निर्माता इंद्र कुमार और अशोक ठाकरिया ने लगभग सवा करोड़ रुपए खर्च कर हॉलीवुड फिल्म ‘डेथ एट ए फ्यूनरल’ के हिंदी में रीमेक बनाने के अधिकार खरीदे, लेकिन नकल करने में भी अक्ल की जरूरत होती है वरना ’दिल्ली में कुतुबमीनार है’ की जगह नकलची विद्यार्थी ‘दिल्ली में कुतिया बीमार है’ लिख देता है।
कुछ ऐसा ही हाल इस फिल्म का भी है। नकल भी ठीक से नहीं की गई है। एक अच्छी कहानी (जिसमें हास्य की बहुत गुंजाइश थी) को बेहूदा स्क्रीनप्ले, ओवर एक्टिंग और खराब निर्देशन ने जाया कर दिया। कहानी तो विदेशी उठा ली, लेकिन उसका भारतीयकरण करने में घिसे-पिटे चुटकुले, फूहड़ संवाद और दृश्य डाल दिए गए और हँसाने की नाकाम कोशिश गई है।
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स्टीवन लैजारस (सुनील शेट्टी) के पिता का अंतिम संस्कार होने वाला है। रिश्तेदार और दोस्तों का जमावड़ा लगा हुआ है। हर किरदार की अपनी कहानी है। कोई बदला लेना चाहता है तो कोई इस मौके पर रोमांस में लगा हुआ है। सास-बहू और भाई-भाई की अनबन है। शक करने वाली पत्नी है। हॉट मॉडल भी है जो हर किसी के साथ सोने के लिए तैयार है। ड्रग्स और ब्लैकमेलिंग भी है। कहानी में हास्य पैदा करने का सारा सामान जमा है, लेकिन स्क्रिप्ट ने सारा मामला बिगाड़ दिया है।
फिल्म में हर किरदार की कहानी है, लेकिन ज्यादातर कमजोर है। खासतौर पर आफताब शिवदासानी वाली, जिसमें वे ड्रग के नशे में बेहूदा हरकत करते रहते हैं। इसी तरह प्रेम चोपड़ा और जावेद जाफरी के टॉयलेट वाला सीन घृणा पैदा करता है। ट्यूलिप जोशी और वृजेश हीरजी के दृश्य भी दोहराव की वजह से बोर करते हैं।
रही-सही कसर के. मुरली मोहनराव के कमजोर निर्देशन ने पूरी कर दी है। यह ड्रामा चंद घंटों का और सिर्फ एक सेट पर है इसलिए निर्देशक की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह फिल्म को एकरसता से बचाए, लेकिन मुरली इसमें असफल रहे हैं।
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बी-ग्रेड कलाकारों का फिल्म में जमावड़ा है। सुनील शेट्टी निराश करते हैं। आफताब ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। जावेद जाफरी और चंकी पांडे ने हँसाने के लिए तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। आशीष चौधरी ठीक रहे हैं। राजपाल यादव और वृजेश हीरजी को ज्यादा अवसर नहीं मिले। नायिकाओं में सोफी चौधरी, किम शर्मा, ट्यूलिप जोशी और आरती छाबडि़या औसत रहीं।