विकास का झंडा, हिंदुत्व का एजेंडा!

सबका साथ-सबका विकास के नारे पर सात महीने पहले सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस जोर-शोर के साथ विकास के मुद्दे को उठाया था, उस पर अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी कोख से जन्मे अन्य संगठनों ने अपने वाचाल बयानों और बेतुकी हरकतों से पानी फेरना शुरू कर दिया है।

सरकार के कुछ मंत्री और विभिन्न राज्यों में भाजपा के कतिपय सांसद, विधायक और स्थानीय नेता भी हिंदुत्व के एजेंडे को बढ़ावा देने के इस काम में पूरे मनोयोग से जुटे हैं। कहीं घर वापसी के नाम पर धर्मांतरण कराया जा रहा है तो कहीं साम्प्रदायिक दंगों के आरोपी भाजपा नेताओं का सम्मान किया जा रहा है। कोई नेता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बता रहा है तो कोई देश भर में गोडसे की मूर्तियां लगाने की घोषणा कर रहा है। कोई केंद्रीय मंत्री भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के लिए गाली-गलौच भरी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है तो कोई अल्पसंख्यकों को धमकाने वाले बयान दे रहा है। इतना ही नहीं, संघ परिवार के कई आला नेता तो खुलेआम देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की उद्‌घोषणा कर रहे हैं। इस सबके चलते समाज में वैमनस्य का वातावरण तो बन ही रहा है, साथ ही उन लोगों में भी हताशा का भाव भी पैदा हो रहा है, जिन्होंने कांग्रेस नीत यूपीए की भ्रष्ट और नाकारा सरकार के विकल्प के तौर पर साहसी और लोक हितकारी फैसले लेने की उम्मीद के साथ नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुना था। 
 
मोदी सरकार से जनता की हताशा-निराशा की एक झलक हाल में हुए झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजों में भी देखी जा सकती है। दोनों ही राज्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर पर धुंआधार चुनावी रैलियां की थीं। झारखंड में बेशक भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ बहुमत हासिल करने में कामयाब हो गई, लेकिन लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में कमी आई है। यही नहीं, लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की 56 सीटों पर आगे रही थी, लेकिन अभी वह विधानसभा की महज 36 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई है। जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा ने खूब हवा बनाई थी कि वह अपने दम पर इस राज्य में सरकार बनाएगी। लेकिन झारखंड की तरह यहां भी लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में गिरावट दर्ज हुई है। हालांकि उसने 25 सीटें जीत कर इस सूबे में अपने इतिहास की सबसे बड़ी कामयाबी दर्ज की है। अलबत्ता ये सभी 25 सीटें उसे हिंदू बहुल जम्मू इलाके से ही मिली है, जबकि कश्मीर घाटी और लद्दाख इलाके में वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई। यह तो हुई राजनीतिक मोर्चे पर उसके नफे-नुकसान की बात। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट, नकारात्मक औद्योगिक और विनिर्माण विकास दर, खेती की जमीन घटने से पैदा हुए कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या की ताजा घटनाओं ने भी सरकार के विकास के एजेंडे के ढोल की पोल खोल दी। यही नहीं, रिजर्व बैंक के गवर्नर के उस पूर्वानुमान ने भी मोदी सरकार के विकास के गुब्बारे की हवा निकाल दी, जिसमें उन्होंने चेतावनी दी है कि हमारी घरेलू मांग और जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाए बिना कोई आर्थिक बदलाव मुमकिन नहीं है।
 
दरअसल, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से पहले भाजपा की हालत अंतर्कलह से जूझते एक दिशाहीन राजनीतिक कुनबे की थी। दस साल तक सत्ता से बाहर रहते हुए वह कांग्रेस के खिलाफ कायदे से कारगर विपक्ष की भूमिका भी नहीं निभा पा रही थी। ऐसे में संघ ने कमान अपने हाथों में लेकर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाया और लालकृष्ण आडवाणी तथा मुरली मनोहर जोशी को निर्ममतापूर्वक किनारे किया। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी से उपकृत हुए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने भी आर्थिक उदारीकरण की रफ्तार तेज होने और अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ने की आस में मोदी और भाजपा का दिल खोलकर साथ दिया। मोदी ने भी देश के कोने-कोने में जाकर अपने आक्रामक और लच्छेदार भाषणों से लोगों को खूब रिझाया। चुनाव में यद्यपि उन्हें देश के महज इकतीस फीसदी मतदाताओं का ही समर्थन मिला लेकिन बावजूद इसके पूर्ण बहुमत से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सत्ता में आई भाजपा से लोगों को उम्मीद थी कि उसकी सरकार पांच साल तक निर्बाध रूप से चलेगी और बेहतर नतीजे देगी। मोदी ने भी चुनाव अभियान के दौरान लोगों से कहा था कि भाजपा के उम्मीदवारों को मत देखो, मुझे देखो। उन्होंने लोगों को विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाते हुए अच्छे दिन लाने का वादा किया था।
 
