समानांतर सत्ता का सवाल

इमरजेंसी से थोड़ा पहले और कठोर व्यवस्था के दौरान संजय गाँधी-मेनका गाँधी और उनकी प्रिय मंडली को सत्ता का समानांतर केंद्र माना गया। उनकी सलाह, निर्देश की तरह सरकार एवं प्रशासन को प्रभावित करती रही। इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार आई, तब सत्ता के समानांतर केंद्र दो-तीन हो गए। मोरारजी देसाई के पुत्र कांति देसाई उसी संजय गाँधी शैली में सत्ता-व्यवस्था ही नहीं, समाज और मीडिया तक को प्रभावित करते रहे। दूसरी तरफ जयप्रकाश नारायण और उनके कुछ विश्वस्त सहयोगी सरकार को दिशा-निर्देश देते रहे।

सत्ता का तीसरा केंद्र- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय- सरसंघचालक तथा उनके वरिष्ठ सहयोगी थे, जो जनता पार्टी की सरकार में बैठे जनसंघ घटक के नेताओं-मंत्रियों (अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी सहित) को 'मार्गदर्शन' देकर नीतियों, कार्यक्रमों और निर्णयों को प्रभावित करते रहे। 1998 से 2004 तक भाजपा गठबंधन की सरकार आने पर भी संघ और विश्व हिन्दू परिषद सत्ता का समानांतर केंद्र बना रहा। नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे समर्पित नेताओं के अलावा अटल-आडवाणी के कई करीबी 'समाजसेवी', उद्योगपति, बुद्धिजीवी, संपादक सरकार को सलाह देने के अलावा निर्णयों को प्रभावित करते रहे।

इंद्रकुमार गुजराल, विश्वनाथ प्रतापसिंह तथा चंद्रशेखर के सत्ताकाल में भी सरकार और संसद के प्रभावशाली व्यक्ति समय-समय पर मौखिक ही नहीं लिखित राय-सलाह देकर निर्णय प्रभावित करते रहे। यही नहीं, ऐसे कुछ प्रभावशाली लोगों के पास केंद्र सरकार के सचिव स्तर तक के अफसर समर्पण भाव से पहुँचकर दिशा-निर्देश लेते रहे। पराकाष्ठा चंद्रास्वामी जैसे विवादास्पद तांत्रिक और उसके ठिकाने के सत्ता के समानांतर केंद्र बनने की भी थी। विश्वनाथ प्रतापसिंह, चंद्रशेखर, नरसिंहराव और वाजपेयी राज में भी चंद्रास्वामी के सत्ता केंद्र से बड़े नेता, अधिकारी निर्देश पाते रहे। उन दिनों इस तरह पर्दे के पीछे चलने वाले समानांतर सत्ता केंद्र के विरोध में आवाजें उठती रहीं।

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इस पृष्ठभूमि में सवाल उठता है कि स्पष्ट सरकारी अधिसूचना और सीमित अधिकारों के साथ वर्तमान सरकार के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन पर आपत्ति क्यों की जा रही है? श्रीमती सोनिया गाँधी कांग्रेस की अध्यक्ष होने के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की प्रमुख हैं। उन्हें अपनी सरकार को सही ढंग से राय देना या गलतियों की तरफ ध्यान दिलाने का अधिकार सामान्य कहा जा सकता है। फिर भी सरकार की नीतियों, कार्यक्रम-क्रियान्वयन और जनहित में रचनात्मक सुझाव देने के लिए समाज के विभिन्न क्षेत्रों की गैर राजनीतिक अनुभवी हस्तियों के साथ सोनिया गाँधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन पर प्रतिपक्ष ही नहीं, कुछ बुद्धिजीवी सलाहकारों को भी बड़ा कष्ट हो रहा है।

यही लोग स्वयं गुजराल, विश्वनाथ प्रतापसिंह, देवेगौड़ा इत्यादि नेताओं को बंद कमरे में सलाह देकर सरकार से निर्णय करवाते रहते थे। ऐसे सलाह देने वाले सभी घोषित रूप से सलाहकार बने, कभी नामजद सांसद या राजनयिक बने। तब उन्हें सरकार में रहे बिना सलाह देकर निर्णय प्रभावित करने में किसी 'अपराध' का बोध नहीं हुआ। अब उन्हें प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह और उनकी सरकार पर दया आ रही है। उन्हें इतने वर्षों के राजनीतिक-सामाजिक अनुभव के बाद क्या सरकारी प्रशासनिक मशीनरी के निकम्मेपन, भ्रष्टाचार और अव्यावहारिकता का भान नहीं है? निश्चित रूप से मनमोहनसिंह भले और ईमानदार व्यक्ति तथा काबिल अर्थशास्त्री हैं। लेकिन सामाजिक यथार्थ तथा सरकारी कार्यक्रमों में भारी हेराफेरी, गड़बड़ियों और ढिलाई की पूरी जानकारी उन्हें नहीं मिल सकती। इसी तरह कम्प्यूटर ज्ञान वाले अफसर और सलाहकार जमीनी वास्तविकताओं को समझे बिना योजनाएँ, कार्यक्रम और बजट बनाते हैं।

