडलियां नाटक तैयार कर फेस्टिवल में जाते थे। अब फेस्टिवल के लिए नाटक होता है। फेस्टिवल ख़त्म, नाटक ख़त्म। मैं भी आज सोचता हूं कि मुंबई में जो करना तो कर लिया। अब अपनी असली जगह थिएटर में क्या होगा। अब यहां विज़ुअल फेस्टिविटी दिखना चाहिए।
 
भारंगम के पोस्टर सड़क पर क्यों?
अपनी बात को और समझाते हुए जंयत बोले, मैंने भारत रंग महोत्सव के बड़े-बड़े पोस्टर एनएसडी की आऊटर वाल से सटाकर लगवाए हैं। इसके पीछे सोच यही है कि थिएटर का आदमी तो वैसे ही नाटक देखने आ जाएगा। सड़क पर चलता आदमी कैसे आएगा? साउथ की फिल्मों में रजनीकांत का अस्सी फीट के कटआउट और उसके दूध से स्नान को आप नकार नहीं सकते। अगर नसीर का अस्सी फीट का कटआउट लगाने से अगर दर्शक आते हैं तो लगाना चाहिए। वरना नया नसीर आएगा कहां से। पुराने नसीर को पहचानेगा कौन? 
 
फिल्म ‘आंखें 2’ में होगा आर्ट डायरेक्शन
चलते-चलते मैंने पूछा..मुंबई लौटकर कौन सी नई फिल्म करने वाले हैं..जयंत बोले..मैं अनीस बज़्मी की फिल्म ‘आंखे’ की सिक्वल के लिए भी काम कर रहा हूं। अनीस बज़्मी के लिए मैं दो फिल्में ‘सिंग इज़ किंग और वेलकम टू’ पहले कर चुका हूं।‘शक्ति’ नाम की एक फिल्म कर रहा हूं। मैंने पूछा..बीस साल से आप मुंबई में है, पहले और आज की लाइफ़ स्टाइल में क्या बदलाव आया है..मुस्कुराते हुए जयंत ने कहा, पहले और आज की लाइफ में कोई फर्क नहीं आया है। वही सुबह सैट पर ग्यारह बजे पहुंचकर रात ग्यारह बजे लौटने वाली ज़िदंगी है। यह करना ही पड़ता है। हर दिन नया वन टू वन। इसके अलावा कोई रास्ता ही नहीं है।  
(इंदौर-ग्वालियर रंगमंच से जुड़े रहे शकील अख़्तर वरिष्ठ पत्रकार हैं। दस सालों से इंडिया टीवी, नोएडा में बतौर सीनियर एडिटर सेवाएं दे रहे हैं) 
सभी तस्वीरें : जासमीन शर्मा, दिल्ली।

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