मगर, अब लोगों को विकास के बदले जो मिल रहा है वह है रोज-रोज की सांप्र्दायिक बयानबाजियां, धमकियां, दंगे-फसाद और धर्मांतरण की ओछी हरकतें। सरकार बने को महज सात महीने हुए हैं लेकिन भाजपा समेत पूरा संघ परिवार अपने संविधान विरोधी और साम्प्रदायिक एजेंडे को लागू करने में बेहद जल्दबाजी दिखा रहा है। हालांकि संघ परिवार ने ऐसी ही कोशिशें लगभग पच्चीस छोटे-बड़े दलों के समर्थन से बनी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय भी की थी। उस समय संघ के दबाव में संविधान बदलने तक की कोशिशें भी हुई थीं। यह और बात है कि ऐसी कोशिशें कामयाब नहीं हो सकी थीं। अब और तब की स्थिति में एक बड़ा फर्क यह भी था कि उस सरकार की अगुवाई एक ऐसा शख्स कर रहा था जिसने नेहरू से लेकर नरसिंहराव के युग तक देखा था कि संसदीय लोकतंत्र में सरकारें किस तरह की मर्यादाओं में रह कर काम करती हैं, किस तरह केंद्र की सरकार को देश की तमाम तरह की विविधताओं और विरोधाभासों का सामना करते हुए चलना होता है और विभिन्न स्तरों पर आतंक पैदा करके लोकतंत्र नहीं चलाया जा सकता। लेकिन अब तो संघ परिवार की हड़बड़ी देखकर लगता है कि एक ऐसा देश बनाने की तैयारी हो रही हैजो उसके हिंदुत्ववादी सपने के अनुरूप होगा, जिसमें अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक होंगे जो हिंदू संघ के एजेंडे को कुबूल नहीं करेंगे, उन्हें भी उनकी जगह दिखा दी जाएगी।  
 
संघ परिवार जिस एजेंडे पर आज काम कर रहा है उसकी झलक वैसे तो इस सरकार के बनने से पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ही देखने को मिल गई थी जब मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी नेताओं को मौजूदा भाजपा अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के उस समय के प्रभारी अमित शाह ने सार्वजनिक तौर पर सम्मानित किया था। चुनाव अभियान के दौरान ही मोदी-विरोधियों को पाकिस्तान भेज दिए जाने की धमकी भी दी जा चुकी थी। फिर भी लोगों ने यही माना था कि ये सब चुनावी कवायदें और शिगूफेबाजी हैं जो आमतौर पर चुनाव के दौरान होती ही है। विकास के एजेंडे को धता बताने की कायदे से शुरुआत उत्तर प्रदेश में सांसद योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में कपोल-कल्पित 'लव जेहाद' के खिलाफ अभियान से हुई। हालांकि उत्तर प्रदेश के विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को इसका कोई फायदा नहीं मिला। लेकिन इसके बावजूद आदित्यनाथ बाज नहीं आए और भड़काऊ बयानबाजी करते रहे। उन्होंने हिंदू साधु-संतों को अपने हाथों में 'माला के साथ भाला' और 'शास्त्र के साथ शस्त्र' उठाने का संदेश भी दिया। इसके बाद तो यह सिलसिला लगातार तेज होता गया। साध्वी कही जाने वाली एक केंद्रीय मंत्री ने भाजपा समर्थकों को रामजादा और भाजपा के विरोधियों को हरामजादा बताने वाला बयान दिया तो एक अन्य साधु वेशधारी भाजपा सांसद ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त बताने वाला बयान दिया। कहीं ताजियों को निशाना बनाकर तो कहीं गोकशी का बहाना बनाकर दंगे करवाए गए। किसी ने ताजमहल को तेजोमहालय बताया तो किसी ने देश भर में गोडसे की मूर्तियां लगाने की घोषणा की और किसी ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग की। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने तो यह जानते हुए भी कि अयोध्या का मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है, विवादित भूमि पर राम मंदिर बनाने का आव्हान कर डाला। यही नहीं, पाठ्‌य पुस्तकों में हिंदुत्व के हिंसक नायकों को शामिल करने और पाठ्‌य पुस्तकों से उर्दू के शब्दों को निकालने की वकालत करने वाले बयान भी आए। इन ऊलजुलूल बयानों और हरकतों का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है।
 
इन सारी कारगुजारियों के बीच ही विकास का राग भी पूरे जोर-शोर से अलापा जा रहा है। इन कारगुजारियों को लेकर अगर कोई सवाल करे और प्रधानमंत्री से जवाब देने की मांग करे तो उसे विकास विरोधी बताया जा रहा है। उस पर विकास के एजेंडे से प्रधानमंत्री और सरकार को भटकाने की कोशिश करने के आरोप लगाए जा रहे हैं। धर्मांतरण के मसले पर तो संघ प्रमुख मोहन राव भागवत, विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया जैसे नेता जिस तरह जगह-जगह सभाएं करके मुसलमानों और ईसाइयों को झगड़े की जड़ बताते हुए पूरे देश को हिंदू आबादी में बदल देने की जो घोषणा कर रहे हैं, वह किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन सरकार का मुखिया इस पर भी मुंह खोलने को तैयार नहीं है। किसी को भी और खासकर सरकार में बैठे लोगों को तो यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि हमारा संविधान देश के हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। पर लोकसभा में बहस के दौरान भाजपा सांसद ही नहीं बल्कि सरकार के मंत्री भी घुमा-फिराकर कथित घर-वापसी अभियान का समर्थन करते देखे गए। 
 
