दिल्ली विधानसभा के वर्ष 2013 के चुनावों के दौरान आप की इस बात के लिए आलोचना की जाती थी कि इसके साथ नया कुछ नहीं है, वरन यह कांग्रेस की बी टीम है। हालांकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उत्थान को ऐसा परिवर्तन माना जा रहा है जो कि सारे देश पर असर डालेगा। इसके बारे में कहा जा रहा है कि आप को एक नई राष्ट्रव्यापी घटना के तौर पर देखा जाना चाहिए।
जाहिर है कि आप की सफलता ने इसके समर्थकों, नेताओं और प्रशंसकों को अभिभूत कर दिया है। लेकिन मोटे तौर पर आप को कांग्रेस का सुधारा हुआ रूप माना जाए तो यह दूर की कौड़ी लाना नहीं होगा। इसे भी कांग्रेस की तरह से लोकप्रिय समर्थन आधार मिला है और इसके एलीट समर्थक भी हैं। बस अगर पार्टी के पास नहीं है तो सिर्फ नेहरू-गांधी विरासत नहीं है।
पिछली सदी में विभिन्न समुदायों ने कांग्रेस के छाते के नीचे आकर अपनी राजनीतिक आवाजों को मुखरता दी थी। यह तब तक चलता रहा जब तक कि राजनीतिक विरासत को लेकर कांग्रेस में विद्रोह नहीं पनपने लगा। मतदाताओं के ये बेघर समुदाय विभिन्न दिशाओं में भटकते रहे, कभी प्रयोग के तौर पर तो कभी विभिन्न दलों को अपना अवसरवादी समर्थन देते हुए भटकते रहे। इन्होंने समय समय पर भाजपा में प्रश्रय पाने की कोशिश की। इसलिए यह कहना एक हद तक गलत नहीं होगा कि कांग्रेस का नया अवतार दूसरे संगठन 'आप' के नाम से सामने आया है।
अब आप और कांग्रेस की समानताओं पर भी तनिक गौर फरमाएं। केजरीवाल को गांधी टोपी पहनने का शौक है और वे समय-समय इसे पहने भी दिखाई देते हैं। इसका यह अर्थ निकाला जा सकता है कि वे अपने समर्थकों के आधार में खुद को मोहनदास गांधी किस्म का नेता प्रोजेक्ट करते हैं। इस तरह उनका जोर है कि उनकी जीवन शैली सादा रहेगी, वे विनम्र बने रहेंगे और उनके लिए धार्मिक मू्ल्यों का महत्व बना रहेगा। दिल्ली में उनका मजबूत जनाधार मानना है कि केजरीवाल पूरी तरह से ईमानदार हैं और उनकी ईमानदारी पर कोई भी उंगली नहीं उठा सकता है। इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जाता है कि उनकी ईमानदारी की इस धर्मध्वजा की सारे देश में परिक्रमा कराई जाएगी।
उनके समर्थकों में विभिन्न जातियां और समुदाय व अल्पसंख्यक एकजुट हुए हैं। उनका यह संगठन सुशिक्षित और सम्पन्न समर्थकों को भी आकर्षित करता है जो कि आदर्शवादी विचारों के आधार पर चुनाव करने को पसंद करते हैं। यह सभी एक पुरानी कांग्रेस की ओर इशारा करती है। यह वह कांग्रेस है जो कि सोनिया गांधी से पहले की है। बाद में तो सोनिया गांधी ने अपने कुशासन और बहुत अधिक परिवारवादी वर्चस्व के कारण इसे ठिकाने लगा दिया है। हालांकि कांग्रेस के समर्थकों इन दोनों बातों को दरकिनार कर दिया हो लेकिन उनके समर्थक अभी भी एक 'बड़े तम्बू' के आदर्शों से अभी भी चिपके हुए हैं।
कांग्रेस के औपचारिक ढांचे ने भ्रष्टाचार को तो सहन कर लिया, लेकिन राज परिवार की परम्परा का विरोध किया। इसलिए ऐसी स्थिति में कांग्रेस का पुनर्जन्म इसी तरह से संभव था कि यह अपने सैद्धांतिक और मानवीय सम्पत्तियों को छोड़कर एक नया कानूनी संगठन बनाए। परिवार को पीछे छोड़ दे और खाली खोके से चिपकी रहे। हालांकि इस परिदृश्य में भाजपा का उत्थान भी सामने आया जो कि एक ही समय होने वाला चमत्कार था। यह वह समय था जबकि दो घटनाओं के बीच 'भाजपा युग' की खिड़की खुली। इस समय पर पुराने बातों की समाप्ति के साथ ही किसी नई संस्था, संगठन का स्वरूप सामने नहीं आया। अपने इस समय के दौरान भाजपा ने भी बहुत से समुदायों को अपना समर्थक बनाया और इसके नेताओं को जगह दी। पार्टी को ऐसा करने में पूरी सफतला मिली क्योंकि तब कोई ऐसा प्रतियोगी ढांचा नहीं था जिसकी अपील विस्तृत हो और यह भाजपा को टक्कर दे सके।
