*यू/ए * 14 रील निर्माता : विशाल भारद्वाज - कुमार मंगत निर्देशक : अनुराग कश्यप गीतकार : गुलजार संगीतकार : विशाल भारद्वाज कलाकार : जॉन अब्राहम, आयशा टाकिया, रणवीर शौरी, परेश रावल रेटिंग : 2/5
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‘ब्लैक फ्रायडे’ जैसी फिल्म बना चुके अनुराग कश्यप से उम्मीद थी कि ‘नो स्मोकिंग’ के रूप में बेहतर फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन सवा दो घंटे की इस फिल्म का केवल मध्यांतर के पहले वाला हिस्सा प्रभावशाली है।
धूम्रपान के खिलाफ बनाई गई यह फिल्म मध्यांतर तक बेहतर फिल्म की संभावनाएँ जगाती है। मध्यांतर के बाद लेखक और निर्देशक के रूप में अनुराग ने फिल्म को इस तरह उलझा दिया है कि सब कुछ गड़बड़ हो गया है।
के (जॉन अब्राहम) की जिंदगी में सिगरेट का पहला स्थान है। उसके बाद उसकी पत्नी अंजली (आयशा टाकिया) और दोस्तों का नंबर आता है। के जिंदगी अपने हिसाब से जीना पसंद करता है और उसे किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं है। अंजली के कहने पर भी वह सिगरेट पीना नहीं छोड़ता। आखिरकार अंजली ही घर छोड़कर चली जाती है।
अंजली के जाने के बाद के सिगरेट छोड़ने की सोचता है और बाबा बंगाली (परेश रावल) के पास जाता है। बाबा के चंगुल में जो फँस जाता है उसे सिगरेट पीना छोड़नी ही पड़ती है। यदि बाबा की बात नहीं मानी गई तो आपके साथ कोई भी हादसा घटित हो सकता है।
अनुराग ने मध्यांतर के पहले वाला हिस्सा बेहद उम्दा बनाया है। इस हिस्से की कहानी में उन्होंने अपनी कल्पनाओं के खूब रंग भरे हैं। फिल्म का पहला दृश्य जो कि जॉन द्वारा देखा गया सपना है, बेहद उम्दा है।
इसके बाद जॉन जब बाबा बंगाली से मिलने पहली बार प्रयोगशाला जाता है, उस दृश्य में भी कल्पनाशीलता नजर आती है। बाबा बंगाली की प्रयोगशाला किसी अजूबे से कम नहीं है। जहाँ एक ओर कबाड़खाना है, वहीं दूसरी ओर बुर्का पहनकर फोन पर बात करने वाली लड़कियाँ हैं।
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जिस तरह कुछ ज्योतिषियों के पास ताड़-पत्र में हर व्यक्ति का अतीत और भविष्य लिखा हुआ है, उसी तरह बाबा बंगाली के पास सिगरेट पीने वाले हर व्यक्ति की वीडियो कैसेट है, जिसमें उसने सिगरेट पीना कैसे शुरू की, कितनी बार बीमार पड़ा, कितना खर्चा लगा जैसी तमाम घटनाओं के दृश्य कैद हैं।
अपना माल बेचने के लिए सदस्य बनाने वाली कंपनियों से भी अनुराग ने प्रेरणा ली है। बाबा बंगाली का कहा एक बार नहीं माना गया तो वे उंगलियाँ काट लेते हैं। यदि आप उनके पास एक ग्राहक भेजते हैं तो वे आपकी उंगलियाँ लौटा देते हैं।
एक दृश्य में उन्होंने जॉन और रणवीर शौरी को बच्चा बताया है, जब उन्होंने पहली बार सिगरेट पी थी। इस दृश्य को उन्होंने नाम दिया है ‘क्योंकि बचपन भी कभी नॉटी था….’। शायद उनका इशारा एकता कपूर के धारावाहिकों की तरफ था।
अनुराग का कहना है कि जब एकता के धारावाहिक में बीस वर्ष के लोग दादा-दादी बन जाते हैं तो मेरी फिल्म में तीस वर्ष का कलाकार बारह वर्ष का बच्चा भी बन सकता है। फ्लैशबेक दृश्यों को उन्होंने पुरानी फिल्मों जैसा फिल्माया है। इन दृश्यों के माध्यम से अनुराग ने अच्छा हास्य रचा है।
मध्यांतर के बाद वाले हिस्से में उनकी कहानी कहने का अंदाज बेहद कठिन हो गया। यहाँ पर कहानी पर प्रयोग हावी हो गए। ऐसा लगा जैसे कि सरपट सड़क पर दौड़ने वाली गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने लगी। इस वजह से फिल्म का समग्र प्रभाव बेहद कम हो गया।
जॉन अब्राहम ने अपना रोल पूरी गंभीरता से निभाया है। निर्देशक ने उनके व्यक्तित्व का भरपूर उपयोग किया है। आयशा टाकिया ने सिर्फ काम निपटाया। परेश रावल अपने अभिनय में कुछ नयापन नहीं ला पाए।
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गानों के लिए सिचुएशन कम थी। ‘जब भी सिगरेट पीता हूँ’ अच्छा है। बिपाशा पर फिल्माया गया और बहुप्रचारित किया गया गाना फिल्म के अंत में आता है। इस गाने को बीच में रखा जाना था। राजीव राय की फोटोग्राफी प्रभावशाली है।
बॉक्स ऑफिस पर फिल्म का कामयाब होना मुश्किल है, लेकिन इस फिल्म को देख कुछ लोग धूम्रपान करना बंद कर देते हैं तो इसे फिल्म की कामयाबी माना जाएगा।