1984 की सर्दियां शुरू हो चुकी थीं....31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद विक्षुब्ध देश चुनावों का सामना करने के लिए जुट चुका था...संसदीय इतिहास में यह पहला मौका था, जब देश के दो सीमावर्ती राज्यों की जनता अपने सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार का पूरे देश के साथ इस्तेमाल नहीं कर पा रही थी..खालिस्तानी आतंकवाद से ग्रस्त पंजाब की 13 और छात्र आंदोलन से झुलस रहे असम की 14 लोकसभा सीटों पर चुनाव स्थगित थे। इंदिरा की हत्या के बाद जनसहानुभूति का चक्र राजीव गांधी के समर्थन में स्पष्ट नजर आ रहा था...बड़े से बड़े दिग्गज विपक्षी नेता को भी कांग्रेस के प्रति जारी उस हमदर्द जन लहर के खिलाफ जुबान खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी..लेकिन इस माहौल में भी एक नेता ऐसा था, जो लगातार उस ऑपरेशन ब्लू स्टार पर सवाल उठा रहा था, जिसकी प्रतिक्रिया में देश की प्रधानमंत्री को उनके ही सिख सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी...
पांच साल पहले जनता पार्टी विभाजित हो चुकी थी..लेकिन सात साल पहले सर्वशक्तिमान समझी जाने वाली इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने की वजह से उसकी सियासी धमक बरकरार थी। विपक्षी राजनीति की धुरी रही जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर तीसरी बार उत्तर प्रदेश की बलिया सीट से चुनावी मैदान में उतर रहे थे। बलिया की लद्धड़ भाषा में दाढ़ी और संजीदा भाषा में अध्यक्ष जी के नाम से विख्यात चंद्रशेखर का उस बार बलिया वैसा स्वागत नहीं कर रहा था। आपातकाल की काली छाया के बाद 1977 में हो रहे संसदीय चुनावों में चंद्रशेखर को चांद कहा जा रहा था....1980 के चुनावों में कांग्रेस ने गाय-बछड़ा के अपने चुनाव चिन्ह को बदलकर हाथ के पंजे को अपना लिया था। तब बलिया में गीत गाए जा रहे थे, बड़ा जालिम ये पंजा है, इसे वोट नहीं देंगे, चंद्रशेखर हमारा है। बेशक, तब इंदिरा गांधी की वापसी हुई थी, लेकिन चंद्रशेखर पर बलिया ने अपना प्यार जमकर लुटाया और वे दोबारा लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन 1984 की सर्दियों में हो रहे चुनाव चंद्रशेखर के लिए गरम साबित होने जा रहे थे। बागी बलिया की धरती के जो कण-कण कभी चंद्रशेखर के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार रहता था, उसके सुर बदले हुए थे..
उन दिनों इन पंक्तियों का लेखक ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था..अपने गांव से रोजाना जिला मुख्यालय छोटी लाइन की छुकछुकिया से पढ़ने आता था..उन दिनों जारी राजनीतिक घटनाक्रम किशोर होते मन को जमकर लुभाता था...चंद्रशेखर ने बलिया संसदीय सीट से पर्चा दाखिल किया...जनता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर रेलवे लाइन से उत्तर स्थित जिला कलेक्ट्रेट में पर्चा दाखिल करने के बाद चंद्रशेखर रेलवे लाइन के दक्षिण स्थित रामलीला मैदान पहुंचे। भीड़ तो तब भी वैसी ही जुटी थी, जैसी 1977 और 1980 के चुनावों के वक्त उनके लिए जुटती थी, लेकिन इस बार भीड़ का रंग बदला हुआ था। चंद्रशेखर के आशंकित विरोध को देखते हुए प्रशासन ने एहतियाती इंतजाम कर रखे थे..
