स्टार चमके पर टीम पिछड़ी

अमय खुरासिया
बहुत अरसे से मन में विचार आ रहा है कि क्या हम सफलता को वास्तव में बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं या व्यावसायिकता में इतने रम गए हैं कि मूल प्रश्न (खेल का विकास) ओझल हो गया है। अगर हमें कला में सर्वश्रेष्ठ होने का मूलमंत्र एक ही प्रतियोगिता को जीतने से मिल गया है तो फिर उपलब्धियों में वो निरंतरता क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन जीत के जलसों में व्यक्ति विकसित हो रहे हैं पर खेल नहीं।

ऐसा क्या है ऑस्ट्रेलियन टीम में जो वे पिछले 15 सालों से क्रिकेट जगत में धूम मचाए हुए हैं। भले ही उनकी अग्रिम पंक्ति के प्रमुख खिलाड़ी न खेलें, कुछ वरिष्ठ खिलाड़ी (शेन ॉर्न और ग्लेन मैग्राथ) तो संन्यास भी ले चुके हैं पर उनका विजय चक्र सतत है। उनके तंत्र में ऐसा क्या है, जो उन्हें धुरंधर टीम बनाता है न कि धुरंधरों की टीम। उनकी व्यवस्था में झाँकें तो हम बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं।

अगर हम गौर से देखें तो उनका हर खिलाड़ी मैदान में सकारात्मक ऊर्जा से लैस होता है, उनके खेलने की शैली लयबद्ध है, तो उतनी ही आक्रामक भी, उनका दृष्टिकोण और समर्पण अलग स्तर का होता है। यह सब एक अच्छे वर्क एथिक से आता है, वर्क एथिक अच्छे संस्कार से आते हैं और यह संस्कार अच्छी खेल व्यवस्था से उत्पन्न होते हैं।

हमारे पास भी हर खेल में व्यवस्था है पर उसका संचालन पेशेवर नहीं है। सारे व्यवस्थापक केवल सफलता के साथ बैठना चाहते हैं और विफलता हमेशा उजड़ी और वीरान होती है, ठीक उस अनाथ की तरह, जिसे सहानुभूति सबकी मिलती है पर संरक्षण किसी का नहीं।

अभी हाल ही में भारतीय टीम की वन-डे सीरिज में ऑस्ट्रेलिया के हाथों करारी शिकस्त हुई है जिससे खेलप्रेमी दुःखी हैं पर हमारी नौजवान फौज ने अपना ट्वेंटी-20 विजय क्रम बरकरार रखा है, जो कि प्रशंसनीय है।

सचाई यह है, हमें अभी कई मील के पत्थर तय करना है। विभिन्न संगठनों के बुनियादी ढाँचे जिसमें निष्क्रियता ने कुछ कोने पकड़ रखे हैं, अपने आप जीवित हो उठेंगे यदि हमारी सोच सकारात्मक हो जाए। स्वार्थ निहित व्यावसायिकता, विभाजित व्यक्तित्व हमारे आशावादी उत्साह को शिथिल नहीं कर सकते, समर्पित और पेशेवर हाथ आगे तो आएँ। सच है

पक्षी को उड़ता देख सोचा, हम उड़ना क्यों भूल गए
थोड़ा मन टटोला, तो पाया, बस सोचना भूल गए
हाथ-पाँव दो हमारे भी हैं
उड़ नहीं सकते तो क्या हुआ, कूद-फाँद तो सकते हैं

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