आस्था और अंधविश्वास के मध्य में ‘फूँक’

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बैनर : वन मोर थॉट प्रोडक्शन
निर्माता : आज़म खान
निर्देशक : रामगोपाल वर्मा
संगीत : अमर मोहिले
कलाकार : सुदीप, अमृता खानविलकर, अहसास चन्ना, ज्योति सुभाष, अश्विनी कल्सेकर
रेटिंग : 2.5/5

आस्था और अंधविश्वास के बीच बेहद महीन रेखा होती है, पता नहीं चलता कि कब आस्था अंधविश्वास में तब्दील हो गई। मानो एक ‘फूँक’ से हम इधर से उधर हो सकते हैं।

अदृश्य शक्तियों पर विश्वास करने को कुछ लोग आस्था और कुछ अंधविश्वास कहते हैं। यदि भगवान है तो शैतान भी है। लेकिन कुछ लोग भगवान को मानते हैं, शैतान को नहीं। कुछ दोनों पर विश्वास करते हैं और कुछ दोनों पर नहीं। इनके बीच एक अंतहीन बहस सदियों से चली आ रही है।

विज्ञान पर भरोसा करने वाले भी आस्थावन होते हैं क्योंकि विज्ञान की डिग्री होने के बावजूद कई इंसान मंदिर या मस्जिद जाते हैं, ताबीज बाँधते हैं और अँगूठी पहनते हैं।

अलग-अलग विश्वास करने वाले चरित्रों को लेकर रामगोपाल वर्मा ने ‘फूँक’ का निर्माण किया है। ‘फूँक’ उतनी डरावनी फिल्म नहीं है, जितना इसके बारे में प्रचारित किया जा रहा है। यह फिल्म वास्तविकता के करीब है और कई लोगों के साथ ऐसी घटनाएँ घटती हैं, जिसका कोई जवाब नहीं होता है।

राजीव एक सिविल इंजीनियर है। उसके परिवार में पत्नी के अलावा एक बेटी और एक बेटा है। राजीव नास्तिक है और किसी भी तरह की अदृश्य शक्तियों पर उसे भरोसा नहीं है। उसकी पत्नी भगवान पर अटूट विश्वास करती है।

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खुशहाल राजीव की जिंदगी में तब तूफान आ जाता है जब उसकी बेटी अजीबो-गरीब हरकत करना शुरू कर देती है। ऐसा लगता है कि उस पर किसी बुरी आत्मा का साया हो।

राजीव अपनी बेटी का इलाज डॉक्टर्स से करवाता है, लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं होता। घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि नास्तिक राजीव काला जादू करने वाले की शरण में जाता है और उधर उसकी पत्नी का भगवान पर से विश्वास उठने लगता है। फिल्म का अंत निर्देशक ने कुछ इस तरह किया है राजीव अदृश्य शक्ति पर विश्वास करने लगता है और उसकी पत्नी विज्ञान पर।

दरअसल इस तरह की कहानी को खत्म करना बेहद मुश्किल है क्योंकि विज्ञान और काला जादू में से किसी एक का पक्ष लेना था। निर्देशक ने कोशिश भी की कि उनका झुकाव किसी भी तरफ नहीं दिखे, लेकिन अंत में काले जादू की तरफ उनका झुकाव हो जाता है। राजीव की बेटी को काले जादू ने ठीक किया या डॉक्टर्स ने इसका फैसला निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने दर्शकों के जिम्मे छोड़ा है। लेकिन अंधविश्वास को बढ़ावा देने के आरोप से वे बच नहीं सकते क्योंकि तांत्रिक बाबा ही इस घटना के पीछे छिपे राज का पता लगाते हैं। यह बात फिल्म के खिलाफ जाती है।

फिल्म का विषय उम्दा है, लेकिन इस पर फिल्म बनाना कठिन है। रामगोपाल वर्मा ने एक साधारण कहानी को असाधारण तरीके से परदे पर प्रस्तुत किया है। डराने के लिए रामू ने स्पेशल इफेक्ट्स या मैकअप का सहारा नहीं लिया है। डर उन्होंने दर्शक की कल्पना पर छोड़ा है। वैसे भी इसे हॉरर फिल्म कहना गलत होगा क्योंकि उन्होंने एक विचार को हॉरर का टच देकर प्रस्तुत किया है। फिल्म का अंत एकदम फिल्मी है। ऐसा लगा जैसे रामसे ब्रदर्स की फिल्म देख रहे हो। फिल्म को थोड़ा छोटा भी किया जा सकता था।

तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सविता सिंह का कैमरावर्क शानदार है और उन्होंने लाँग शॉट और क्लोज शॉट का बेहतरीन प्रयोग किया है। कैमरा मूवमेंट भी जबर्दस्त है। साउंड डिजाइनर कुणाल मेहता और परीक्षित लालवानी और अमर मोहिले का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है।

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फिल्म के अधिकांश कलाकार अपरिचित चेहरे हैं, लेकिन यह कहानी की माँग थी। सुदीप, अमृता खानविलकर, ज्योति सुभाष, अश्विनी कलसेकर, केन्नी देसाई, ज़ाकिर हुसैन ने अपने किरदार उम्दा तरीक से निभाए हैं। रक्षा बनी बाल कलाकार अहसास चान्ना का उल्लेख भी जरूरी है, जिन्होंने कठिन भूमिका पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाई है।

‘फूँक’ एक अलग विषय और तकनीकी दक्षता की वजह से एक बार देखी जा सकती है। वैसे वे लोग इस फिल्म को कम पसंद करेंगे, जो किसी भी अदृश्य शक्ति पर भरोसा नहीं करते हैं।