चंद्रशेखर मंच पर पहुंचे। उनके सहयोगियों ने उनका फूलमालाओं से स्वागत किया। चुनावी स्वागत भाषणों के बाद चंद्रशेखर ने बोलना शुरू किया। खादी मटका का कुर्ता, उस पर पहने जैकेट और कंधे पर बेतरतीबी से पड़ी चादर को संभालते हुए चंद्रशेखर ने बलिया का अभिवादन किया। फिर वे सफाई देने लगे...ऑपरेशन ब्लू स्टार के बारे में दिए अपने बयान पर उन्होंने सफाई देनी शुरू की, कुछ लोग मेरी आलोचना कर रहे हैं कि मैंने स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने का विरोध किया है..मैंने विरोध किया है, लेकिन मैंने क्या गलत कहा है। जिस सिख कौम के लिए गुरु अर्जुन देव को अपने शीश का बलिदान देना पड़ा, जिस सिख कौम की रक्षा के लिए गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया गया, जिसके लिए बंदा बहादुर ने अपनी जान की बाजी लगा दी, उस सिख धर्म के पवित्र स्थल स्वर्ण मंदिर में सेना भेजना कहां तक सही है। चंद्रशेखर को लंबा बोलना था, लेकिन बलिया की वह भीड़ बागी हो गई। लोगों ने भोजपुरी और हिंदी– दोनों में चंद्रशेखर की मलामत शुरू कर दी..नीचे से आवाजें आने लगीं, गलत बोल रहे हैं...बिलकुल गलत बात...रामलीला मैदान के हर कोने से विरोध के सुर उठने लगे...इसी बीच किसी ने नारा लगाया, 'भिंडरावाले वापस जाओ, वापस जाओ।' थोड़ी देर में रामलीला मैदान इसी नारे से गूंज उठा। उन दिनों पंजाब को खालिस्तानी आतंकवादी जनरैल सिंह भिंडरावाले ने खून से रंग रखा था। ऑपरेशन ब्लू स्टार में सेना ने उसे मार गिराया था। तब लोग चंद्रशेखर के खिलाफ अपने गुस्से के इजहार के लिए उसी का सहारा ले रहे थे।
माहौल तनावपूर्ण होने लगा। लोगों की उत्तेजना को देख मंच को पीएसी के जवानों ने घेर लिया। चंद्रशेखर का भाषण पूरा नहीं हो पाया। चार साल पहले तक जो बलिया उन्हें आपातकाल की काली अंधेरी रात का चमकता चांद बताते नहीं अघाता था, उसी बलिया ने अपना लोकतांत्रिक फैसला उसी दिन लिख दिया था। जब चुनाव नतीजे आए तो चंद्रशेखर कांग्रेस के उम्मीदवार जगन्नाथ चौधरी के हाथों 54 हजार 940 मतों से अपनी सीट गंवा चुके थे।
1980 में उन्होंने देशव्यापी यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान उन्हें रचनात्मक कार्यों के लिए स्थानीय स्तर पर जमीनें दान में मिली थीं। हरियाणा के गुड़गांव (अब गुरुग्राम) जिले के भोंडसी में भी ऐसे ही मिली जमीन पर उन्होंने आश्रम बनाया। यह बात और है कि बाद में यह दान विवादों में पड़ा और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उन्हें इस जगह को खाली करना पड़ा, लेकिन जिस तरह गांधीजी को साबरमती का संत कहा जाता था, उसी तर्ज पर बलिया के लोग उन्हें साबरमती का संत कहा करते थे। भोंडसी के संत का सम्मान फिर लौटा। मिस्टर क्लीन राजीव गांधी की सरकार पर बोफोर्स सौदे की दलाली का जो आरोप लगा, वह कांग्रेस के लिए बड़ा दाग साबित हुआ। इस दाग के चलते 1989 में हुए चुनावों में नए बने जनता दल के प्रत्याशी के तौर पर चंद्रशेखर को बलिया से जीत मिली। तब देश का एक तबका और उससे ज्यादा बलिया के लोग उन्हें भावी प्रधानमंत्री मान रहे थे। चुनाव बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह किस तरह प्रधानमंत्री बने, वह इतिहास में दर्ज हो चुका है। लेकिन वीपी और चंद्रशेखर के बीच दीवार बन गई। जब 1990 में रथयात्री लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में लालू यादव की सरकार ने गिरफ्तार कर लिया तो सरकार को समर्थन दे रही भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद जनता दल दो फाड़ हो गया। 