पीके : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014 (15:13 IST)
पीके फिल्म का नाम इसलिए है क्योंकि मुख्य किरदार (आमिर खान) को लोग पीके कहते हैं। वह प्रश्न ही ऐसे पूछता है कि लोगों को लगता है कि होश में कोई ऐसी बातें कर ही नहीं सकता। 'पीके हो क्या?' जैसा जवाब ज्यादातर उसको सुनने को मिलता है और वह मान लेता है कि वह पीके है। 
 
भगवान की मूर्ति बेचने वाले से वह पूछता है कि क्या मूर्ति में ट्रांसमीटर लगा है जो उसकी बात भगवान तक पहुंचेगी। दुकानदार नहीं बोलता है तो पीके कहता है कि जब भगवान तक डायरेक्ट बात पहुंचती हो तो फिर मूर्ति की क्या जरूरत है? ऐसे ढेर सारे सवाल पूरी फिल्म में पीके पूछता रहता है और धर्म के ठेकेदार बगलें झाकते रहते हैं। 
 
आखिर ये सवाल पीके पूछता क्यों है? पीके पृथ्वी पर रहने वाला नहीं है। वह एलियन है। चार सौ करोड़ किलोमीटर दूर से पृथ्वी पर आया है। अपने ग्रह पर वापस जाने वाला रिमोट कोई उससे छीन ले गया है। जब रिमोट के बारे में वह लोगों से अजीब से सवाल पूछता है तो जवाब मिलता है कि भगवान ही जाने। वह भगवान को ढूंढने निकलता है तो कन्फ्यूज हो जाता है। 
 
मंदिर जाता है तो कहा जाता है कि जूते बाहर उतारो, लेकिन चर्च में वह बूट पहन कर अंदर जाता है। कही भगवान को नारियल चढ़ाया जाता है तो कही पर वाइन। एक धर्म कहता है कि सूर्यास्त के पहले भोजन कर लो तो दूसरा धर्म कहता है कि सूर्यास्त होने के बाद रोजा तोड़ो। भगवान से मिलने के लिए वह दान पेटी में फीस भी चढ़ाता है, लेकिन जब भगवान नहीं मिलते तो वह दान पेटी से रुपये निकाल लेता है। 
 
पीके को राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने मिलकर लिखा है। धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है। पीके को एलियन के रूप में दिखाना उनका मास्टरस्ट्रोक है। एक ऐसे आदमी के नजरिये से दुनिया को देखना जो दूसरे ग्रह से आया है एक बेहतरीन कांसेप्ट है। इसके बहाने दुनिया में चल रही बुराइयों तथा अंधविश्वासों को निष्पक्ष तरीके से देखा जा सकता है। 


 
इंटरवल से पूर्व फिल्म में कई लाजवाब दृश्य देखने को मिलते हैं। जो हंसाने के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करते हैं। एक साथ मन में दो-तीन भावों को उत्पन्न करने में लेखक और निर्देशक ने सफलता हासिल की है। भगवान के लापता होने का पेम्पलेट पीके बांटता है। वह मंदिर में अपने चप्पलों को लॉक करता है। उसे समझ में नहीं आता है कि वह कौन सा धर्म अपनाए कि उसे भगवान मिले। यह बात भी उसके पल्ले नहीं पड़ती कि आखिर इंसान कौन से धर्म का है, इसकी पहचान कैसे होती है क्योंकि इंसान पर कोई ठप्पा तो लगा नहीं होता। इन बातों को लेकर कई बेहतरीन सीन गढ़े गए हैं जो आपकी सोच को प्रभावित करते हैं। 
 
भगवान के नाम पर कुछ लोग ठेकेदार बन गए हैं और उन्होंने इसे बिजनेस बना लिया है। फिल्म में एक सीन है जिसमें एक गणित महाविद्यालय के बाहर पीके एक पत्थर को लाल रंग पोत देता है। कुछ पैसे चढ़ा देता है और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थी उस पत्थर के आगे पैसे चढ़ाने लगते हैं। इस सीन से दो बातों को प्रमुखता से पेश किया गया है। एक तो यह कि धर्म से बेहतर कोई धंधा नहीं है। लोग खुद आते हैं, शीश नवाते हैं और खुशी-खुशी पैसा चढ़ाते हैं। दूसरा ये कि विज्ञान पढ़ने वाले भी अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं। बचपन से ही संस्कार के नाम पर उनमें कुछ अंधविश्वास डाल दिए जाते हैं जिनसे वे ताउम्र मुक्त नहीं हो पाते। 
 
