ताराचंद ने अपनी स्नातक की शिक्षा कोलकाता के विधासागर कॉलेज से पूरी की। उनके पिता चाहते थे कि वह पढ़ लिखकर बैरिस्टर बने लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति खराब रहने के कारण ताराचंद को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोडऩी पड़ी। वर्ष 1933 में ताराचंद नौकरी की तलाश में मुंबई पहुंचे मुंबई में वह मोती महल थियेटर्स प्राइवेट लिमिटेड नामक फिल्म वितरण संस्था से जुड़ गए। यहां उन्हें पारश्रमिक के तौर पर 85 रुपए मिलते थे।
15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ तो इसी दिन उन्होंने राजश्री नाम से वितरण संस्था की शुरुआत की। वितरण व्यवसाय के लिए उन्होंने जो पहली फिल्म खरीदी वह थी चंद्रलेखा। जैमिनी स्टूडियो के बैनर तले बनी यह फिल्म काफी सुपरहिट हुई जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ। इसके बाद वह जैमिनी के स्थाई वितरक बन गए। इसके बाद ताराचंद ने दक्षिण भारत के कई अन्य निर्माताओं को हिन्दी फिल्म बनाने के लिए भी प्रेरित किया।
अंजली, वीनस, पक्षी राज और प्रसाद प्रोडक्शन जैसी फिल्म निर्माण संस्थाएं उनके ही सहयोग से हिन्दी फिल्म निर्माण की ओर अग्रसर हुई और बाद में काफी सफल भी हुईं। इसके बाद ताराचंद फिल्म प्रर्दशन के क्षेत्र से भी जुड़ गए जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ। उन्होंने कई शहरों में सिनेमा हॉल का निर्माण किया। फिल्म वितरण के साथ-साथ उनका यह सपना भी था कि वह छोटे बजट की पारिवारिक फिल्मों का निर्माण भी करें।