54 सांसदों के साथ अलग होकर चंद्रशेखर ने समाजवादी जनता पार्टी बना ली और कांग्रेस के समर्थन से दिसंबर 1990 में प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन उनकी सरकार महज चार महीने ही चल पाई थी कि कांग्रेस ने राजीव गांधी की जासूसी के आरोप में सरकार से समर्थन वापस ले लिया और उनकी सरकार गिर गई।
जनता दल के बंटवारे के बाद चंद्रशेखर ने समाजवादी जनता पार्टी बनाई, जिसके झंडे तले तब की गुजरात की चिमनभाई पटेल और उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार आई। तब राम मंदिर आंदोलन अपने पूरे उफान पर था। अयोध्या में गोली चलाने को लेकर लोग मुलायम के खिलाफ गुस्से से भरे हुए थे। बलिया के लोग चंद्रशेखर के खिलाफ गुस्से से इस बात को लेकर भी भरे थे कि उन्होंने मुलायम सिंह यादव को सरपरस्ती दी है। इसी दौरान बलिया के पुलिस लाइंस के मैदान में एक जनसभा हुई। बलिया के छात्रों ने चंद्रशेखर और मुलायम के विरोध की रणनीति बनाई। तब तक इन पंक्तियों का लेखक एमए पहले साल विद्यार्थी हो चुका था और जिला मुख्यालय पर ही पढ़ाई कर रहा था। छात्रों के आशंकित विरोध की भनक प्रशासन को लगी तो जनसभा स्थल की सुरक्षा बढ़ा दी गई। बलिया ने पहली बार देखा कि पेन, साइकल के ताले की चाबी, घर की चाबी जैसी चीजें भी सभा स्थल पर जाने वाले लोगों से पुलिस ने बाहर रखवा लिया। दोपहर को सभा होनी थी। तारीख याद नहीं है, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, सभा निर्धारित वक्त से कुछ देर से शुरू हुई। आसमान से दो हेलीकॉप्टर उतरे। एक से चंद्रशेखर उस दौर के अपने स्वास्थ्य मंत्री शकीलुर्रहमान के साथ उतरे और दूसरे से मुलायम सिंह यादव। माहौल में तनाव को तब आसानी से भांपा जा सकता था।
थोड़ी देर में सभी नेता मंच पर पहुंचे। उनके भाषण भी शुरू हुए, इसी बीच मैदान से एक जूता मंच की ओर उछाला गया। मुलायम सिंह यादव के विरोध में उछला यह जूता विरोधियों की रणनीति का हिस्सा था। इसके बाद तो कुछ और जूते और चप्पल मंच की तरफ निशाना करके फेंके गए। इसके बाद तो माहौल में तारी लोगों का गुस्सा जैसे बाहर आ गया। तकरीबन हर तरफ से जूते और चप्पलों की मंच को निशाना बनाकर बरसात होने लगी। ऐसे माहौल में चंद्रशेखर ने खड़े होकर लोगों को डांटने और समझाने की कोशिश की, लेकिन जूते-चप्पलों की बरसात नहीं रूकी। हक्के-बक्के प्रशासन और पुलिस ने लाठियों की बौछार शुरू की। इसी दौरान किसी का जूता शकीलुर्रहमान के सिर में लगा। उनके सिर से खून की धारा फूट पड़ी। गुस्से में चंद्रशेखर यह कहते हुए मंच से उतर गए कि ऐसे बलिया में कभी विकास नहीं हो सकता।
