भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ी शिक्षा

- जोगिंदर सिंह

मेरे एक डॉक्टर मित्र ने बताया कि उन्होंने एक दंत चिकित्सा कॉलेज खोलकर अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती की है क्योंकि हर कदम पर उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है। इस विभाग के लोगों के अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा, यातायात, प्रदूषण और कई दूसरे सरकारी विभागों से संबंधित अधिकारियों को रिश्वत देनी पड़ती है। जो कुछ "अतिरिक्त" वे दे रहे हैं, उसे छात्रों से वसूलने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है।

मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को मेडिकल शिक्षा और मेडिकल व्यवसाय का स्तर बनाए रखने की जिम्मेवारी सौंपी गई है। पिछले कुछ साल से इस पर भी संकट के बादल छाए हुए हैं। जब से दिल्ली हाईकोर्ट ने इसके अध्यक्ष केतन देसाई को पद छोड़ने के लिए कहा और सरकार को एमसीआई के कामकाज की तथाकथित अनियमितताओं को रोकने के लिए उचित कदम न उठाने के लिए डाँट लगाई तब से एमसीआई में चल रहे खेल खुले हैं।

हाईकोर्ट में दाखिल याचिका में आरोप लगाया गया था कि कुछ मेडिकल कॉलेजों के मामले में एमआईसी ने निरीक्षण के मानकों में ढिलाई बरती है। हॉस्पिटल के ढाँचे और बिस्तरों के इस्तेमाल होने की दरों की झूठी रिपोर्ट दाखिल की गई। भ्रष्टाचार के और मामले भी सामने आए हैं।

देश के 179 मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस कोर्सों में हर साल कुल 18 हजार छात्र दाखिला लेते हैं। ये तो केवल कुछ ही उदाहरण हैं जिनसे नजर आता है कि हमारी तकनीकी शिक्षा का स्तर कितना नीचे आ गया है।

बहुत से कायदे-कानून बनाए जाते हैं जिनका उपयोग कोई भी शिक्षा संस्थान खोलते समय किया जाता है। अगर आप कीमत देने को तैयार हैं तो आप इनका पालन किए बिना काम कर सकते हैं। प्रशासनिक या राजनीतिक स्तर पर शिकायत और विरोध करने का साहस कोई इसलिए नहीं करता हैकि भले ही उनका मामला कितना ही पाक-साफ क्यों न हो, उसे अटकाया या निरस्त किया जा सकता है।

मेरे एक दोस्त ने बताया कि वह एक डीम्ड यूनिवर्सिटी खोलना चाहता था जिसके लिए उससे एक नेता को आठ लाख रुपए देने के लिए कहा गया। आधी रकम तुरंत और आधी काम हो जाने के बाद देने के लिए कहा गया। जब उसने पूछा कि क्या गारंटी है कि मंत्री या बिचौलिए को पैसे देने के बाद काम हो ही जाएगा तो उसे बताया गया कि तुम्हें मेरी बात पर यकीन करना होगा। जब उसने मुझसे पूछा कि उसे क्या करना चाहिए तो मेरी सलाह थी कि रिश्वत की तो एक पाई भी न दो। कुछ ही दिनों में पैसे माँगने वाला व्यक्ति वहाँ नहीं था।

संयोग से 1947 से 2009 तक 62 वर्षों में कुल 44 निजी यूनिवर्सिटियों को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया। जबकि 2004 से 2009 तक 5 सालों में 49 को डीम्ड कर दर्जा दिया गया। शिक्षा तंत्र में लगे रोग का इलाज क्या हो सकता है?

इसका एक ही जवाब है कि कोटा-परमिट राज खत्म करो, जो अब भी अनुमतियों, स्वीकृतियों और अनुमोदनों के रूप में अब भी मौजूद है। शिक्षा के क्षेत्र में एक ताजा लतीफा है कि आवेदनों का निर्णय केस के आधार पर नहीं बल्कि "सूटकेस के आधार पर" किया जाता है।

एक दो जगहों पर सीबीआई के छापों से भ्रष्टाचार की इस विशाल समस्या के एक छोर तक को छुआ नहीं जा सकता। कानून व्यवस्था भी एक अड़चन का काम करती है जिसका झुकाव अपराधियों, ठगों और गलत लोगों की तरफ ज्यादा है।

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