ईसा मसीह का भारत भ्रमण?

सा मसीह ने 13 साल से 29 साल तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। अपनी इस उम्र के बीच ईसा मसीह भारत में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।

रविवार को यीशु ने येरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को 'पाम संडे' कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे 'गुड फ्रायडे' कहते हैं और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ सम्प्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया।

कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहाँ ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।

 
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आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहाँ यह सम्मेलन हुआ था।

पहलगाव था पहला पड़ाव : पहलगाम का अर्थ होता है गडेरियों का गाँव। जबलपुर के पास एक गाँव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गाँव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे। उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 कि.मी. दूर है।

पहलगाम चारों तरफ पहाड़ों से घिरा है। यहाँ की सुंदरता और प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। यहाँ के पहाड़ों के दर्रों से पाक अधिकृत कश्मीर या तिब्बत के रास्ते जाया जा सकता है। इसके आसपास बर्फीले इलाके की श्रृंखलाबद्ध पहाड़ियाँ है। यही से बाबा अमरनाथ की गुफा की यात्रा शुरू होती है। मान्यता है कि ईसा मसीह ने यही पर प्राण त्यागे थे और ओशो की एक किताब 'गोल्डन चाइल्ड हुड' अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है।

'पहलगाम एक छोटा-सा गाँव है, जहाँ पर कुछ एक झोपड़ियाँ हैं। इसके सौंदर्य के कारण जीसस ने इसको चुना होगा। जीसस ने जिस स्‍थान को चुना वह मुझे भी बहुत प्रिय है। मैंने जीसस की कब्र को कश्‍मीर में देखा है। इसराइल से बाहर कश्‍मीर ही एक ऐसा स्‍थान था जहाँ पर वे शांति से रह सकते थे। क्‍योंकि वह एक छोटा इसराइल था। यहाँ पर केवल जीसस ही नहीं मोजेज भी दफनाए गए थे। मैंने उनकी कब्र को भी देखा है। कश्मीर आते समय दूसरे यहूदी मोजेज से यह बार-बार पूछ रहे थे कि हमारा खोया हुआ कबिला कहाँ है (यहूदियों के 10 कबिलों में से एक कबिला कश्मीर में बस गया था)।

यह बहुत अच्‍छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी है। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्‍तु दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्‍का की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्‍मीर में ऐसी है जो मुसलमान नियमों के अनुसार नहीं बनाई गई।'- ओशो

निकोलस नोतोविच का शोध : एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है।

हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थि‍त है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहाँ रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहाँ से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुँचे और वहाँ वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।

ईसा का नामकरण : यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुँचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुँचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम 'ईसा' रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ 'भगवान' होता है।

एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें 'ईशा' नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालाँकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम 'ईश उपनिषद' है। 'ईश' या 'ईशान' शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है।

कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। और मसीह शब्द को हिंदी शब्दकोश के अनुसार अभिषिक्त मानते हैं, अर्थात यूनानी भाषा में खीस्तोस। इसीलिए पश्चिम में उन्हें यीशु ख्रीस्त कहा जाता है। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं।

पहली बार हुआ विवाद : सिंगापुर स्पाइस एयरजेट की एक पत्रिका में इसी बात की चर्चा की गई थी कि यीशु को जब क्रूस पर चढ़ाने के लिए लाया जा रहा था तब वे क्रूस से बचकर भाग निकले और कश्मीर पहुँचे और बाद में वहाँ उनकी मृत्यु हो गई। उनका मकबरा कश्मीर के रौजाबल नामक स्थान में है।

कैथोलिक सेकुलर फोरम नामक एक संस्था ने इस खबर का कड़ा विरोध किया। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इस पत्रिका के खिलाफ प्रदर्शन भी हुआ। विरोध के बाद स्पाइस एयरजेट के डायरेक्टर अजय सिंह ने माफी माँगी और कहा कि पत्रिका की करीब 20 हजार प्रतियों का वितरण तुरंत बन्द कर दिया गया है।

द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि प्रभु यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताएँ और यहाँ योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया।

उक्त सभी शोध को लेकर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। 'द गार्जियन' में भी स्वामी जी की पुस्तक के संबंध में छप चुका है।

