बिना आवाज की (दे) ताली

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निर्माता : रवि वालिया
निर्देशक : ईश्वर निवास
संगीत : विशाल-शेखर
कलाकार : आफताब शिवदासानी, आयशा टाकिया, रितेश देशमुख, रिमी सेन, सौरभ शुक्ला, अनुपम खेर
रेटिंग : 1.5/5

फिल्म में एक दृश्य है, जिसमें रितेश देशमुख ने रिमी सेन का अपहरण कर लिया है। वे उन पर एक पत्र लिखने का दबाव डालते हैं। रिमी पत्र लिखने से इंकार करती हैं। रितेश धमकी देते हुए कहते हैं कि यदि उन्होंने कहा नहीं माना तो वे उसे ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ दिखाएँगे। रिमी मान जाती हैं। हो सकता है कि अगली किसी फिल्म में नायिका को यातना देने के लिए ‘दे ताली’ दिखाई जाने की धमकी दी जाए।

‘दे ताली’ को अब्बास टायरवाला ने लिखा है, जिन्होंने आमिर खान के लिए ‘जाने तू...या जाने ना’ बनाई है। ‘दे ताली’ फिल्म के खराब होने का सारा दोष अब्बास का ही है। वे यह निर्णय ही नहीं ले पाए कि फिल्म को क्या दिशा दें। कभी फिल्म गंभीर हो जाती है, तो कभी तर्क-वितर्क से परे हास्य की दिशा में मुड़ जाती है।

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अमू (आयशा टाकिया), अभि (आफताब शिवदासानी) और पगलू (रितेश देशमुख) बेहद पक्के दोस्त हैं। अभि बहुत अमीर है और उसके पैसे पर उसके दोनों दोस्त मजे करते हैं। अमू तो अभि के पापा (अनुपम खेर) के ऑफिस में काम करती है, लेकिन पगलू कोई काम-धंधा नहीं करता। उसके पास घर का किराया देने के पैसे नहीं है, लेकिन कपड़े बड़े शानदार पहनता है। इन दिनों हर दूसरी फिल्म में किराएदार और मकान मालिक के बीच फिजूल के हास्य दृश्य दिखाए जाते हैं, जो इस फिल्म में भी हैं।

दोस्ती में ‍प्यार की मिलावट की गई है। अमू मन ही मन अभि को चाहने लगती है और उसे लगता है कि अभि भी उसे चाहता है। अमू के मन की बात पगलू जानता है। दोनों उस समय चौंक जाते हैं जब अभि अपनी नई गर्लफ्रेंड कार्तिका (रिमी सेन) से उन्हें मिलवाता है। कार्तिका एक चालू किस्म की लड़की है (यह भेद बहुत जल्दी खोल दिया गया है), जो सिर्फ पैसों की खातिर अभि को चाहती है। पगलू चाहता है कि अभि और अमू की शादी हो। अमू के साथ मिलकर वह हास्यास्पद योजनाएँ बनाता है और कार्तिका की असलियत उसके सामने लाता है।

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फिल्म की कहानी में ऐसे तत्व हैं, जिनके आधार पर ‍अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी। लेकिन पटकथा इतनी सतही लिखी गई है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता। फिल्म के चरित्र भी दोषपूर्ण हैं। अभि खुद यह नहीं जानता कि वह किसे चाहता है? जब कार्तिका की बुराई सुनता है तो अमू को चाहने लगता है और कार्तिका को सामने पाकर उससे शादी करने के सपने देखने लगता है। पूरी फिल्म में पगलू, कार्तिका की असलियत सामने लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता है, अंत में कार्तिका के साथ हो जाता है।

फिल्म के शुरुआती 45 मिनट बेहद बोर हैं। रिमी सेन जब फिल्म में प्रवेश करती है तब फिल्म में थोड़ी देर के लिए रुचि पैदा होती है। इसके बाद फिल्म में बची-खुची रुचि भी खत्म हो जाती है और जो दिखाया जा रहा है उसे झेलना पड़ता है।

फिल्म के निर्देशक ईश्वर निवास (पहले ई. निवास थे, अब ईश्वर हो गए हैं, शायद किस्मत जाग जाए इसलिए) का सारा ध्यान फिल्म को मॉडर्न लुक देने में रहा। आधुनिक कपड़े, ट्री हाउस, डिस्कोथेक, शानदार घर और ऑफिस, बड़ी-बड़ी बातों की भूलभुलैया में वे फिल्म की पटकथा पर ध्यान देना भूल गए। गानों का फिल्मांकन भव्य है, लेकिन बिना सिचुएशन के ये कहीं से भी टपक पड़ते हैं। विशाल-शेखर का संगीत बेदम है।

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फिल्म की कहानी टीनएज कलाकारों की माँग करती है, लेकिन आफताब और रितेश जैसे कलाकारों से काम चलाया गया है। रितेश तो फिर भी ठीक हैं, लेकिन आफताब मिसफिट हैं। उन्होंने खूब बोर किया है। हास्य भूमिकाएँ निभाने में रितेश को महारत हासिल है, यह एक बार फिर उन्होंने साबित किया है। आयशा टाकिया को ज्यादा मौका नहीं मिला है। रिमी सेन के चरित्र में कई रंग हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है। अनुपम खेर पूरी फिल्म में एक कुत्ते को प्रशिक्षण देते रहते हैं, पता नहीं इस भूमिका में उन्होंने क्या खूबी देखी?

कुल मिलाकर ‘दे ताली’ निराश करती है।