इस घटना के ठीक डेढ़ साल पहले विपक्षी एकता के बाद 1989 की गर्मियों में बलिया के टाउन डिग्री कॉलेज के मैदान में सभा हुई थी, जिसमें मंच पर अजित सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, रामधन और राजकुमार राय मौजूद थे। शाम को हुई सभा में जब लोग हंगामा करने लगे तो चंद्रशेखर मंच पर खड़े हो गए थे और बलिया के लोग तब शांत हो गए थे। उसी बलिया के लोगों ने डेढ़ साल बाद ही उनके खिलाफ इस तरह गुस्सा निकाला था। गुस्सा तो उनके खिलाफ 1996 की गर्मियों में भी निकला। तब भारतीय जनता पार्टी अपने उभार पर थी। जार्ज फर्नांडीस के अनुरोध पर तब बलिया में भारतीय जनता पार्टी ने अपना उम्मीदवार नहीं दिया था। जनता पार्टी के दो फाड़ होने के बाद जार्ज फर्नांडीस संभवत: पहली बार भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय गए थे।
इस लिहाज से देखें तो चंद्रशेखर 1996 की जीत में भारतीय जनता पार्टी का भी सहयोग था लेकिन जब अटलजी की तेरह दिनी सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए चंद्रशेखर ने यह कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि अटलजी ने सरकार क्यों बनाई तो बलिया चिढ़ गया। संसद सत्र के बाद जब वे बलिया लौटे तो दुबहड़, हल्दी और बैरिया में उनके खिलाफ जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुआ। दुबहड़ में तो छात्रों ने उनके काफिले पर पथराव तक किया।
चंद्रशेखर की सबसे बड़ी खासियत थी उनके बेबाक बोल। जब 1965 की जनवरी में वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से कांग्रेस में शामिल हुए तो उनसे इंदिरा गांधी ने पूछा था, आप कांग्रेस में क्या करेंगे?
कांग्रेस को समाजवादी बनाऊंगा। चंद्रशेखर का जवाब था।
तब इंदिरा ने उनसे पूछा था, अगर ऐसा नहीं हुआ तो?
मैं कांग्रेस को तोड़ दूंगा। चंद्रशेखर का यह बेधड़क जवाब था।
उनकी यह बेधड़की एक दौर में इंदिरा को आकर्षित करती रही तो बाद में आपातकाल में उन्हें तिहाड़ में भेजने का कारण बनी।
इंदिरा ने जब जयप्रकाश नारायण के खिलाफ अभियान चलाना शुरू किया तो चंद्रशेखर ने उन्हें आगाह करते हुए कहा था कि यह देश संतों के खिलाफ अभियान बर्दाश्त नहीं करता। जेपी संत हैं, लेकिन इंदिरा गांधी नहीं मानीं और देश ने उन्हें उखाड़ फेंका। चंद्रशेखर ने 1974 के आंदोलन के दौरान जेपी के साथ आ रहे लोगों को लेकर उन्हें पत्र लिखकर चेताया था। उन्होंने लिखा था कि जो लोग आपके साथ आंदोलन में आ रहे हैं, दरअसल वे व्यवस्था बदलने नहीं, सत्ता के लिए आ रहे हैं। आने वाले दिनों में वे सिर्फ अपनी-अपनी जातियों के नेता साबित होंगे। उनकी इस दूरदर्शिता का अंदाजा लालू और मुलायम की कुनबा परस्ती और जातिवादी राजनीति को देखकर लगाया जा सकता है। यह बात और है कि बाद के दौर में चंद्रशेखर इन्हीं लोगों के सहारे राजनीति भी करते रहे। पहले समाजवादी पार्टी के महत्वपूर्ण स्तंभ रहे और अब बहुजन समाज पार्टी के नेता बलिया निवासी अंबिका चौधरी एक दौर में चंद्रशेखर के सहयोगी थे। अंबिका चौधरी कहा करते हैं कि चंद्रशेखर कहा करते थे कि विकास से राजनीति नहीं होती।
इसी सोच को लेकर चंद्रशेखर दूरदर्शिता मात खा गई। 2003 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही पूरी राजनीति विकास केंद्रित होती चली गई है। हो सकता है कि अभी इस मोर्चे पर खास सफलता नहीं मिली हो। बहरहाल चंद्रशेखर अपने बेधड़क मिजाज, बिंदास बोल और राजनीति में खरी-खरी कहने के लिए सदा याद किए जाएंगे।