‘मेरी उम्र 21 वर्ष है। मैं आज की जनरेशन की हूं जहां सेक्स पहले करते हैं और फिर प्यार होता है।‘ 38 वर्षीय मेजर समर को डिस्वकरी चैनल के लिए काम करने वाली अकीरा कहती है। समर की डायरी पढ़कर उसे यकीन नहीं होता कि समर, उस मीरा को अभी भी दिल में बैठाए घूम रहा है, जिससे उसके मिलन की कोई संभावना नहीं है।
बॉम्ब सूट पहने बिना समर बम डिफ्यूज करता है क्योंकि उसका मानना है कि बम से गहरे जख्म उसे जिंदगी ने दिए है। जब जिंदगी के जख्मों से बचने के लिए कोई सूट नहीं होता तो फिर बम से क्या डरना। उसके दिल पर मीरा से बिछड़ने का जख्म अभी भी हरा है। समर की दीवानगी देख अकीरा उससे प्यार कर बैठती है क्योंकि उसका मानना है कि उसकी जनरेशन में इस तरह से प्यार करने वाले लड़के बचे नहीं हैं।
समर-मीरा और अकीरा इर्दगिर्द घूमती हुई प्रेम-त्रिकोण वाली कहानी आदित्य चोपड़ा ने लिखी है और इसमें थोड़ी झलक ‘वीरा जारा’ की नजर आती है, जो ‘जब तक है जान’ के पहले यश चोपड़ा ने निर्देशित की थी।
यश चोपड़ा ने जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाईं, उसमें प्रेमी डूबकर प्यार करने वाले होते हैं। उन्हें अपना पसंदीदा साथी नहीं मिलता तो वे उसकी यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट देते थे, लेकिन अब प्यार की परिभाषा ‘तू नहीं तो और सही’ वाली हो गई है और देवदास को बेवकूफ समझा जाता है।
जब तक है जान के जरिये उस प्यार को अंडरलाइन किया गया है, जिसे सच्चा प्यार कहा जाता है। साथ ही समर की जिंदगी में आई दो लड़कियों के सहारे दो जनरेशन के प्यार करने के अंदाज में आए परिवर्तन की झलक दिखलाने की कोशिश भी की गई है। ऐसा ही प्रयास इम्तियाज अली ने ‘लव आज कल’ में किया था।
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आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखी गई कहानी और स्क्रीनप्ले न तो पूरी तरह से परफेक्ट है और न ही इनमें कुछ नई बात है। कुछ घटनाक्रम तो ऐसे हैं कि आपको एकता कपूर के वर्षों चलने वाले धारावाहिकों याद आ जाती है।
शाहरुख-कैटरीना की प्रेम कहानी टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल में है। लंदन में रहने वाली अमीरजादी मीरा को वेटर समर से प्यार हो जाता है। गिटार बजाते और गाना गाते शाहरुख को उसी अंदाज में पेश किया गया है जैसे बरसों पहले वे रोमांटिक मूवी में नजर आते थे। यहां पर फिल्म की शुरुआत बेहद धीमी और उबाऊ है, लेकिन धीरे-धीरे बात बनने लगती है।
कुछ कारणों से समर और मीरा की प्रेम कहानी का सुखांत नहीं होता। यहां से कहानी दस वर्ष का जम्प लेती है और समर को कश्मीर और लद्दाख में सेना के लिए काम करते हुए दिखाया जाता है। अकीरा (अनुष्का शर्मा) की एंट्री होती है। अनुष्का अपनी एक्टिंग और लुक से फिल्म में ताजगी और गति दोनों ही लाती हैं। क्लाइमेक्स से थोड़ा पहले फिल्म फिर कमजोर हो जाती है।
एक कुशल निर्देशक वो होता है जो कहानी की कमजोरी को अपने दमदार प्रस्तुतिकरण के बल पर छुपा देता है। अपने आखिरी समय तक फिल्म बनाते रहे यश चोपड़ा इस काम में माहिर थे। जब तक है जान में उन्होंने किरदारों के प्रेम की भावना को इतनी गहराई से पेश किया है कि ज्यादातर समय फिल्म दर्शकों को बांध कर रखती है और यह जिज्ञासा कायम रहती है कि फिल्म के अंत में क्या होगा।
जब तक है जान पर यश चोपड़ा के निर्देशन की छाप नजर आती है। उन्होंने किरदारों के अंदर चल रही भावनाओं को बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। कई दृश्य दिल को छूते हैं और फिल्म पर उनकी पकड़ मजबूत नजर आती है।
लगभग तीन घंटे की इस फिल्म को एडिट कर टाइट किया जाना बेहद जरूरी है। एक निर्देशक शूटिंग के दौरान कई सीन फिल्मा लेता है और एडिटिंग टेबल पर उसे जो गैर जरूरी लगते हैं उन्हें हटवा देता है। संभव है कि पोस्ट प्रोडक्शन का काम यश चोपड़ा नहीं देख पाए और इस वजह से फिल्म में उन दृश्यों को भी जगह मिल गई जो जरूरी नहीं थे।
एआर रहमान का काम सराहनीय है। सांस, इश्क शावा और हीर की धुन मधुर है। साथ ही रहमान का बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को ऊंचाई प्रदान करता है। आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखे गए कुछ संवाद जोरदार हैं हालांकि सिंक साउंड होने की वजह से कई बार डॉयलाग सुनने में परेशानी होती है।
जहां तक अभिनय का सवाल है तो शाहरुख खान अपने बेसिक्स की और लौटे हैं। उन्होंने अपने अभिनय में वही मैनेरिज्म अपनाए हैं जिसके लोग दीवाने हैं। वैसे भी रोमांटिक रोल में वे बेहद सहज और नैसर्गिक लगते हैं, लेकिन अब चेहरे पर उम्र के निशान गहराने लगे हैं।
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यश चोपड़ा अपनी हीरोइनों को बेहद खूबसूरत तरीके से स्क्रीन पर पेश करने के लिए जाने जाते हैं और यहां पर वे कैटरीना पर मेहरबान नजर आएं। कैटरीना की एक्टिंग औसत से बेहतर कही जा सकती है। अनुष्का शर्मा अपनी बिंदास एक्टिंग के बल पर कैटरीना से आगे नजर आती हैं। उनके चेहरे पर हर तरह के एक्सप्रेशन नजर आते हैं।
कुल मिलाकर जब तक है जान उस रोमांस के लिए देखी जा सकती है, जो वर्तमान दौर की फिल्मों में नजर नहीं आता है।