मैं जो लिखने जा रहा हूं, पहले ही बता दूं कि उसमें कोई नई बात नहीं है। मामला वही है जो बरसों से चला आ रहा है, वही पहले घटना का होना, फिर उसके बाद स्यामपा होना, फिर जांच की घोषणा, फिर जांच में बरसों लगना, फिर मामले का ठंडा हो जाना, लोगों का भी घटना को भूल-भाल जाना और फिर अगले हादसे का इंतजार करना....। हादसे होते रहते हैं, लोग मरते रहते हैं, चाहे वे गैस के रिसने से मरें, किसी भगदड़ में मरें, सड़क हादसे में मरें या पेटलावद जैसे विस्फोटों में मरें। ऐसा लगता है कि हम ऐसी घटनाओं के लिए अभिशप्त हैं।
ऐसा नहीं है कि इस तरह के हादसे दूसरे राज्यों में नहीं होते या वहां ऐसी घटनाओं को रोकने में शासन-प्रशासन की चौकसी अक्सर काम आ जाती है, लेकिन ऐसा तो बिलकुल है कि अन्य राज्यों की तुलना में मध्यप्रदेश में अगले हादसे का इंतजार कुछ ज्यादा ही शिद्दत से किया जाता है। हमारे यहां बकरे की मां खैर मनाती ही नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या कारण है कि तमाम बंदिशों के बावजूद भरी बस्ती में बारूद का ढेर लगा था, क्या कारण है कि चौकसी या निगरानी का तंत्र उसे देखते हुए भी अनदेखा कर रहा था।
पेटलावद हादसे पर गृहमंत्री बाबूलाल गौर का एक बयान आया है, वे कहते हैं, हादसे नहीं होंगे तो कार्रवाई कैसे करेंगे। इससे पहले व्यापमं मामले की पड़ताल करने आए दिल्ली के पत्रकार अक्षयसिंह की मौत के बारे में भी उन्होंने बहुत स्थितप्रज्ञ भाव से कहा था, जो आया है वह तो जाएगा ही भइया...।
यानी संदेश यह है कि आप ऐसे हादसों को विधि के विधान के रूप में ग्रहण करिए। सत्य वचन है धर्मावतार! होनी को कौन टाल सकता है? लेकिन क्या करें... हम ठहरे साधारण मनुष्य, हाड़-मांस के पुतले। हमारे अपने जब हाड़-मांस के लोथड़ों में बदल जाएं तो मन को यह समझाते हुए कैसे धीरज धरें कि जो आया है उसे एक न एक दिन जाना ही है।
प्रभु, हम भी जानते हैं कि हम सभी को एक न एक दिन यह चोला छोड़ना है, लेकिन क्या हमें ऐसे ही जाना है? विधि का विधान तो हमने-आपने नहीं लिखा, पर इस देश का, इस राज्य का विधान तो हमने ही लिखा है ना! और सरकार, अलमारी में धूल खा रहे उस विधान में ऐसे भी कुछ कर्तव्य लिखे होंगे, जो आपको और आपके प्रशासनिक अमले को ऐसे हादसों के पहले भी कुछ करने के लिए पाबंद करते होंगे, उनका क्या करें? यह सवाल पूछने के साथ ही हम यह सुझाव क्यों न दे दें कि ऐसे नियम-कायदों का भी पेटलावद हादसे के क्षत-विक्षत शवों के साथ अंतिम संस्कार कर दिया जाए?
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बहुत संवेदनशील हैं। जब भी जनहित का कोई मुद्दा हो या ऐसा कोई हादसा हो, उनका मन व्यथित हो जाता है। उन्हें रातभर नींद नहीं आती। पेटलावद की घटना के बाद भी उन्होंने ट्वीट किया कि मैं रातभर सो नहीं सका। पेटलावद घटना से बेहद व्यथित हूं। दोषियों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी।
मुख्यमंत्री इससे पहले भी ऐसे कई मामलों में अपनी रातों की नींद गंवा चुके हैं। हम उनकी संवेदनशीलता पर कोई सवाल नहीं उठा रहे। प्रजा के कष्टों में राजा की रातों की नींद उड़ जाना अच्छी बात है। लेकिन राजा का ऐसे रातभर जागना तभी सार्थक होता है जब उसके सेनापति भी जागते रहें। सिर्फ राजा के जागते रहने से कुछ नहीं होगा, उलटे राजा खुद एक दिन नींद न लेने के कारण बीमार हो जाएगा।
राजा का कर्तव्य यह है कि वह अपने सेनापतियों को जगाए, कोतवाल को जगाए, अपनी सेना को जागता रखे ताकि कोई अनहोनी न घट सके। सोई हुई इस व्यवस्था में राजा की नींद उड़ना नहीं, बल्कि उसके अमले की नींद का उड़ना जरूरी है। जरा इस दिशा में ध्यान देंगे तो कुछ रातें आप भी चैन से सो सकेंगे और प्रदेश की जनता भी।