मुंबई शहर बड़ा अनोखा है। कई फिल्मकारों को इसने लुभाया है और ढेर सारी फिल्में इस पर बनी हैं। लेकिन अभी भी बहुत कुछ दिखाया जाना बाकी है। ‘शोर इन द सिटी’ फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि में मुंबई है और तुषार कांति रे ने क्या खूब फिल्माया है इस शहर को। इस शहर के लोगों को। मुंबई को आप इस फिल्म के जरिये महसूस कर सकते हैं।
फिल्म के प्रचार में कहा गया है कि इस शहर में अच्छे या बुरे बनने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती है, खासतौर पर बुरा बनने के लिए और इस लाइन के साथ फिल्म पूरा न्याय करती है।
एक मास अपीलिंग कहानी को क्लास अपीलिंग तरीके से पेश करने चलन इन दिनों बॉलीवुड में बढ़ता जा रहा है। कमीने, दम मारो दम के बाद शोर इन द सिटी इसका उदाहरण है। समानांतर तीन कहानियाँ चलती रहती हैं, जिसके तार कहीं ना कहीं आपस में जुड़े हुए हैं, इन्हें बेहतरीन तरीके से परदे पर पेश किया गया है।
कहानी में नई बात नहीं है, लेकिन इनका प्रस्तुतिकरण इसे देखने लायक बनाता है। अभय (सेंदिल राममूर्ति) एक एनआरआई है जो भारत आकर बिजनैस शुरू करना चाहता है, लेकिन स्थानीय गुंडे उसे परेशान करते हैं और वह मुंबई जैसे शहर में अपने आपको अकेला पाता है।
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तिलक (तुषार कपूर), रमेश (निखिल द्विवेदी) और मंडूक (पितोबाश त्रिपाठी) तीन दोस्त हैं जो पाइरेटेड किताब छापते हैं, लेकिन लालच के चलते अपराध की दुनिया में घुस जाते हैं।
सावन (संदीप किशन) एक उभरता हुआ क्रिकेटर है, लेकिन जूनियर टीम में चयन के लिए उसे चयनकर्ता को दस लाख रुपये की रिश्वत देना होगी। साथ ही उसकी गर्लफ्रेंड सेजल (गिरिजा ओक) की शादी उसके घर वाले किसी और से कर रहे हैं क्योंकि सावन कुछ कमाता नहीं है।
तीनों कहानियों में तिलक-रमेश-मंडूक वाला ट्रेक बेहद मजबूत है। इसमें थ्रिल है, मनोरंजन है और कुछ बेहतरीन दृश्य हैं। खासतौर पर वह दृश्य जब वे देखना चाहते हैं कि बम कैसे फूटता है। बैंक लूटने वाला दृश्य। हालाँकि तुषार और राधिका वाले ट्रेक में कुछ कमी-सी लगती है। क्यों तुषार अपनी बीवी के बारे में कुछ नहीं जानता, ये ठीक से स्पष्ट नहीं है।
अभय वाली कहानी ठीक-ठाक है, हालाँकि यह पूरी तरह से अँग्रेजी में है और अँग्रेजी ना जानने वाले दर्शकों को इसे समझने में कठिनाई महसूस होगी। इसमें अभय के कानून को हाथ में लेने वाली बात जँचती नहीं है। सावन वाली कहानी कमजोर है।
तारीफ करना होगी निर्देशक राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की जिन्होंने इन आम कहानियों को परदे पर दिलचस्प तरीके से उतारा है। फिल्म देखते समय रोमांच को महसूस किया जा सकता है। फिल्म पर उनकी पकड़ बेहद मजूबत है और उन्होंने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। उनकी शॉट टेकिंग जबरदस्त है। अश्मित कुंदर का संपादन भी उल्लेखनीय है और उन्होंने तीनों कहानियों को बखूबी जोड़ा है।
फिल्म के कलाकारों का चयन एकदम परफेक्ट है और सभी ने बेहतरीन अभिनय किया है। मंडूक के किरदार में पितोबाश त्रिपाठी सब पर भारी पड़े हैं। उन्होंने कई दृश्यों को मजेदार बनाया है।
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तुषार और निखिल द्विवेदी अपने किरदारों में डूबे नजर आते हैं। सेंधिल राममूर्ति, जाकिर हुसैन, अमित मिस्त्री, संदीप किशन अपना प्रभाव छोड़ते हैं। छोटे-से रोल में राधिका आप्टे, प्रीति देसाई और गिरिजा ओक उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सचिन-जिगर का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। शोर इन द सिटी उन लोगों के लिए नहीं है जो गाने, रोमांस या बेसिर-पैर वाली कॉमेडी फिल्में देखना पसंद करते हैं। ये उन लोगों के लिए है जो दिमाग लगाने के साथ-साथ बेहतरीन अभिनय और दमदार निर्देशन देखना चाहते हैं।