जनता-जनार्दन का असली हिन्दुत्व

हिन्दुत्व के राजनीतिक हथियार को भारत की जनता-जनार्दन कभी नहीं स्वीकारती। प्राचीनकाल से असली हिन्दुत्व का अर्थ है-सभी सामाजिक मान्यताओं-आस्थाओं का सह-अस्तित्व। अब इस एक सप्ताह के दौरान भारत में नवरात्रि-दुर्गा उत्सव-दशहरे की धूमधाम के साथ ईद के जश्न का रंग भी देशभर में दिखाई देगा।

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सुदूर गाँव से महानगरों तक समाज का हर वर्ग हर्ष-उल्लास में नजर आएगा। परदेसी पहचान भी नहीं सकते कि खुशियाँ मनाने वाले किस धर्म, जाति और परंपरा वाले हैं। भारत के गरीब पिछड़े, निम्न या मध्य वर्ग के लोग हों अथवा आलीशान कोठियों या बहुमंजिली इमारतों में रहने वाले, सबको खुशियाँ बाँटने में अधिक सुख मिलता है।

राजनीतिक स्वार्थों के लिए कट्टर हिन्दुत्व का ढोल कितना ही बजता रहे, आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की है और उसे गरबा उत्सव में डांडिया खेलते, दुर्गा उत्सव मेले में झूमते या ईद पर गले मिलते हुए कट्टरता की किसी छुरी का खयाल नहीं आता।

स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी और अराजकता नहीं हो सकता। स्वतंत्रता का सही उपयोग समाज में सबके साथ आगे बढ़ना है। हिन्दुत्व के नाम पर कुछ तत्व सभ्यता तथा संस्कृति का गलत अर्थ समझाते हैं। 18वीं शताब्दी में जब सभ्यता और संस्कृति शब्दों का प्रचलन प्रारंभ हुआ, तब समाज का भौतिक विकास सभ्यता कहलाया तथा आध्यात्मिक विकास को संस्कृति माना गया। भारत में लगभग ईसा पूर्व 2000 से लेकर 1920-21 तक आर्यों तथा अनार्यों के मध्य रहे संबंधों को सदा भारतीय संस्कृति की शुरुआत माना गया।

वर्ष 1922 में सिंध के मोहनजोदड़ो और पश्चिम में पंजाब के हड़प्पा में की गई खुदाइयों से पता चला कि सांस्कृतिक विरासत की जड़ें उससे भी लगभग एक हजार वर्ष पुरानी हैं। यों भारतवासी पाँच हजार वर्ष की प्राचीन संस्कृति के उत्तराधिकारी माने जाते हैं।

सप्तसिंधु का "आर्य प्रदेश-देश" सिंधु, सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, झेलम तक सीमित था। फिर आर्यों ने अपना क्षेत्र काबुल घाटी से पूर्व में गंगा, यमुना, सोन तथा सरयू के मैदानों तक बढ़ा लिया। इसके बाद गोदावरी और ब्रह्मपुत्र से घिरे संपूर्ण क्षेत्र को "आर्यावर्त" नाम दिया गया।

वेदों और उपनिषदों ने समाज को शिक्षित और विकसित किया। फिर रामायण तथा महाभारत जैसे महाकाव्यों ने सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की नींव रखी। बहुत से पोंगा पंडित ये नहीं जानते कि रामायण और महाभारत के रचयिता गैर-ब्राह्मण थे। वाल्मीकि शूद्र और व्यास क्षत्रिय थे।

भवानीप्रसाद मिश्र ने बहुत पहले लिखा था- 'हर एक नए क्षण के पथ पर पाँवड़े बिछाओ, उसको भेंटों, एक रूप उससे हो जाओ। उतने ताजे रहो कि जितना क्षण होता है, जीवन की गति का प्रमाण अक्षुण्ण होता है
जिस काल में हिन्दूवाद का शंख बज रहा था, कतिपय रूढ़ियों से हटकर जैनवाद तथा बुद्धवाद की नींव पड़ी। इस देश के असली भक्त संत तुलसीदास, सूरदास, कबीर तथा नानक ने महान समाज सुधारक की भूमिका भी निभाई। कबीर ने हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच सामंजस्य की शिक्षा दी। रविदास, दरिया शाह तथा गुरु गोरखनाथ जैसे संतों ने जीवन तथा संस्कृति को नई दिशा दी। मुगलकाल में मलिक मोहम्मद जायसी तथा अब्दुर्रहीम खानखाना ने धार्मिक कट्टरता को ही नहीं तोड़ा, बल्कि संस्कृत, हिन्दी तथा उर्दू के सम्मिश्रण वाला साहित्य जन-जन तक पहुँचाया। भारत की असली संस्कृति यही है।

