गेम ओवर : फिल्म समीक्षा

गेम ओवर को तमिल और तेलुगु में बनाया गया है और इसे हिंदी में डब कर रिलीज किया गया है। जिंदगी और वीडियो गेम को आपस में मिलाकर कुछ अलग करने का प्रयास निर्देशक अश्विन सरवनन ने किया है। यह सपना नामक गेमर की कहानी है जो अपने भीतर और बाहर की लड़ाई लड़ रही है। 
 
गुरुग्राम में रहने वाली सपना के साथ 31 दिसम्बर को ऐसी घटना घटी है कि वह अंधेरे में दो सेकंड भी नहीं रह सकती। एक बार फिर 31 दिसम्बर आने वाला है और इससे उसकी घबराहट बढ़ने लगती है। 
 
गुरुग्राम में जवान लड़कियों का सिर काट कर धड़ को आग लगाने वाले दरिंदों के बारे में पुलिस कुछ भी पता करने में नाकाम है और इससे दहशत का माहौल है। 
 
सपना एक गेम डिजाइनर है और गेम एडिक्ट भी है। उसकी मुश्किल एक टैटू बनवाने से बढ़ जाती है। कुछ लोग मैमोरियल टैटू बनवाते हैं जिसमें वे अपने प्रियजनों की मृत्यु के बाद उसकी राख को टैटू इंक में डाल कर टैटू बनवाते हैं। ऐसा ही एक टैटू सपना को गलती से बना दिया जाता है जिसके बाद उसके साथ अजीब हरकतें होने लगी हैं। 
 
कैसे ये तीन अलग-अलग ट्रैक्स मिल कर सपना की जिंदगी में उथल-पुथल मचाते हैं ये फिल्म में दिखाया गया है। 
 
नि:संदेह कहानी पेपर पर चौंकाती है, लेकिन स्क्रीन पर सभी ट्रैक्स असर नहीं छोड़ते। मिसाल के तौर पर मेमोरियल टैटू वाला आइडिया जोरदार है और नयापन लिए हुए है। तो दूसरी ओर लड़कियों के सिर काटने वाला ट्रेक आधा-अधूरा है। क्यों ऐसा किया जा रहा है? यह घिनौना काम करने वालों का मकसद क्या है? इनके जवाब फिल्म में नहीं मिलते। 
 
दरअसल लेखक और निर्देशक ने जानबूझ कर इन सवालों के जवाब नहीं दिए। उन्होंने यह फिल्म मुख्य किरदार सपना के नजरिये से दिखाई है जिसे भी नहीं पता रहता है यह सब क्यों हो रहा है? इसके बजाय उन्होंने सपना की आंतरिक और बाहरी लड़ाई पर ज्यादा जोर दिया है। 
जिस तरह से ज्यादातर वीडियो गेम्स में तीन लाइफ मिलती है और तीसरी लाइफ में व्यक्ति यह जान कर ‍कि उसे अब आगे मौका नहीं मिलेगा पूरा जोर लगा देता है वैसा ही सपना रियल लाइफ में करती है। 
 
मौत सामने नजर आती है तो वह वीडियो गेम वाली बात रियल लाइफ में आजमाती है और विजयी होती है। फिल्म यह संदेश देती है कि चाहे कितनी भी विकट परिस्थितियां हों हार नहीं मानना चाहिए और अंतिम दम तक लड़ना चाहिए। 
 
कुछ कमजोरियों के बावजूद गेम ओवर ज्यादातर समय बांध कर इसलिए रखती है क्योंकि इसमें अलग-अलग जॉनर का मजा है। कुछ सीन आपको डरा देते हैं। कभी यह  थ्रिलर बन जाती है तो कभी सुपरनैचुरल ज़ोन में चली जाती है। फिल्म की सफलता इस बात में है कि यह बांध कर रखती है। 
 
फिल्म कहीं-कहीं दोहराव का शिकार भी हुई है, खासतौर पर क्लाइमैक्स कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है इस कारण 102 मिनट की फिल्म भी लंबी लगती है। क्लाइमैक्स में घटना का पहले से सपना को आभास होने वाली बात हजम नहीं होती है। 
 
निर्देशक के रूप में अश्विन सरवनन अपने काम से स्क्रिप्ट की कमियों को छिपाने में सफल रहे हैं। लाइट, शेड, रंग, कैमरा एंगल्स, सेट और बैकग्राउंड म्युजिक के जरिये उन्होंने फिल्म को मजबूत किया है। कमरों में लगी पेंटिंग्स और पोस्टर्स से भी कुछ बातें निर्देशक ने कही है।  
 
तापसी पन्नू ने फिर एक बार दर्शाया है कि वर्तमान एक्ट्रेसेस में उनका ऊंचा स्थान क्यों है। खौफ और अपने डर से जूझती लड़की के रूप में उनके एक्सप्रेशन देखने लायक हैं। पूरे समय कैमरा उन पर टिका रहता है और पूरी फिल्म का भार उन्होंने उठाया है। केयर टेकर के रूप में विनोदिनी वैद्यनाथन ने उनका साथ अच्छे से निभाया है। 
 
गेम ओवर की अच्छी बात यह है कि भले ही आप स्क्रीन पर दिखाए जा रहे कुछ घटनाक्रमों से सहमत नहीं हो, लेकिन फिल्म में रूचि पूरे समय बनी रहती है।
 
बैनर : रिलायंस एंटरटेनमेंट, वॉय नॉट स्टूडियोज़, अनुराग कश्यप
निर्माता : एस. शशिकांत
निर्देशक : अश्विन सरवनन
संगीत : रॉन ईथन योहान
कलाकार : तापसी पन्नू, विनोदिनी वैद्यनाथन
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 42 मिनट 37 सेकंड 
रेटिंग : 3/5 

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