बेशक अतीत में धर्मांतरण हुए हैं और यह परिघटना कोई तीन या चार सदी नहीं, बल्कि हजारों वर्ष पुरानी है। सवाल है कि लोग हिंदू या कि सनातन धर्म से पलायन कर क्यों दूसरे धर्मों की शरण में जाते रहे? क्यों बुद्घ और महावीर को विद्रोह कर नया रास्ता तलाशना पड़ा? सिख धर्म जो हिंदू धर्म-दर्शन की विकास प्रक्रिया ही हिस्सा रहा है, वह भी हिंदू समाज से क्यों दूर होता चला गया? बाबा साहेब आम्बेडकर को क्यों अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्घ धर्म की शरण में जाना पड़ा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका हिंदुत्व के ठेकेदार चाहे जो जवाब दें, लेकिन हकीकत यही है कि हिंदू समाज की कुरीतियों और हिंदू कट्टरपंथियों और तंगदिल धर्माचार्यों के अन्यायी और अमानवीय बर्ताव ने ही अतीत में भी दलितों, आदिवासियों तथा अन्य श्रमिक जातियों को अतीत में धर्म परिवर्तन के बाध्य किया है। अलबत्ता ये हिंदू कट्टरपंथी और धर्माचार्य अभी भी सुधरने को तैयार नहीं हैं।
 
बहरहाल, संघ परिवार के तत्वावधान में घर वापसी के नाम चलाए जा रहे धर्मांतरण अभियान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक अपना रुख साफ नहीं किया है कि धर्मांतरण रोकने को लेकर उनकी सरकार क्या करने जा रही है। उनकी चुप्पी से सवाल उठता है कि क्या मोदी वाकई इतने कमजोर प्रधानमंत्री हैं कि उनका अपने मंत्रियों, सांसदों और पार्टी के छुटभैये नेताओं पर कोई नियंत्रण नहीं है? हालांकि यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। साल भर पहले खुद नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जो दूसरे लोग करते है वह धर्मांतरण होता है और जो हिंदू करते हैं वह घर वापसी होती है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि मोदी संघ की अनुकंपा से ही प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे है। ऐसे में संघ की गतिविधियों पर कानूनी लगाम लगाना उनके लिए संभव नहीं रह गया है। स्वाभाविक ही वे संसद में या संसद से बाहर इस पर कुछ बोलने से बच रहे है। यह एक प्रकार से इस अभियान को उनकी मौन सहमति ही कही जा सकती है।
 
प्रधानमंत्री की चुप्पी को लेकर राज्यसभा में हंगामे के चलते बीमा और कोयला संबंधी महत्वपूर्ण विधेयक पारित नहीं हो पाए हैं और सरकार को इन पर अध्यादेश लाने का फैसला करना पड़ा है। यह कोई सुखद स्थिति नहीं है और इससे विकास संबंधी नरेंद्र मोदी के एजेंडे के ठंडा पड़ जाने का खतरा पैदा हो गया है। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है, जब संघ के दबावों और अपने एजेंडे पर आक्रामक रुख अख्तियार कर लेने के चलते सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हुई हैं। संघ ने अपनी गतिविधियों से इसी तरह की दुश्वारियां अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सामने भी खड़ी की थीं, लेकिन तब वाजपेयी ने खुद को संघ के दबावों से मुक्त कर अपनी सरकार के कार्यक्रमों और नीतियों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। लेकिन लगता नरेंद्र मोदी में वैसा साहस नहीं है। लेकिन अगर उन्हें यह लगता है कि उनको मिले जनादेश के पीछे हिंदुत्व की भावना ही है तो उन्हें इससे बाहर निकलने की जरूरत है। इस सिलसिले में उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और खालिस्तानी आतंकवादियों के सरगना भिंडरांवाले की मिसाल भी याद रखनी चाहिए। कौन भूल सकता है कि शुरुआत में भिंडरांवाले को बढ़ावा देने का काम इंदिरा गांधी ने ही किया था जो बाद अंततः उनके लिए सिरदर्द बन गया, जिसकी परिणति पहले स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार और फिर खुद इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के रूप में हुई।
 
प्रधानमंत्री मोदी को और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी उस नसीहत को ही याद रखना चाहिए जो उन्होंने लाल किले से देश की जनता को दी थी। अपनी इस नसीहत में उन्होंने दस वर्ष तक के लिए जाति, धर्म और सम्प्रदाय के सारे विवादों को भूलने और सिर्फ विकास की बात याद रखने को कहा था। यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक आश्वासन देने वाले देश में सामाजिक विद्वेष के बीज बोकर विकास की फसल उगाना कतई मुमकिन नहीं हो सकता। 

वेबदुनिया पर पढ़ें