अन्य आलेख
1. पाम संडे
2. गुड फ्राइड
3. ईस्ट
4. ईसा मसीह
5. ईसा मसीह और ईसाई धर्

फिफ्त गॉस्पल : ये फिदा हसनैन और देहन लैबी द्वारा लिखी गई एक किताब है जिसका जिक्र अमृता प्रीतम ने अपनी किताब 'अक्षरों की रासलीला' में विस्तार से किया है। ये किताब जीसस की जिन्दगी के उन पहलुओं की खोज करती है जिसको ईसाई जगत मानने से इन्कार कर सकता है, मसलन कुँवारी माँ से जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जीवित हो जाने वाले चमत्कारी मसले। किताब का भी यही मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र तक ईसा भारत भ्रमण करते रहे।

ऐसी मान्यता है कि उन्होंने नाथ सम्प्रदाय में भी दीक्षा ली थी। सूली के समय ईशा नाथ ने अपने प्राण समाधि में लगा दिए थे। वे समाधि में चले गए थे जिससे लोगों ने समझा कि वे मर गए। उन्हें मुर्दा समझकर कब्र में दफना दिया गया।

महाचेतना नाथ यहूदियों से बहुत नाराज थे क्योंकि ईशा उनके शिष्य थे। महाचेतना नाथ ने ध्यान द्वारा देखा कि ईशा नाथ को कब्र में बहुत तकलीफ हो रही है तो वे अपनी स्थूल काया को हिमालय में छोड़कर इसराइल पहुँचे और जीसस को कब्र से निकाला। उन्होंने ईशा को समाधि से उठाया और उनके जख्म ठीक किए और उन्हें वापस भारत ले आए। हिमालय के निचले हिस्से में उनका आश्रम था जहाँ ईशा नाथ ने अनेक वर्षों तक जीवित रहने के बाद पहलगाम में समाधि ले ली।

ईसा पर बनी फिल्में : 1. द विंची कोड : उत्तर इजिप्ट (मिस्र) के एक शहर नाग हम्मदि के पास, सन 1945 में एक बर्तन में सुरक्षित रखे हुए 12 दस्तावेज मिले। बरसों असली दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद 'डैन ब्राउन' ने यह उपन्यास 'द विंची कोड' लिखा। इन दस्तावेजों को गूह्य समूहों ने जीवित रखा था। विख्यात चित्रकार लिओनार्दो द विंची ऐसे ही किसी गूह्य समूह के एक सदस्य थे इसलिए उन्होंने अपनी पेंटिंग्स में कुछ सूत्र, कुछ इशारे छुपाए हैं जिन्हें अनकोड किया जा सकता है। इन सबको आधार बनाकर बनी फिल्म है 'द विंची कोड।'

2.एक्वारियन गॉस्पल : हॉलीवुड की फिल्म ‘एक्वारियन गॉस्पल’ में ईसा मसीह को भारत भ्रमण करते हुए बताया गया है। उक्त फिल्म की कहानी बाइबल के उन 'लुप्त वर्षों' के बारे में है, जबकि ईसा मसीह दुनिया के भ्रमण पर निकले थे और इस दौरान उन्होंने बौद्ध मठों में रहने के अलावा जाति व्यवस्था में फैले अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध आवाज भी उठाई थी।

'एक्वारियन गॉस्पल' नामक इस फिल्म में ईसा मसीह का चित्रण पूर्वी देशों के धर्मों से प्रभावित एक धर्मात्मा व शिक्षक के रूप में किया गया है। फिल्म का शीर्षक एक शताब्दी पुरानी उस किताब से लिया गया है, जिसमें ईसाई धर्म की पूर्वी देशों में जड़ों के बारे में पड़ताल की गई थी। माना जाता है कि प्राचीन अरामैक भाषा में ईसा मसीह को यीशुआ या जोशुआ के नाम से जाना जाता था। इसीलिए फिल्म की पटकथा में प्रभु ईसा मसीह द्वारा ‘जोशुआ’ के नाम से मध्य एशिया से भारत तक की यात्रा का वर्णन है।

उपरोक्त बातों में कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते, लेकिन यह विचारणीय तथ्‍य है कि सभी गॉस्पल और ऐतिहासिक दस्तावेज पर शोध किया जाना चाहिए या उक्त तथ्यों से अनजान रहकर ईसाई धर्म की सच्चाई को छुपाकर रखा जाना चाहिए।

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