इस दृष्टि से अरुणा राय, दीप जोशी, हर्ष मंदर, माधव गाडगिल, फरहा नकवी, ज्यांद्रेज, एमएस स्वामीनाथन, एनसी सक्सेना, अनु आगा, मिराई चटर्जी, नरेंद्र जाधव और एके शिवकुमार जैसे समाजसेवियों, अर्थशास्त्रियों, पर्यावरणविदों की सलाहकार परिषद सरकार को कम से कम जनहितकारी सलाह तो दे सकेगी। इस सलाहकार परिषद के निर्णय-निर्देश पारदर्शी तथा सार्वजनिक रहेंगे। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य केंद्र या राज्य सरकार में बैठे किसी अधिकारी या मंत्री को न तो सीधे निर्देश दे सकते हैं और न ही दंडित कर सकते हैं।

मनमोहनसिंह के पहले कार्यकाल में भी तीन वर्ष ऐसी ही सलाहकार परिषद ने कुछ अच्छे काम किए, जिससे सूचना का अधिकार, ग्रामीण रोजगार योजना, शिक्षा के अधिकार इत्यादि महत्वपूर्ण फैसले हो सके। राजनीतिक खींचातानी और अनावश्यक विवादों ने उस सलाहकार परिषद को अधर में लटका दिया था। यही नहीं, उस समय भी सलाहकार परिषद की कई महत्वपूर्ण बातों को केंद्र सरकार ने नहीं माना। परिषद के कुछ सदस्य सरकार के रवैये से खिन्न रहे और उन्होंने इस्तीफे तक दिए। सूचना के अधिकार की सलाह मानकर कानून बनाने के बाद इसी केंद्र सरकार के कुछ बड़े अफसरों ने इस अधिकार को लचर बनाने तथा सही ढंग से अमल में अड़ंगे डालने के प्रयास निरंतर किए हैं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि परिषद सरकार के समानांतर सत्ता का केंद्र हो सकती है।

यों सोनिया गाँधी या राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के किसी सदस्य के नाम को लेकर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। यह भी कहा जा सकता है कि सरकार की छवि चमकाने के लिए ईमानदार, कर्मठ और दूरदर्शी लोगों की टीम बना दी गई है, लेकिन सरकार अपने ढर्रे पर चलती रहेगी। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार के लिए ऐसी निष्पक्ष और समर्पित सलाहकार परिषद बहुत लाभदायी साबित हो सकती है। कृषि और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में कृषि विशेषज्ञ एमएस स्वामीनाथन, वन अधिकारों के संघर्षकर्ता एनसी सक्सेना, समाजसेवी ज्यांद्रेज कम से कम पिछड़े ग्रामीण इलाकों में गरीबों को न्यूनतम खाद्यान्न उपलब्ध करा सकने के लक्ष्य की पूर्ति के लिए सही सलाह सरकार को दे सकेंगे।

सूचना और रोजगार गारंटी की तरह इस देश में खाद्य सुरक्षा तथा लाखों लोगों को कुपोषण से बचाने के लिए न्यूनतम खाद्यान्न दिलाने की गारंटी देने वाली व्यवस्था की जरूरत है। सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के लिए प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त रखने के ठोस उपाय सुझाने का काम वही लोग कर सकते हैं, जिनके पूर्वाग्रह और स्वार्थ न हों। पूर्वोत्तर भारत हो अथवा नक्सल प्रभावित क्षेत्र, आर्थिक विकास की अनिवार्यता सभी स्वीकार कर रहे हैं।

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का विरोध करने वाले राजनीतिज्ञ, राजनयिक या बुद्धिजीवी अपने 'प्रिय' पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों की व्यवस्था को तो जानते हैं। ब्रिटेन जैसे देश में सरकार की दूरगामी नीतियाँ निर्धारित करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनआरआईसी) है। वहाँ परिषद में समाजसेवी न होकर शिक्षा या श्रमिक क्षेत्र के प्रतिनिधि होते हैं, क्योंकि विकसित देशों में गरीबी, अशिक्षा और भुखमरी की समस्याएँ नहीं हैं।

ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में सरकार-प्रशासन को सलाह देने वाले 'थिंक टैंक' कहे जाने वाले विशेषज्ञों तथा संस्थानों का भी विशेष महत्व है। उन्हें सरकारी अनुदान के रूप में बड़ी धनराशि भी मिलती है। उनकी सलाह से नीतियाँ, कार्यक्रम बनते हैं। यहाँ तक कि विदेश और सुरक्षा मामलों में भी उनकी सलाह-सिफारिशें नियमित रूप सरकार को मिलती हैं। भारत में प्राथमिकता सामाजिक-आर्थिक विकास हो सकती है। इसलिए इस क्षेत्र में तटस्थ गैर राजनीतिक विशेषज्ञों द्वारा दी जाने वाली दिशा सचमुच भारत के लिए कल्याणकारी साबित हो सकती है।

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