भगवद् वाणी के समस्त नभोमंडल पर भगवान गौतम बुद्ध के महान व्यक्तित्व की सुधावर्षिणी घनी बदलियाँ छाई हुई हैं, जो शीतलता, शांति, स्वस्ति और मुक्ति प्रदायिनी है। इस वाङ्मय में हम भगवान बुद्ध की उस विशिष्ट सुषमामयी भौतिक रूपकाया का मनोहारी दर्शन करते हैं, जो इतनी आकर्षक थी कि हर किसी को चुंबक की तरह सहज ही अपनी ओर खींच लेती थी, परंतु उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनकी असीम अद्भुत, आश्चर्यजनक और कल्याणकारिणी धर्मकाया, ब्रह्मकाया, बोधिकाया का दर्शन करते हैं, जो तिपिटक में अमूर्त रूप से सर्वत्र छाई हुई है।
भगवान के जीवनकाल में समग्र बुद्धवाणी इन नौ भागों में विभाजित की गई थी- सुत्तं, गेय्यं, वैय्याकरणं, गाथा, उदानं, इतिवुत्तकं, जातकं, अब्भुतधम्मं, वेदल्लं। संभवतः इन्हीं को भगवान ने धम्म, विनय और मातिका कहा और आगे चलकर संभवतः ये ही सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक के नाम से संपादित एवं संग्रहीत हुए।
'ये तीनों संग्रह तीन पेटियों या टोकरियों में अलग-अलग रखे जाते थे, इसलिए तिपिटक कहलाए- 'यह कथन युक्तियुक्त नहीं लगता। एक तो उन दिनों लेखन-कला का आविष्कार हो जाने पर भी वह बहुत श्रमसाध्य थी, दूसरे एक-एक विभाग का साहित्य इतना विशद था कि उसे पूर्णतया ताड़पत्रों या भोजपत्रों पर लिखकर एक-एक टोकरी में रखा जाना अव्यावहारिक लगता है। उन दिनों सभी परंपराओं के धार्मिक वाङ्मय श्रुति और स्मृति के आधार पर ही अक्षुण्ण रखे जाते थे। तब यही प्रथा थी। इसलिए लिखित धर्मवाणी के तीन विभागों को सुरक्षित रखने वाली तीन पेटियों या पिटकों को तिपिटक कहना समीचीन नहीं लगता।'
वस्तुतः धर्मवाणी को इन तीन विभागों में पालकर, संभालकर रखने वाला संपूर्ण साहित्य ही तिपिटक कहलाया। यह साहित्य तत्कालीन उत्तर भारत की प्राकृतिक जनभाषा में है। इस भाषा ने इसे पालकर, संभालकर रखा, अतः वह पालि कहलाई। ये दोनों मिलकर तिपिटक-पालि कहलाए।
यद्यपि किसी भी परंपरा के धार्मिक वाङ्मय को पिटक कहा जाता था, परंतु कालांतर में पिटक या तिपिटक बुद्ध वचनों के अर्थ में ही रूढ़ हो गया। भिक्षु महेंद्र जब अपने साथियों सहित श्रीलंका गए तो उसका वर्णन करते हुए कहा गया- ताम्रपर्णी में उन्होंने विनयपिटक का वाचन किया।