हॉरर-थ्रिलर सीरीज 'बेताल' का पहला सीज़न चार एपिसोड में बंटा हुआ है। लगभग तीन घंटे की इस सीरिज में एक भी ऐसा क्षण नहीं है जब आप डर के मारे पीले पड़ जाएं या रोमांच के मारे आपके रोंगटे खड़े हो जाए।
पहले सीन से ही यह आपको बांध नहीं पाती, लेकिन आप इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि रहस्य पर से परदा उठेगा तो कुछ मजा आएगा, लेकिन यह उम्मीद बहुत जल्दी धराशायी हो जाती है।
बेताल देखने के बाद केवल इस बात पर आश्चर्य ही व्यक्त किया जा सकता है कि आखिर इसे बनाया ही क्यों गया?
जिस तरह से हंसाना मुश्किल काम है वैसे ही डराना भी आसान नहीं है। जिस तरह से बुरी कॉमेडी को ट्रेजेडी में बदलते देर नहीं लगती वैसा ही हाल हॉरर का भी होता है।
बेताली की सबसे बड़ी कमी ये है कि इसकी कहानी में पकड़ ही नहीं है। सब कुछ बिखरा हुआ है। मूल कहानी के साथ-साथ उपकहानियां भी चलती हैं, लेकिन किसी में भी इतना दम नहीं है कि दर्शक बंधा रहे। किसी भी सिरे को पकड़ कर आप आगे नहीं बढ़ सकते और उलझ कर रह जाते हैं।
कहानी एक गांव की है जहां नक्सलियों का जोर है। हाईवे बनाने के लिए एक गुफा को तोड़ना है जिसका आदिवासी विरोध करते हैं। उनका कहना है कि गुफा में शैतान का वास है और गुफा को तोड़ने से वह नाराज हो सकता है। इसे अंधविश्वास माना जाता है। उनके विरोध को दबाने के लिए एक बटालियन 'बाज़ दस्ता' को बुलाया जाता है। वे गांव वालों को रास्ते से हटा कर गुफा का मुंह खोल देते हैं। इसके बाद यह बाज दस्ता मुसीबत में फंस जाता है।
गुफा के अंदर शैतान कौन है? इसका भी एक इतिहास है, लेकिन इसे बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं किया गया। उम्मीद रहती है कि यह सब दिखाया जाएगा कि ये शैतान आखिर क्यों गुफा में कैद हैं? क्या इनका इतिहास है? अतीत के झरोखे को दिखाया ही नहीं गया है। केवल संवाद और एक किताब के जरिये ही इस पर बात की गई है।
इस मुद्दे की बात को छोड़ कर लेखकों ने सारा ध्यान 'बेताल' के हीरो विक्रम सिरोही पर लगाया है। बार-बार दिखाया गया है कि वह एक बेहतरीन सिपाही है। अपने ऑफिसर्स का आदेश मानने में देर नहीं करता। उसमें नेतृत्व के गुण हैं। वह रियल लाइफ हीरो है। ये सारी बातें कहानी के साथ बहुत ज्यादा मेल नहीं खाती। दर्शक कुछ और देखना चाहते हैं और उन्हें दिखाया कुछ और जाता है, लिहाजा बात नहीं बन पाती।
हॉरर के नाम पर ऐसे दृश्य इक्का-दुक्का ही हैं जिन्हें देख डर लगे। लॉजिक की बात करना ही बेकार है। किंतु-परंतु कि लिस्ट बहुत लंबी है। क्या आप विश्वास करेंगे कि विक्रम सिरोही की बॉस त्यागी के बाल अचानक काले से सफेद हो जाते हैं। बताया जाता है कि ये शॉक की वजह से हुआ है और सभी यह बात मान लेते हैं। इस तरह की बेतुकी बात देखने के बाद आपकी 'बेताल' को आगे देखने की इच्छा ही खत्म हो जाती है।
पैट्रिक ग्राहम का निर्देशन निराशाजनक है। उन्हें समझ ही नहीं आया कि कहानी को किस तरह आगे बढ़ाया जाए। अतीत और वर्तमान के बीच बहुत ज्यादा असंतुलन है। भूतों/ जॉम्बी की आंखों में लाल बल्ब लगाने से दर्शकों बहलाया नहीं जा सकता। हल्दी-नमक से भूतों को दूर रखने के उपाय अब बहुत पुराने हो गए हैं। बहुत ज्यादा अंधेरा उन्होंने रखा है जिसका कोई मायने नहीं है।
कमजोर कहानी और निर्देशन का प्रभाव एक्टर्स के परफॉर्मेंस पर भी पड़ा है। वे ज्यादातर समय समझ ही नहीं पाए कि वे क्या और क्यों कर रहे हैं। विनीत कुमार, आहना कुमरा, सुचित्रा पिल्लई अच्छे कलाकार हैं, लेकिन यहां वे अपने अभिनय का जादू नहीं जगा पाए।
बेताल एक बेतुकी और बचकानी सीरिज है और इससे बचना चाहिए।