सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते। इस लाइन को अंडरलाइन करते हुए कई फिल्में बनी हैं। अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' भी इस बात को जोर-शोर से उठाती है, लेकिन साथ ही यह कई बातें और भी करती हैं। फिल्म को देखते हुए कई तरह के सवाल उठते हैं और इनमें से ज्यादातर के जवाब 'मुल्क' देती है। यही इस फिल्म की कामयाबी मानी जानी चाहिए।
कहानी है मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) की जो अपनी पत्नी तबस्सुम (नीना गुप्ता), छोटे भाई बिलाल (मनोज पाहवा) और उसके परिवार के साथ रहता है। 65वें जन्मदिन पर वह अपने पड़ोसियों के साथ एक पार्टी रखता है जिसमें शामिल होने के लिए विदेश से उसकी हिंदू बहू आरती (तापसी पन्नू) भी आती है। पार्टी के ठीक बाद बिलाल का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) का नाम इलाहबाद में हुए विस्फोट में सामने आता है। उस बम विस्फोट में 16 लोग मारे जाते हैं।
शाहिद की पुलिस के साथ मुठभेड़ में मौत हो जाती है। शाहिद की मां और मुराद उसका शव लेने से इनकार कर देता है क्योंकि वह आतंकवादी था। इसके बाद परिवार मुश्किल में घिर जाता है क्योंकि पुलिस बिलाल और मुराद को भी आतंकवादी घोषित करने में लग जाती है। वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) के सामने अदालत में मुराद की बहू आरती वकील के रूप में खड़ी होती है।
अनुभव सिन्हा की यह कहानी सामान्य है। अगर इसमें यह बात छिपा ली जाए कि किरदारों के धर्म क्या है तो इस तरह की कहानी कई बार परदे पर आ चुकी है, लेकिन किरदारों के धर्म जाहिर कर देने से बात में वजन आ गया। साथ ही कहानी में उन्होंने अन्य बातों को भी जोड़ ड्रामे को आगे बढ़ाया है इसलिए कहानी और विशेष बन जाती है। फिल्म में कई प्रश्न उठाए गए हैं और उनके जवाब भी दिए हैं।
मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) के घर के बाहर जब लोग लिख देते हैं- 'पाकिस्तान जाओ' तो मुस्लिम भड़क जाते हैं। इस पर वह कहता है कि यदि कुछ मुस्लिम पाकिस्तान के मैच जीतने पर पटाखे फोड़ेंगे तो लोग ऐसा ही बोलेंगे।
मुस्लिमों पर देशभक्ति साबित करने का दबाव भी रहता है। एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इंस्पेक्टर दानिश जावेद अपनी देशभक्ति को साबित करने के लिए शाहिद को मार देता है जबकि वह उसे जिंदा भी पकड़ सकता था। मुराद को समझ नहीं आता कि वे देशप्रेम कैसे साबित करे जबकि 1947 के बंटवारे में उसने धर्म के बजाय देश को चुना था।
अदालत का जज इस बात को मानते हुए कि ज्यादातर आतंकवादी मुस्लिम निकलते हैं, मुस्लिमों को सलाह देता है कि वे अपने युवा बच्चों पर नजर रखें कि वे गलत सोहबत में तो नहीं पड़ गए हैं।
जज साहब गैर मुस्लिमों को भी सलाह देते हैं कि वे आम मुस्लिम की दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में फर्क करना समझे। इन सारी बातों के जरिये लेखक और निर्देशक अनुभव सिन्हा ने संतुलन को बनाए रखा और दोनों धर्मों के एक-दूसरे को देखने के चश्मे को साफ कर देखने की सलाह दी है।
फिल्म का पहला हाफ बेहद उम्दा है। दूसरे हाफ में फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में तब्दील हो जाती है और यहां पर कई बार फिल्म पर से पकड़ छूटती हुई भी दिखाई देती है। पुलिस क्यों बिलाल और मुराद को आतंकवादी बताने पर तुली रहती है इसकी ठोस वजह सामने नहीं आती। साथ ही कोर्ट रूम ड्रामा थोड़ा सिंपल हो गया है। पहले संतोष अपना नजरिया व्यक्त करता है और फिर आरती।
कुछ बात कहने के लिए कहानी में जगह नहीं मिली तो उन्हें कहीं भी चिपका दिया गया। जैसे सड़क पर उर्स लगने से ट्रैफिक जाम होने वाला सीन जो कि कहानी में फिट ही नहीं था। आरती और उसके पति में होने वाले बच्चे के धर्म को लेकर भी मतभेद होते हैं और इसका क्या हल निकलता है यह नहीं बताया गया है।
कमियों के बावजूद फिल्म बांध कर रखती है क्योंकि फिल्म देखते समय कई तरह की बातें दिमाग में उठती हैं और कुछ दृश्य आपको परेशान करते हैं। तीखे बाणों की तरह चुभते हैं। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं।
निर्देशक के रूप में अनुभव सिन्हा का काम तारीफ के काबिल है। उन्होंने किसी का पक्ष न लेते हुए दोनों धर्मों की एक-दूसरे के प्रति सोच को सीधे-सीधे और स्पष्ट तरीके से सामने रखा है। उन्होंने फिल्म को बनावटी और उपदेशात्मक होने से बचाया। उनके किरदार स्टीरियो टाइप नहीं लगते।
मुल्क का एक्टिंग डिपार्टमेंट बहुत मजबूत है। अपनी दूसरी पारी में ऋषि कपूर लगातार कमाल कर रहे हैं। मुराद अली की हताशा को उन्होंने अच्छे से दर्शाया है। तापसी पन्नू को पहले हाफ में ज्यादा मौका नहीं मिला, लेकिन दूसरे हाफ में उनकी एक्टिंग बेहतरीन है। क्लाइमैक्स में वे दिखा देती हैं कि एक एक्ट्रेस के रूप में उनकी रेंज क्या है।
जज के रूप में कुमुद मिश्रा का अभिनय जबरदस्त है। फैसला सुनाते समय उनका अभिनय देखने लायक है। आशुतोष राणा ने अपना रोल इस तरह अदा किया है कि लोग उनके किरदार से नफरत करे। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का काम भी अच्छा है। इन सबमें बाजी मार ले जाते हैं मनोज पाहवा। पुलिस कस्टडी में वे अपने अभिनय से हिला देते हैं।
मुल्क की खासियत यह है कि यह बेहतर हिंदू या बेहतर मुसलमान बनने की बजाय बेहतर इंसान बनने की बात करती है।