इसका परिणाम यह सामने आया है कि मतदाताओं पर भाजपा का प्रभुत्व पूरा है। इसे यह नहीं सोच चाहिए कि इसके पास एक सुरक्षित, आदर्शों और नेतृत्व को लेकर दीर्घकालिक निष्ठा रखने वालों का एक मजबूत आधार है। वास्तव में, कांग्रेस ने मरणासन्न होने से दो दलों की प्रतियोगिता एक दौर उभर रहा है, जिसमें आप की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका होगी। कहना गलत ना होगा आप की नई भूमिका भी वही होगी जिसे कमी कांग्रेस निभाया करती थी।
इसलिए अब भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज गई है और इसे अपने भविष्य को लेकर उग्र सुधारवादी सोच को अपनाना होगा। इसे यह भी सोचना होगा कि क्या यह राष्ट्रीय स्तर पर लम्बे समय के लिए व्यावहारिक होगी? भाजपा को अपनी राजग सरकार को चलाए जाने की नए सिरे समीक्षा करनी होगी। पार्टी को इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिए कि पार्टी की दिल्ली में हार को छोटा करके आंकने की गलती यह अपने ही जोखिम पर करेगी। इसे पूरी ईमानदारी और साहस के साथ केन्द्र सरकार के कामकाज मे भी वांछित सुधार करने होंगे तभी इसकी राजनीतिक क्षति को रोका जा सकेगा।
हालांकि राजनीतिक हिंसा और अस्थिरता को रोकने में लोकतंत्र ने एक सक्षम लोकतंत्र का काम किया है, लेकिन यह सीमा तक ही सफल रहा है। समय की अपनी लंबाई और परिपक्वता के बावजूद यह दोषपूर्ण रही है। भारतीय लोकतंत्र की इन खामियों को आप राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकोनॉमी) के दोष भी करार दे सकते हैं। इसको कहने का एक अर्थ यह भी है कि भारतीय राजनीतिक वर्ग मूल से राजनीतिक और आर्थिक संरक्षणवाद से ग्रस्त है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए वोट खरीदने का इंतजाम किया जाता है। 'आप' समेत कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती है कि उसने कभी ऐसा नहीं किया है। यह ऐसी वास्तविकता से जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
इस संरक्षणवादी राजनीति का नतीजा है कि निहित स्वार्थ वाले गुट पैदा होते हैं और विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में छुटभैया नेताओं के हित साधने के तरीके खोजे जाते हैं। ये गुट दूसरों के लेनदेन से अपनी जेबें भरते हैं और आम आदमी इनका शिकार बन जाता है। पर दिल्ली के चुनावों की खास बात यही रही है कि आम आदमी समझे जाने वाले लोगों की चुनाव प्रक्रिया से जो भागीदारी समाप्त हो गई थी, उसे आप ने बहाल किया और उसे भरोसा दिलाया कि उसके सम्मान और महत्व का पूरा ध्यान रखा जाएगा, लेकिन आम आदमी की सबसे बड़ी समस्या रोटी, कपड़ा और मकान है और क्या आम आदमी स्थानीय गुंडों, पुलिस, साहूकारों, भूस्वामियों की ताकत से इन्हें बचा सकेगी।
लोगों ने इसी भरोसे पर आप को चुना है और उन्हें लग रहा है कि आप अपने को लोगों से जोड़कर उनके सपनों को साकार करेगी। आप को भी सोचना होगा कि यह अपने वादों को पूरा के लिए केवल रॉबिनहुड वाली छवि पर निर्भर नहीं रहे क्योंकि लोकलुभावन छवि और मात्र बातों से ठोस और वास्तविक काम नहीं किए जा सकते हैं। दिल्ली में भाजपा की पराजय का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि इसने घोषणाएं तो बहुत कीं, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर बहुत थोड़ा ही सामने आया।