फिल्म उन संतों को भी कटघरे में खड़ा करती है जो चमत्कार दिखाते हैं। हवा से सोना पैदा करने वाले बाबा चंदा क्यों लेते हैं या देश की गरीबी क्यों नहीं दूर करते? धर्म के नाम पर लोगों में भय पैदा करने वालों पर भी नकेल कसी गई है। जब ऊपर वाले ने तर्क-वितर्क की शक्ति दी है तो क्यों भला हम अतार्किक बातों पर आंखें मूंद कर विश्वास करें? 

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बातें बड़ी-बड़ी हैं, लेकिन उपदेशात्मक तरीके से इन्हें दर्शकों पर लादा नहीं गया है। हल्के-फुल्के प्रसंगों के जरिये इन्हें दिखाया गया है जिन्हें आप ठहाके लगाते और तालियां बजाते देखते हैं। इंटरवल के बाद जरूर फिल्म दोहराव का शिकार लगती है। गाने लंबाई बढ़ाते हैं, लेकिन फिल्म से आपका ध्यान नहीं भटकता। पीके देखते समय 'ओह माय गॉड' की याद आना स्वाभाविक है, लेकिन पीके अपनी पहचान अलग से बनाती है। 
 
ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और बासु चटर्जी की तरह निर्देशक राजकुमार हिरानी मिडिल पाथ पर चलने वाले फिल्मकार हैं। वे दर्शकों के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखते हैं साथ ही ऐसी कहानी पेश करते हैं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करे। 'पीके' में वे एक बार फिर उम्मीदों पर खरे उतरते हैं। सिनेमा के नाम पर उन्होंने कुछ छूट ली है, खासतौर पर जगतजननी (अनुष्का शर्मा) और सरफराज (सुशांतसिंह राजपूत) की प्रेम कहानी में, लेकिन ये बातें फिल्म के संदेश के आगे नजरअंदाज की जा सकती है। अपनी बात कहने में अक्सर वे वक्त लेते हैं और यही वजह है कि उनकी फिल्में लंबी होती हैं। संपादक के रूप में वे कुछ सीन और गानों को हटाने का साहस नहीं दिखा पाए।  कुछ प्रसंग धार्मिक लोगों को चुभ सकते हैं जिनसे बचा भी जा सकता था।  
 
आमिर खान पीके की जान हैं। उनके बाहर निकले कान और बड़ी आंखों ने किरदार को विश्वसनीय बनाया है। उनके चेहरे के भाव लगातार गुदगुदाते रहते हैं। वे अपने किरदार में इस तरह घुसे कि आप आमिर खान को भूल जाते हैं। परदे पर जब वे नजर नहीं आते तो खालीपन महसूस होता है। ऐसा लगता है कि सारा समय वे आंखों के सामने होना चाहिए। यह उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। 
 
हिरानी की फिल्मों में आमतौर पर महिला किरदार प्रभावी नहीं होते, लेकिन 'पीके' में यह शिकायत दूर होती है। अनुष्का शर्मा को दमदार रोल मिला है। वे बेहद खूबसूरत नजर आईं और आमिर खान जैसे अभिनेता का सामना उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने किया है। सुशांत सिंह राजपूत, संजय दत्त, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी और परीक्षित साहनी का अभिनय स्वाभाविक रहा है। 
 
फिल्म के गाने भले ही हिट नहीं हो, लेकिन फिल्म देखते समय ये गाने प्रभावित करते हैं। 
 
2014 के बिदाई की बेला में एक बेहतरीन तोहफा 'पीके' के रूप में राजकुमार हिरानी ने सिने प्रेमियों को दिया है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए। 
 
बैनर : विनोद चोपड़ा फिल्म्स, राजकुमार हिरानी फिल्म्स
निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी
निर्देशक : राजकुमार हिरानी
संगीत : शांतनु मोइत्रा, अजय-अतुल
कलाकार : आमिर खान, अनुष्का शर्मा, संजय दत्त, सुशांत सिंह राजपूत, बोमन ईरानी, सौरभ शुक्ला, परीक्षित साहनी, रणबीर कपूर (मेहमान कलाकार) 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 33 मिनट
रेटिंग : 4/5

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