जब कभी भारतीय मूल के वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, शिक्षाविद् या अन्य क्षेत्रों के अधिकारी विशेषज्ञों, विद्वानों को अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त होता है तो दो भिन्न तरह की प्रतिक्रियाएँ होती हैं। एक प्रतिक्रिया जिसमें प्रत्येक भारतीय, शिक्षा संस्थान और सरकार का सिर गर्व से उठ जाता है और दूसरी, जब यह प्रश्न उठता है कि ऐसा हमारी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और विश्वविद्यालयों में कार्यरत मनीषी क्यों नहीं कर पाते? दूसरी स्थिति में वह सब जिनका सिर गर्व से उठा था, बगलें झाँकने लगते हैं क्योंकि निष्क्रियता साकार झलकती है।
ज्यादातर लोग इस यथार्थ को नहीं नकार पाते कि हम इन लोगों की प्रतिभा को पहचान नहीं पाए, इन्हें उचित संबल, सुविधा और वातावरण नहीं दे पाए जिसमें इन लोगों के सर्जनात्मक गुण निखर पाते। ऐसे समय सरकार और अधिकारीगण एक बार फिर शिक्षा की बात करते हैं, परंतु असल में यह बात और चिंता केवल समाचार-पत्रों और सूचना माध्यमों तक ही सीमित रह जाती है। संकीर्णता से भरपूर सरकारी संस्थाएँ और उनके अधिकारियों का चिंतन अपनी जगह अडिग रहता है।
उन प्रतिक्रियाओं और संकीर्णताओं के बावजूद यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग है कि प्रतिभा व गुणों को आयु और समयसीमा में नहीं बाँधा जा सकता और न ही सृष्टिकर्ता के सृजन व आविष्कार को। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब एक सामान्य विद्यार्थी ने अपने विद्यार्थी जीवन में हर परीक्षा में सामान्य प्रतिभा का परिचय दिया, लेकिन किसी खास वर्ष में ऐसा अद्भुत प्रदर्शन कर दिखाया जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी।
इसके विपरीत यह भी देखा गया है कि सभी कक्षाओं में प्रथम आने वाला छात्र किन्हीं कारणों से बोर्ड की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाया, वह पिछड़ गया। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इन दोनों स्थितियों का विश्लेषण कोई साधारण कार्य नहीं है। पर यदि इस छात्र को आईआईटी व इसी प्रकार की किसी प्रवेश प्ररीक्षा में मात्र एक बार कम अच्छे प्रदर्शन के कारण परीक्षा देने से रोक दिया जाए तो सचमुच उसके साथ अन्याय होगा। और रुकने की खास वजह यह हो कि अमुक मंत्री या उसके द्वारा गठित कमेटी ने एक न्यूनतम अंक सीमा निर्धारित कर शिक्षा में सुधार व उदारीकरण की वाह-वाह लूटी थी तो इसे व्यक्ति विशेष के मूल अधिकारों के साथ मानवीय व न्यायिक मूल्यों का हनन ही माना जाएगा, क्योंकि इस तरह किसी प्रतिभाशाली छात्र को कमजोर प्रदर्शन के कारण रोक देना उसके पूरे भविष्य पर ही आघात है उस कमजोर प्रदर्शन के लिए जबकि कोई तात्कालिक कारण ही जिम्मेदार रहे हों। प्रश्न उठता है कि क्या इसी प्रकार प्रशासनिक सेवा और अन्य सेवाओं की परीक्षा के लिए भी एक विशेष स्तर पर प्राप्तांकों को मान्यता दी जाएगी?
