चश्मे बद्दूर (1981) एक क्लासिक मूवी है, जिसे सई परांजपे ने निर्देशित किया था। इस फिल्म में फारुख शेख, राकेश बेदी, रवि वासवानी और दीप्ति नवल ने लीड रोल निभाए थे। चश्मे बद्दूर की कहानी इतनी बढ़िया है कि इस पर समय की धूल नहीं जम सकती। पचास वर्ष बाद भी इस पर फिल्म बनाई जा सकती है। टीनएजर्स और युवाओं को यह कहानी बेहद अपील करती है।
तीन दोस्त हैं। दो लंपट और एक सीधा-सादा। उनके पड़ोस में एक लड़की रहने आती है। लंपट दोस्त उस लड़की को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन मुंह की खाते हैं। इस बात को छिपाते हुए वे अपने दोस्तों को नमक-मिर्च लगाकर किस्से बताते हैं और लड़की को बदनाम करते हैं।
जब दोनों दोस्तों को पता चलता है कि उनके सीधे-सादे दोस्त का इश्क उसी लड़की से चल रहा है तो वे ईर्ष्या की आग में जल कर दोनों के बीच गलतफहमी पैदा करने में सफल रहते हैं। बाद में उन्हें गलती का अहसास होता है तो वे इसे सुधारते हैं।
इस कहानी में अश्लीलता और फूहड़ता के तत्व घुसाने के सारी संभावनाएं मौजूद हैं, लेकिन सई ने कहानी की मासूमियत को जिंदा रखते हुए बिना अश्लील हुए बेहतरीन तरीके से इसे स्क्रीन पर पेश किया था।
रीमेक डेविड धवन ने बनाया है जो माइंडलेस और फूहड़ सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। सई इस बात को लेकर खफा भी हैं कि डेविड उनकी क्लासिक फिल्म को फिर बना रहे हैं। डेविड अपना सर्वश्रेष्ठ भी दें तो भी वे सई के नजदीक नहीं फटक सकते हैं। अपनी आदत के मुताबिक वे थोड़े बहके भी हैं, लेकिन सीमा में रहकर। कुल मिलाकर उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई है जिसे हंसते हुए देखा जा सकता है।
रास्कल जैसी फिल्म बनाने के बाद लगने लगा था कि डेविड अब चूक गए हैं, लेकिन उन्होंने अच्छी वापसी की है और बिना सितारों के फिल्म बनाने का साहस किया है।
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चश्मे बद्दूर (2013) पुरानी फिल्म की सीन दर सीन कॉपी नहीं है, लेकिन उसका एसेंस (अर्क) इस फिल्म में मौजूद है। कुछ उम्दा सीन को दोहराया गया है, जैसे चमको वॉशिंग पाउडर वाला सीन, और आज के दर्शक के टेस्ट के मुताबिक जरूरी बदलाव किए हैं।
पिछली बार कहानी दिल्ली की थी, यहां गोआ आ गया है, हालांकि इसको बदलने से कुछ खास बदलाव नहीं दिखता। अनुपम खेर का डबल रोल डेविड ने अपनी स्टाइल में डाला है, घटिया शायरी और एसएमएस वाले जोक भी सुनने को मिलते हैं, लेकिन इनका संतुलन सही है, इसलिए ये अखरते नहीं हैं। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां भी हैं। मसलन जोसेफ और जोसेफीन की शादी कराने वाले दोस्त अचानक इसके खिलाफ क्यों हो जाते हैं। कुछ घटनाक्रम लगातार दोहराए गए हैं जो खीज पैदा करते हैं।
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चश्मे बद्दूर (2013) की खासियत है इसकी ताजगी और ऊर्जा। डेविड ने कहानी को ऐसा दौड़ाया है कि दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता और वह फिल्म में एंगेज रहता है। एक के बाद एक मजेदार सीन आते हैं और ज्यादातर हंसाने में कामयाब रहते हैं। खासतौर पर द्विव्येन्दु शर्मा और सिद्धार्थ वाले सीन।
कहने को तो फिल्म के हीरो अली जाफर हैं, लेकिन सही मानों में द्विव्येन्दु और सिद्धार्थ का रोल पॉवरफुल है। उन्हें बेहतरीन सीन और संवाद मिले हैं। दोनों में सिद्धार्थ बाजी मार ले जाते हैं। उनका अभिनय एकदम नैसर्गिक है। अली जाफर से ओवर एक्टिंग कराई गई है और कई बार वे देवआनंद की मिमिक्री करते नजर आएं। तापसी पन्नु निराश करती हैं।
ऋषि कपूर और लिलेट दुबे वाला ट्रेक हम सैकड़ों फिल्मों में देख चुके हैं और ये बोर करता है। अनुपम खेर और भारती आचरेकर हंसाने में कामयाब रहे हैं।
साजिद-फरहाद के वन लाइनर दमदार हैं और ज्यादातर हास्य उनके लिखे संवादों से ही पैदा हुआ है। खासतौर पर सिद्धार्थ और द्विव्येन्दु के लिए उन्होंने अच्छे डॉयलाग लिखे हैं। गानों का फिल्मांकन और स्टाइल 80 के दशक वाला रखा गया है। शायद इसीलिए एक गाने ढिचकियाऊं में उस दौर के गीतों की तर्ज पर ऊटपटांग बोल हैं। कुछ पुराने हिट गानों का भी सहारा लिया गया है।
डेविड धवन ने अपनी शैली का तड़का लगाकर ‘चश्मे बद्दूर’ बनाई है। पुरानी चश्मे बद्दूर से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने ऐसी फिल्म तो बनाई है जिसे ढेर सारे पॉपकॉर्न और कोला के साथ देखा जा सकता है। हालांकि जो तालियां डेविड के लिए बजती हैं, सही मायनों में 80 प्रतिशत की हकदार सई परांजपे हैं क्योंकि मूल काम तो उनका है।