भारतीय संस्कृति की उदारता का प्रमाण हर काल में मिलता रहा है। बादशाह अकबर, दाराशिकोह, अमीर खुसरो से लेकर महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और मनमोहनसिंह के काल में धार्मिक उदारता के दर्शन हर क्षेत्र में मिलते हैं। शंकराचार्य ने वेदांत दर्शन में बुद्धवाद तथा जैनवाद के विभिन्न सिद्धांतों एवं संगठनात्मक विशेषताओं को हिन्दुत्ववाद में शामिल किया। यदि विभिन्न धर्मों का गहराई से अध्ययन किया जाए तो निष्कर्ष निकलेगा कि सभी धर्मों का निचोड़ एक जैसा है। फिर भले ही वह हिन्दू धर्म हो या बौद्ध या इस्लाम अथवा ईसाई, आधुनिक धर्म का एक ही रूप है।

हिन्दुत्व का उदार-व्यावहारिक रास्ता अपनाए बिना भारत में कोई दल, संगठन या नेता सफलता नहीं पा सकता। गुजरात में पिछले दिनों हुए उपचुनावों में सफलता के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिन्दू परिषद अपने कट्टर हिन्दुत्व को स्वीकारने की गलतफहमी पाल सकते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं मान सकते। उन्हें समझ में आ गया है कि उदार दृष्टिकोण और अल्पसंख्यकों के बीच विश्वास अर्जित करने से ही बहुसंख्यक प्रसन्न और संतुष्ट होंगे।

संघ या विश्व हिन्दू परिषद अपने कट्टर हिन्दुत्व को स्वीकारने की गलतफहमी पाल सकते हैं, लेकिन मोदी नहीं मान सकते। उन्हें समझ में आ गया है कि उदार दृष्टिकोण और अल्पसंख्यकों के बीच विश्वास अर्जित करने से ही बहुसंख्यक प्रसन्ना और संतुष्ट होंगे।
आडवाणी या जसवंतसिंह के "जिन्ना प्रेम" से अल्पसंख्यक कतई प्रभावित नहीं हो सकते, लेकिन नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद सहित गुजरात के अन्य शहरों में पिछले एक वर्ष में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की मुहिम चलाई, जिससे चुनावों में उन्हें अनुकूल समर्थन मिला। महाराष्ट्र में शिवसेना के कट्टर हिन्दुत्व और संकीर्ण क्षेत्रवाद को व्यापक जनसमर्थन नहीं मिल सकता। नफरत के बीज बोकर कोई संगठन फलदार वृक्ष नहीं लगा सकता।

गंगा या यमुना के जल में जहर मिलाने या विशाल नागराज उतार देने को भोली-भाली, लेकिन उदार जनता कभी बर्दाश्त नहीं करती। राजनीतिज्ञों को सत्ता की आकांक्षा होती है। पूँजीपति को पूँजी बढ़ाते रहने की इच्छा होती है। हथियारों के देशी-विदेशी सौदागरों को अधिकाधिक गोला-बारूद, हथियार बेचने की तमन्ना रहती है, लेकिन मेहनत-मजदूरी करने वाली सामान्य जनता को दिनभर काम के बाद दो वक्त की रोटी तथा चैन की नींद की जरूरत होती है। उसका धर्म "जियो और जीने दो" के आदर्श पर आधारित है।

इसलिए हर पर्व-त्योहार को समाज का हर वर्ग मिल-जुलकर मनाना चाहता है। इन उत्सवों के दौरान लोगों को आमदनी बढ़ाने के अवसर मिलते हैं। साथ खाने-पीने, उठने-बैठने, नाचने-गाने के मौके मिलते हैं। इस मस्ती में कोई व्यवधान नहीं चाहता। यही कारण है कि गणेशोत्सव, नवरात्रि, ईद पर हजारों-लाखों की भीड़ उमड़ने के बावजूद कहीं कोई गड़बड़ नहीं होती। रात-रात भर चलने वाली पूजा-आरती, रामलीला, गरबे या ईद के आसपास चलने वाले बाजारों में सिर्फ खुशियाँ बँटती नजर आती हैं। भारत की असली शक्ति सामाजिक सौहार्द और समन्वय में है। कट्टर हिंदुत्व के बजाय गाँधी की हिंदुस्तानियत या भारतीयता से देश का अधिक लाभ हो सकता है।

हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि भवानीप्रसाद मिश्र ने बहुत पहले लिखा था- 'हर एक नए क्षण के पथ पर पाँवड़े बिछाओ, उसको भेंटों, एक रूप उससे हो जाओ। उतने ताजे रहो कि जितना क्षण होता है, जीवन की गति का प्रमाण अक्षुण्ण होता है।' इसलिए परिस्थितियाँ कठिन हैं, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों के पहाड़ सामने हैं, लेकिन एक साथ मिलकर चलने से ही हर क्षण का सही उपयोग हो सकता है। हिमाचल से पश्चिम बंगाल तक देवी शक्ति की आराधना विध्वंस के लिए नहीं हो सकती। निर्माण, उत्थान, खुशहाली की अर्चना से ही सबको लाभ हो सकता है। (नईदुनिया)

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