विश्वरूप - फिल्म समीक्षा

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बैनर : पीवीपी सिनेमा, राजकमल फिल्म्स इंटरनेशनल
निर्माता : प्रसाद वी.पोतलुरी, एस. चंद्रा हसन, कमल हसन
निर्देशक : कमल हासन
संगीत : शंकर-एहसान-लॉय
कलाकार : कमल हासन, पूजा कुमार, शेखर कपूर, राहुल बोस
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 38 मिनट

सबसे पहले खास बात यह कि ‘विश्वरूप’ में आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है क्योंकि आतंकवाद या आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है। शायद कमल हासन की फिल्म को राजनीतिक कारणों से शिकार बनाया जा रहा है।

9/11 के बाद आतंकवाद पर कई फिल्में बनी हैं और ‘विश्वरूप’ कमल हासन का प्रयास है। कमल हासन ने तह में जाने की कोशिश नहीं की है कि सही या गलत क्या है? न ही उन्होंने कोई अपना विचार दर्शाया है।

ये एक सीधी सी कहानी है जिसमें एक आतंकवादी संगठन लोगों को मारना चाहता है और हीरो उसे ऐसा करने से रोकता है। इस आतंकवादी संगठन का संबंध अफगानिस्तान से है जिसके निशाने पर अमेरिका और भारत जैसे देश हैं। फिल्म की कहानी ‘एजेंट विनोद’ से मिलती-जुलती है।

विश्वनाथ उर्फ विसाम अमेरिका में कथक सीखाता है। उसकी पत्नी निरुपमा उससे अलग होने के लिए कारण ढूंढ रही है। वह एक जासूस की सेवाएं लेती है ताकि विज़ की हर हरकत पर नजर रखी जा सके। गलती से जासूस एक दिन आतंकवादियों के घर पहुंच जाता है और उन आतंकियों के तार विज़ से जुड़े रहते हैं। यहां तक फिल्म बेहद रोचक है और जबरदस्त टर्न तब आता है जब पत्नी अपने भोंदू पति को अपनी आंखों के सामने गुंडों को मार गिराते हुए देखती है।

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यह एक्शन सीन दो बार देखने लायक है और इसलिए फिल्म में इसे दो बार दिखाया भी गया है, लेकिन अपने दृश्यों के प्रति यही प्यार आगे की फिल्म पर भारी पड़ा है। कमल हासन ने पैसा और समय दोनों खर्च किए हैं इसलिए वे दृश्यों को छोटा करने का साहस नहीं जुटा पाए, लिहाजा फिल्म का तीखापन कम हो गया। जो मजा एक थ्रिलर में आता है वो असर जाता रहा। फिल्म में अफगानिस्तान वाला हिस्सा श्रेष्ठ है। इसमें थ्रिल, इमोशन, ड्रामा और एक्शन नजर आते हैं। इस हिस्से के खत्म होते ही फिल्म का मजा कम हो जाता है।

क्लाइमेक्स लंबा खींचा गया है। माइक्रोवेव का फैराडे शील्ड के रूप में जो उपयोग (बम के रिमोट पर माइक्रोवेव रख दिया गया ताकि मोबाइल के जरिये बम को ब्लास्ट नहीं किया जा सके) दिखाया है वो हास्यास्पद है। फिल्म का अंत ओपन है और अंत में इसका दूसरा भाग बनाने की घोषणा भी की गई है।

विश्वरूप पुराने दौर की फिल्म की तरह नजर आती है जिनमें लंबे-लंबे दृश्य होते थे। अपनी बात कहने में समय लिया जाता था। इसलिए विश्वरूप अपने दूसरे हिस्से में ठहरी हुई और सुस्त फिल्म लगती है। फिल्म में कुछ बातें अनुत्तरित हैं। मसलन विसाम, विश्वनाथ बन कर क्यों रहता है? उसकी पत्नी क्यों उससे पीछा छुड़ाना चाहती है? इन सवालों के स्पष्ट जवाब नहीं मिलते हैं।

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फिल्म में गानों की गुंजाइश नहीं थी, इसलिए बैकग्राउंड में गानों को सुनाया गया है, हालांकि इसकी भी जरूरत नहीं थी। एक्शन सीन अच्छे बन पड़े हैं। नाटो का अफगानी आतंकवादियों पर हमले वाला सीन उल्लेखनीय है।

लेखन और निर्देशन की तरह एक अभिनेता के रूप में भी कमल हासन सुस्त नजर आए। अपने किरदार में वे स्पार्क पैदा नहीं कर सके। उम्र भी उन पर हावी हो गई है। एक आंख वाले विलेन के रूप में राहुल बोस ने जबरदस्त अभिनय किया है। जयदीप अहलावत ने उनका साथ बखूबी निभाया है। पूजा कुमार और एंड्रिया जर्मिया ने अपने-अपने रोल संजीदगी से निभाए हैं।

‘विश्वरूप’ कमल हासन के स्तर के कलाकार और फिल्मकार की गरिमा के अनुरूप नहीं है।

रेटिंग : 2.5/5
1-बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत

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