क्‍या शि‍क्षा अमीरों की जागीर है?

सुरेंद्र मोहन

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मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने छः वर्ष से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा देने का विधेयक राज्यसभा में पेश किया था, जिसने उसे स्वीकृत कर लिया। अब वह लोकसभा में पेश किया जा रहा है। इस विधेयक को पिछली संसद में राज्यसभा ने प्रवर समिति के विचारार्थ दिया था। उसके अध्यक्ष जनार्दन द्विवेदी थे।

समिति ने गत वर्ष 18 फरवरी को अपनी रिपोर्ट दे दी थी और तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार विधेयक को तुरंत पास कराना चाहती थी। कोई बात नहीं अब पास हो जाएगा। असल सवाल दूसरा है। जिन लोगों ने सरकार के वार्षिक बजट के मानव संसाधन विकास संबंधी अनुदान को देखा है, उन्हें आश्चर्य होगा कि उसमें प्राथमिक शिक्षा का कोई उल्लेख नहीं है। बहरहाल, उच्च शिक्षा के लिए बजट में 200 करोड़ रुपए का आवंटन जरूर है।

वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट में 11.6 प्रतिशत घाटा रखा है जो बहुत अधिक है। इस पर सभी बच्चों की अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा के लिए जो व्यय होगा, इससे अलग है। यदि सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर बजट में उल्लेखित इस वादे को पूरा किया कि देश के सभी बच्चों को समन्वित बाल विकास परियोजना के अंतर्गत लाया जाए तो बजट में उसका भी अतिरिक्त प्रावधान करना पड़ेगा क्योंकि उस परियोजना में जो धन दिया गया है वह गत वर्ष की तुलना में 1.17 प्रतिशत ही अधिक है जो नहीं के बराबर है।

विधेयक में समान गुणात्मक शिक्षा की जरूरत को पब्लिक स्कूलों को बनाए रखने के प्रावधान से मूलतः नष्ट कर दिया गया है। ये पब्लिक स्कूल धनी व प्रतिष्ठित परिवारों, राजनेताओं और अफसरों की संतानों के लिए हैं।
इससे बजट की कुछ अवास्तविकता पर भी प्रकाश पड़ता है। उनमें एक तो ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) के संबंध में भी है। अभी तक कुल परिवारों के एक-एक व्यक्ति को एक सौ दिन का रोजगार देने की बजाय 45 से 51 दिन का रोजगार ही उपलब्ध कराया गया है। उसे 100 दिन तक बढ़ाने में इस योजना को दोगुना धन देना था लेकिन गत वर्ष व्यवस्था में खर्च हुआ 36750 हजार करोड़ और इस वर्ष के लिए दिया जा रहा है 39100 हजार करोड़।

खाद्य सुरक्षा पर सरकार की कड़ी निगाहें हैं, किंतु अफसोस कि पिछले साल जिन लोगों को सस्ते दाम पर 35 किलो अनाज दिया गया, बजट के अनुसार उनको 25 किलो दिया जाएगा। जहाँ तक मानव संसाधन संबंधी वर्तमान विधेयक की बात है, उसमें कुछ मुद्दों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। संविधान में चौदह वर्ष की अवस्था से कम अवस्था के बच्चों को जोखिम वाले काम में लगाने की मनाही है। वैसे सब जानते हैं कि देश में 35 लाख बच्चे बंधुआ बाल मजदूर हैं।

जो बच्चे परिवार के लिए कुछ कमाने में लगे हुए हैं, वे सामान्यतः ऐसे परिवारों से हैं जो गरीबी के कारण उनसे मजदूरी करवा रहे हैं। ऐसे बच्चे स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करें और उनका बचपन मजदूरी या मजबूरी में नष्ट न हो, यह गौरव की बात है। लेकिन इससे उनके परिवारों को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई का कोई इंतजाम नहीं है।

विधेयक में समान गुणात्मक शिक्षा की जरूरत को पब्लिक स्कूलों को बनाए रखने के प्रावधान से मूलतः नष्ट कर दिया गया है। ये पब्लिक स्कूल धनी व प्रतिष्ठित परिवारों, राजनेताओं और अफसरों की संतानों के लिए हैं। बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और वरिष्ठ पत्रकार भी आसानी से उन स्कूलों में अपने बेटों-बेटियों को भर्ती कराते हैं, किंतु कोई गरीब तो क्या मध्यवर्ग का कोई व्यक्ति भी अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाने का सपना नहीं देख सकता।

इन स्कूलों की वार्षिक फीस लाखों रुपए होती है। अध्यापकों के वेतन और योग्यता का मुकाबला सामान्य सरकारी या सरकारी अनुदान पर चलने वाले निजी स्कूल नहीं कर सकते। अतः ये पब्लिक स्कूल गुणवत्ता वाली शिक्षा देते हैं जो सामान्य स्कूलों में उपलब्ध नहीं होती।

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