सचिन तेंडुलकर ने न केवल भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, बल्कि उन्होंने कई बच्चों को सपना भी दिया कि वे उनके जैसे महान क्रिकेटर बनें। आने वाले दिनों में कई खिलाड़ी सामने आ सकते हैं जिन्हें सचिन को खेलता देख क्रिकेट खेलने की प्रेरणा मिली और वे भारतीय टीम तक आ पहुंचे। इसी सपने, सचिन और उनकी फरारी कार को लेकर राजकुमार हिरानी ने ‘फरारी की सवारी’ की कहानी लिखी है।
रूसी (शरमन जोशी) के बेटे कायो (ऋत्विक साहोरे) का सपना है कि वह एक दिन बड़ा क्रिकेट खिलाड़ी बने। आरटीओ में क्लर्क होने के बावजूद रूसी के पास पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती है क्योंकि वह ईमानदार तो इतना कि रेड सिग्नल में यदि वह आगे बढ़ जाए तो खुद पुलिस के पास जाकर फाइन भरता है।
अपने बेटे के सपने और पैसे की तंगी के बीच जूझ कर हताशा में वह कहता है कि हम जैसे (मिडिल क्लास) लोगों को तो सपने ही नहीं देखना चाहिए। बेटे के सपने को पूरा करने की जद्दोजहद में वह न चाहते हुए भी गलत काम कर बैठता है जिसके कारण कई परेशानियों से घिर जाता है। आखिरकार वह तमाम बिगड़ी हुई स्थिति को सही करता है और थोड़ी देर के लिए पुत्र मोह में बेईमानी के रास्ते पर आगे बढ़ने के बाद वह पुन: ईमानदारी की राह पर आ जाता है।
रूसी जैसा किरदार इन दिनों फिल्मों से गायब है। शायद दुनिया में ही ऐसे लोग बहुत कम बचे हैं और इसी वजह से ये फिल्मों में नजर नहीं आते हैं। उसका भोलापन, ईमानदारी और जिंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया एक सुखद अहसास कराता है। हालांकि फिल्म में सहानुभूति बटोरने के लिए दया का पात्र बनाकर पेश किया गया है जो अखरता है।
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ये दिखाना जरूरी नहीं था कि उसके पास पुराना स्कूटर है। मोबाइल नहीं है। लोन पाने के लिए मोबाइल खरीदने वाला प्रसंग उसकी मासूमियत नहीं बल्कि बेवकूफी दर्शाता है। फिर भी पहली बार मोबाइल खरीदने की खुशी और अपने पिता देबू (बोमन ईरानी) से घर में ही मोबाइल द्वारा बात करने का सीन बढिया है।
उम्दा सीन की बात निकली है तो ऐसे कई सीन हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है। इनमें से एक परेश रावल और बोमन ईरानी पर साथ में फिल्माया गया दृश्य है, जिसमें वे 38 वर्ष बाद मिलते हैं। परेश और बोमन की एक्टिंग इस दृश्य में देखने लायक है। इसी तरह सचिन के नौकर और गार्ड के सीन तथा सीमा पाहवा के दृश्य हंसाते हैं। फिल्म को थोड़ा कमजोर करता है इसका स्क्रीनप्ले। यही कारण है कि फिल्म उतनी अच्छी नहीं बन पाई है, जितनी कि इसे होना था। फिल्म सेकंड हाफ में धीमी पड़ती है। मराठी नेता और उसके बेटे वाले ट्रेक को जरूरत से ज्यादा फुटेज दिया गया है, जिसकी वजह से फिल्म काफी लंबी हो गई है। सचिन की फेरारी का उनके घर से ले जाने वाला प्रसंग भी अविश्वसनीय लगता है। इन कमियों के बावजूद फिल्म यदि ज्यादातर समय बांध कर रखती है तो निर्देशन और एक्टिंग के कारण।
बतौर निर्देशक राजेश मापुस्कर की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी निर्देशक की तरह है और उन्हें सिनेमा माध्यम की अच्छी समझ है। उन्होंने न केवल तमाम कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है बल्कि तीन पीढ़ी (दादा-बेटा-पोता) को अच्छी तरह से पेश किया है। सचिन तेंडुलकर के फिल्म में न होने के बावजूद पूरी फिल्म में उनकी उपस्थिति महसूस होती है और इसका श्रेय भी राजेश को जाता है।
अभिनय की दृष्टि से शरमन जोशी के करियर की यह श्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाएगी क्योंकि इतना बड़ा अवसर उन्हें पहली बार मिला है। यदि वे अपने एक्सप्रेशन में वैरीएशन लाते तो उनका अभिनय और निखर जाता।
मूंगफली खाने और दिन भर टीवी देखने वाले बूढ़े के रोल को बोमन ने जीवंत कर दिया। बाल कलाकार ऋत्विक साहोरे को एक रेस्टोरेंट में देख कर निर्देशक ने अपनी फिल्म के लिए चुना था और उन्होंने अपने चयन को सार्थक किया। शरमन के साथ उनकी कैमिस्ट्री खूब जमी और उनके अभिनय में विविधता देखने को मिली।
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अच्छा कलाकार वहीं होता है जो छोटे से रोल में भी अपना प्रभाव छोड़ दे और परेश रावल यही करते हैं। विद्या बालन के आइटम सांग के लिए सही सिचुएशन बनाई गई है और विद्या ने बिंदास डांस किया है। सीमा पाहवा, दीपक शिरके सहित तमाम कलाकारों ने अपने छोटे-छोटे रोल में प्रभावशाली अभिनय किया है।
फरारी की सवारी कही-कही बोर करती है, थीम से भटकती है, लेकिन पूरी फिल्म की बात करें तो इसे अच्छी फिल्म कहा जा सकता है। यह फिल्म उन लोगों की शिकायत भी दूर करती है जो कहते हैं कि आजकल साफ-सुथरी फिल्में नहीं बनती हैं।