निल बटे सन्नाटा : फिल्म समीक्षा

निल बटे सन्नाटा के निर्माता-निर्देशक ने ये साहस का काम किया है कि एक बाई के किरदार को लीड में लेकर फिल्म बनाई है। ये फिल्म उस वर्ग का प्रतिनिधित्व रखती है जिसे समाज में खास महत्व नहीं दिया जाता है। भारत के श्रेष्ठि वर्ग में 'बाई' के बिना कोई काम नहीं होता। ये महिलाएं अपने घर का काम करने के बाद अन्य घरों का काम भी करती हैं और सपने देखने का हक इन्हें भी है। 
 
फिल्म की नायिका चंदा सहाय चाहती है कि उसकी किशोर बेटी अपेक्षा पढ़ लिख कर कुछ बन जाए, लेकिन अपेक्षा का मन पढ़ाई में नहीं लगता। चंदा उसे डांटती है तो वह कहती है कि जब डॉक्टर की संतान डॉक्टर बनती है तो बाई की बेटी भी बाई बनेगी। यह सुन चंदा के पैरों के नीचे की जमीन खिसक जाती है, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती। 
अपेक्षा को गणित से डर लगता है। यह जान कर चंदा भी उसकी कक्षा में दाखिला ले लेती है। अपेक्षा को छोड़ कोई भी नहीं जानता कि चंदा ही अपेक्षा की मां है। चंदा गणित सीखती है ताकि वह अपेक्षा को सीखा सके, लेकिन चंदा के इस कदम से अपेक्षा बेहद नाराज हो जाती है। आखिर में उसे अपनी गलती का अहसास होता है और वह पढ़ाई में मन लगाती है। 
 
नितेश तिवारी ने उम्दा कहानी लिखी है। कहानी उपदेशात्मक या नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली है, लेकिन स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि लगातार दर्शकों का मनोरंजन होता रहता है। मनोरंजन के आड़ में कई बातें दर्शकों के अवचेतन में उतारी गई है। जैसे- सपने देखने पर हर किसी का हक है, गणित को लेकर विद्यार्थी बेवजह का हौव्वा बना लेते हैं, बेटी पढ़ाओ, सपने को पूरा करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। 
 
फिल्म में मां-बेटी के रिश्ते को भी बहुत ही उम्दा तरीके से दिखाया गया है। आमतौर पर किशोर उम्र के बच्चे मां-बाप के खिलाफ विद्रोही तेवर अपना लेते हैं। अपेक्षा को भी शिकायत रहती है कि उसकी मां बाई है और उसे ज्यादा पढ़ा नहीं सकती है, लेकिन चंदा इसे गलत साबित करती है। 
 
निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने फिल्म को सरल तरीके से पेश किया है। सरकारी स्कूल का माहौल और समाज के कमजोर तबके का फिल्मांकन प्रशंसा के योग्य है। फिल्म के लगभग सारे किरदार बहुत ही भले हैं, चाहे वो स्कूल प्रिंसिपल (पंकज त्रिपाठी) हो, कलेक्टर (संजय सूरी) हो या लेडी डॉक्टर (रत्ना पाठक शाह) हो। हमेशा मदद के लिए तत्पर ये दिखाई देते हैं। फिल्मों के साथ-साथ असल जिंदगी में से भी ऐसे लोग गायब हो गए हैं।  
 
फिल्म में बहुत सारा घटनाक्रम नहीं है, इसलिए निर्देशक की जवाबदारी बढ़ जाती है। कई छोटे-छोटे दृश्य गढ़ कर कहानी को आगे बढ़ाना पड़ता है और इसमें निर्देशक सफल रहे हैं। स्कूल के कई दृश्य बहुत अच्छे हैं और मनोरंजन करते हैं। इन्हें देख वयस्कों को अपने स्कूली दिनों की याद आ जाएगी। 
 
स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां रह गई है, जैसे चंदा इसलिए स्कूल में दाखिला लेती है ताकि वह अपनी बेटी की गणित संबंधी समस्या को दूर कर सके, लेकिन ‍उसे ऐसा करते दिखाया नहीं गया। कुछ इस तरह के दृश्य फिल्म में होने थे। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। 
 
इसमें कोई शक नहीं है कि स्वरा भास्कर कितनी उम्दा एक्ट्रेस हैं। 'निल बटे सन्नाटा' में एक बार फिर वे ये बात साबित करती हैं। चंदा के रोल को उन्होंने जिया है। अपेक्षा के रोल में रिया शुक्ला एकदम फिट नजर आती हैं। कभी भी लगता नहीं कि वह अभिनय कर रही है। स्कूल प्रिंसीपल के रूप में पंकज त्रिपाठी ने खूब हंसाया है। उन्होंने एक खास तरह की बॉडी लैंग्वेज अपनाई और ओवर एक्टिंग भी की, लेकिन किरदार को एक अलग ही लुक दिया। रत्ना पाठक शाह का ज्यादा उपयोग नहीं हो पाया। छोटे से रोल में संजय सूरी प्रभावित करते हैं। 
 
'निल बटे सन्नाटा' एक फील गुड सिनेमा है जिसे देखने के बाद आप थोड़ी खुशी महसूस करते हैं। 
 
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, कलर येलो प्रोडक्शन्स, जर पिक्चर्स
निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, आनंद एल. राय, अजय जी. राय, संजय शेट्टी, नितेश तिवारी, एलन मैक्लेक्स 
निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी
कलाकार : स्वरा भास्कर, रिया शुक्ला, रत्ना पाठक शाह, पंकज त्रिपाठी, संजय सूरी  
रेटिंग : 3/5

वेबदुनिया पर पढ़ें