कुछ फिल्में बस अनायास बन जाती हैं और मील के पत्थर का रूप ले लेती हैं। इन्हें बनाने वाले भी नहीं जानते कि वे क्या रचने जा रहे हैं। जब फिल्म पूर्ण रूप में सामने आती है और दुनिया उसे हाथोहाथ लेती है, तो उन्हें अहसास होता है कि उन्होंने कुछ ऐतिहासिक बना डाला है। फिर वही लेखक, वही निर्देशक, वही कलाकार चाहकर भी वैसी कृति दोबारा नहीं रच सकते। वह अपनी तरह की एकमात्र क्लासिक बन जाती है। ऐसी ही एक क्लासिक फिल्म थी कुंदन शाह की 'जाने भी दो यारों' (1983)।
उस दौर में कला फिल्म बनाम व्यावसायिक फिल्म वाली बहस चरम पर थी। ऐसे में 'जाने भी दो यारों' ने दोनों के बीच की विभाजन रेखा को धुँधला किया। समाज के रोम-रोम में फैल चुके भ्रष्टाचार पर तंज करती यह फिल्म स्लैपस्टिक कॉमेडी के रास्ते व्यवस्था पर व्यंग्य करती चलती है। जब यह रिलीज हुई थी, तब तो इसने बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाई नहीं की लेकिन बाद में एक क्लासिक का दर्जा प्राप्त कर गई और टीवी, वीसीआर, डीवीडी पर सर्वाधिक देखी जाने वाली और बार-बार देखी जाने फिल्मों में शुमार हो गई।
यह कहानी है दो भले फोटोग्राफरों विनोद और सुधीर (नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी) की, जिन्हें 'खबरदार' की संपादक शोभा (भक्ति बर्वे) खास काम सौंपती है। उन्हें बिल्डर तरनेजा (पंकज कपूर) और भ्रष्ट म्यूनिसिपल कमिश्नर डिमेलो (सतीश शाह) की मिलीभगत का भंडाफोड़ करना है। एक दिन अनजाने में विनोद और सुधीर ऐसा फोटो खींच लाते हैं जिसमें तरनेजा एक आदमी का खून करते हुए नजर आ रहा है। खोजबीन करने पर पता चलता है कि खून डिमेलो का हुआ है।
वे डिमेलो की लाश ताबूत समेत ढूँढ निकालते हैं लेकिन यह लाश जैसे एक जगह न टिकने की कसम खाकर कब्र से बाहर आई है। वह बार-बार विनोद-सुधीर के हाथ से निकल जाती है और बार-बार वे उसे पुनः हथिया लेते हैं। यहाँ तक कि नशे में धुत एक अन्य बिल्डर अहूजा (ओम पुरी) डिमेलो के ताबूत को बिगड़ी कार समझकर अपनी कार से बाँधकर मुंबई की सड़कों पर खींचता चला जाता है।
भ्रष्ट बिल्डरों और अफसरों के शह और मात के खेल में नया कमिश्नर भी शामिल हो जाता है और शोभा भी! फिल्म का क्लाइमेक्स तो दर्शकों को हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देता है, जिसमें विनोद व सुधीर लाश को स्केट्स पर चलाकर, बुर्के में ढँककर एक सभागार में ले आते हैं, जहाँ 'महाभारत' का मंचन चल रहा है। पीछे-पीछे तमाम अन्य पात्र भी चले आते हैं। सबको लाश पर कब्जा करना है और लाश इधर-उधर होती हुई चीरहरण के लिए लाई गई द्रौपदी बन मंच पर जा पहुँचती है!
उसके पीछे-पीछे सारे अन्य लोग भी अपनी-अपनी सुविधा से कोई रूप धरकर मंच पर आ धमकते हैं और नाटक इस कदर स्क्रिप्ट से भटकता है कि 'महाभारत' से सलीम-अनारकली की दास्तान बन बैठता है! अब तक द्रौपदी का रोल कर रही लाश अब अनारकली बन जाती है...!
'जाने भी दो यारों' यूँ तो रंगमंच और कला फिल्मों से आए मँजे हुए कलाकारों से भरी पड़ी थी और इन सबने अपनी भूमिकाओं में जान फूँक दी थी मगर देखा जाए तो सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका सतीश शाह की थी, जिन्हें अधिकांश फिल्म में लाश बनना था। निर्देशक की कल्पनाशीलता के साथ-साथ यह सतीश की अभिनय प्रतिभा का ही कमाल था कि उन्होंने लाश के रोल में भी ऐसे प्राण फूँके कि हँसते-हँसते दर्शकों के पेट में बल पड़ गए।
कार चलाने की मुद्रा में ताबूत में बैठी लाश, स्केट पर सवार बुर्कानशीं बन दौड़ाई जा रही लाश, चीरहरण के लिए धृतराष्ट्र के दरबार में लाई गई लाश के रूप में सतीश की मुखमुद्रा और बॉडी लैंग्वेज भुलाए नहीं भूलती। यूँ तो 'जाने भी दो यारों' अपने आप में क्लासिक है लेकिन यदि नहीं भी होती, तो सतीश शाह की वजह से बन जाती।