भारत में अँगरेजी शासनकाल के नियमों में उदारीकरण के स्थान पर केंद्रीकरण अधिक हुआ है। केंद्रीकरण अर्थात संभावनाओं के एक खास दायरे में ही सिमट जाने की स्थिति। उस दौरान शिक्षा के क्षेत्र में प्रारंभ से लेकर उच्च स्तर तक छात्रों के लिए ऐसी कसौटियाँ निर्धारित की गईं जिनका उसकी प्रतिभा के विकास से ज्यादा ताल्लुक नहीं था, जैसे स्कूल में प्रवेश की आयु, बोर्ड परीक्षा के लिए आयु सीमा, विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आयु सीमा, जाति, आर्थिक स्थिति, विषयों के चुनाव पर प्राप्तांकों की सीमा और विषयों के चुनाव पर प्रतिबंधन आदि।
न्यूनतम अंक सीमा कहाँ-कहाँ लागू की जाएगी? और क्या विभिन्न श्रेणियों के लिए हर साल वह सीमा अलग-अलग होगी जैसा कि इन दिनों सीमित सीटों वाले कॉलेजों में छात्रों की संख्या नियंत्रित रखने के लिए न्यूनतम अंकों की सीमा बदलती रहती है।
हर बार यह विचार किया जाता है कि शिक्षा में सुधार व उदारीकरण कर इसे बंधन मुक्त किया जाएगा ताकि सभी देशवासी शिक्षित होने का अवसर प्राप्त कर सकें। शिक्षा सुविधाएँ आम व्यक्ति के लिए समान रूप से उपलब्ध हों। सभी स्कूलों के वातावरण व शिक्षा स्तर को सुधारा जाए। पर वास्तविकता यह है कि देश के अच्छे-से अच्छे स्कूल में पढ़ रहे छात्र को भी घर पर निजी शिक्षा की सहायता प्राप्त करना आवश्यक हो गया है, जो बहुत महँगा है।
कहीं ज्यादा अच्छा होता यदि मानव संसाधन मंत्री कहते कि प्रत्येक स्कूल को बारहवीं कक्षा के साथ-साथ अन्य प्रवेश परीक्षाओं की भी तैयारी करनी होगी। यदि उनका मंत्रालय सरकारी स्कूलों में समुचित अध्यापक और सुविधाओं को उपलब्ध कराने का प्रयास कर किसी विषय विशेष और आर्थिक दृष्टि से कमजोर छात्रों के लिए प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था कर पाता तो सभी सराहते। परंतु यह कहना कि 80 से 85 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वालों को प्रवेश परीक्षा देने की अनुमति होगी, न तो युक्तिसंगत प्रतीत होता है साथ ही शिक्षा के अधिकार का हनन करता है।
हमारे देश में प्रवेश प्रतियोगिता के साथ-साथ तरह-तरह के आरक्षण भी हैं। ऐसी स्थिति में न्यूनतम अंक सीमा कहाँ-कहाँ लागू की जाएगी? और क्या विभिन्न श्रेणियों के लिए हर साल वह सीमा अलग-अलग होगी जैसा कि इन दिनों सीमित सीटों वाले कॉलेजों में छात्रों की संख्या नियंत्रित रखने के लिए न्यूनतम अंकों की सीमा बदलती रहती है। आर्थिक रूप से संपन्न और प्रतिभाशाली छात्र तो उच्च शिक्षा के लिए बाहर देशों में चले जाते हैं, दूसरी तरफ उनसे ज्यादा योग्य और दक्ष विद्यार्थी आर्थिक कारणों से आगे या अच्छे संस्थानों में नहीं पढ़ पाते। उनके लिए बाहर देशों में पढ़ाई के लिए जाना तो सपना ही रह जाता है।
मानव संसाधन मंत्रालय का कार्यक्षेत्र अब और विस्तृत हो गया है, क्योंकि उसे भविष्य में किस प्रकार के कितने सक्षम व्यक्तियों की आवश्यकता होगी इसका अनुमान लगाना होगा और उनके प्रशिक्षण आदि की सुविधा का प्रावधान ताकि लोग बेकार न रहें और किसी क्षेत्र में कम भी न पड़ें।
निजी संस्थानों में जो शिक्षक कार्यरत हैं उन्हें यदि सरकार उचित नौकरी नहीं दे सकती और उनका सदुपयोग नहीं कर सकती तो बेकारी के विकराल रूप को इन लोगों को बेकार करके बढ़ाना देशहित में नहीं होगा। इस तरह तो शिक्षा सुधार मजाक ही साबित होंगे। बार-बार शिक्षा के ढाँचे को बदलते रहने के बजाय एक सुनिश्चित और व्यवस्थित शिक्षा क्रम अपनाना चाहिए ताकि प्रतिभाएँ और ज्यादा निखरकर सामने आएँ।