तो यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे...

राम यादव

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015 (12:20 IST)
जर्मनी में वे पोस्टर और बैनर अब ग़ायब होते जा रहे हैं, जिन पर ''रेफ्यूजीस वेल्कम'' (शरणार्थियों का स्वागत है) लिखा होता था।  कल तक जिन शरणार्थियों को सत्कारा जा रहा था, आज उन्हें दुत्कारा जा रहा है। दुत्कारने वाले सिरफिरे या घोर दक्षिणपंथी तो हैं ही, पढ़े-लिखे, सफ़ेदपोश मध्यवर्गी और भद्रजन भी कुछ कम नहीं हैं।

कोलोन की मेयर को छुरा भोंका : ऐसे ही एक व्यक्ति के हमले से जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन की मेयर हेनेरियेटे रेकर तो मरने से बाल-बाल बचीं। मेयर के पद के लिए 18 अक्टूबर को हुए चुनाव से एक ही दिन पहले, शहर के एक व्यस्त चौक पर लगे बाज़ार में चुनाव-प्रचार करते समय, 44 साल के एक बेरोज़गार दक्षिणपंथी ने उनकी गर्दन में छुरा भोंक दिया और उन्हें बचाने के लिए दौड़े चार अन्य लोगों को भी घायल कर दिया। सौभाग्य से डॉक्टरों ने श्रीमती रेकर की जान किसी तरह बचा ली। आततायी को यह बात रास नहीं आ रही थी कि श्रीमती रेकर शरणार्थियों के पक्ष में बोलती और काम करती हैं।
 

स्थिति यह है कि जर्मनी के अनगिनत छोटे-बड़े नेता और अनेक शहरों के मेयर जान लेने की धमकियों के बीच जी रहे हैं। क़रीब ढाई सौ शहरों के मेयर एक साझे पत्र में केंद्र सरकार से कुछ करने और लाखों शरणार्थियों की अनवरत बाढ़ रोकने की गुहार लगा चुके हैं। चांसलर मेर्कल की अपनी पार्टी के कम से कम 35 सांसद भी यही मांग कर चुके हैं। यहां तक कि चांसलर मेर्कल के सबसे विश्वस्त सहयोगी कहलाने वाले वित्तमंत्री शौएब्ले और गृहमंत्री देमेज़ियेर भी कई बार उन्हें संकेत दे चुके हैं कि वे उनकी शरणार्थी नीति को देश के लिए हितकारी नहीं समझते। जनता और मीडिया का रुख भी समय के साथ सरकार के प्रति आलोचनात्मक होता जा रहा है। मीडिया वाले शुरू-शुरू में एक स्वर से सरकार-समर्थक राग अलाप रहे थे।

गुप्तचर सेवाएं भी चिंतित : स्वयं देश की गुप्तचर सेवाएं भी जनता के बीच व्यापक अशांति की आशंका से बेचैन होने लगी हैं। जर्मनी के संघीय अपराध निरोधक कार्यालय 'बीकेए' के अध्यक्ष होल्गर म्युइन्श ने 29 अक्टूबर को चेतावनी दी कि शरणार्थियों की अनवरत बाढ़ से ''आंतरिक सुरक्षा को ख़तरा उत्तरोत्तर बढ़ रहा है।'' फ़ोकस नाम की जर्मन पत्रिका के साथ एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा, ''शरणार्थियों की संख्या बढ़ने के साथ ही (आंतरिक) सुरक्षा की स्थिति भी विकट होती जा रही है।

स्वयं शरणार्थियों के बीच झगड़े-तकरार बढ़ रहे हैं और (देश के) दक्षिणपंथी शिविर का मूड और भी गरम होने लगा है। इस बदलाव की गतिशीलता से मुझे बड़ी चिंता हो रही है।'' म्युइन्श की यह उत्कट कामना सरकार के नाम थी कि ''हमें जल्द से जल्द सामान्य परिस्थितियां लानी और टिकाऊ संरचनाएं बनानी होंगी।''
 

आम लोगों को यह भी शिकायत है कि जहां कही  शरणार्थियों को ठहराया जाता है, वहां गंदगी, शोर-शराबा और जर्मन लड़कियों तथा महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ और बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं। 


अपराध निरोधक कार्यालय के नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि अकेले 2015 में 7 दिसंबर तक  शरणारर्थी ठहराए जाने की जगहों पर 817 हमले हो चुके हैं, जिनमें से 733 दक्षिणपंथी अतिवादियों के खाते में जाते हैं। 2014 की तुलना में दोनों आंकड़े चार गुनी वृद्ध के बराबर हैं।

मारपीट की इस वर्ष 130 और आगज़नी की 68 घटनाएं हो चुकी हैं। जर्मन साप्ताहिक 'दी त्साइट' की एक खोजी टीम ने पाया कि इस साल नवंबर के अंत तक शरणार्थियों को ठहराए जाने के 222 ठिकानों पर ''उन्हें नुकसान पहुंचाने, घायल करने या मार डालने के इरादे से हमले हुए।'' यह संयोग की ही बात है कि इन हमलों में बहुत से शरणार्थी घायल तो हुए हैं, पर अभी तक कोई मरा नहीं है।

अधिकतर शरणार्थी अधकचरी आयु के अकेले नौजवान हैं, इसलिए आम लोगों को यह भी शिकायत है कि जहां कही उन्हें ठहराया जाता है, वहां गंदगी, शोर-शराबा और जर्मन लड़कियों तथा महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ और बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं।

लेकिन, जर्मन अपराध निरोधक कार्यालय के प्रमुख होल्गर म्युइन्श को कही अधिक चिंता इस बात से है कि अब तक 100 से अधिक नए इस्लामी आतंकवादियों की भनक और 40 ऐसे प्रयासों की झलक मिली है, जिनमें जर्मनी में रहने वाले सलाफ़ी (सुन्नी कट्टरपंथी) नए आए शरणार्थियों पर डोरे डालने में लगे थे। 

पेरिस में 13 नवंबर को हुए आतंकवादी हमलों के बाद जिन दो आतंकवादियों के पासपोर्ट मिले, वे भी शरणार्थी ही बन कर आए थे और तुर्की, ग्रीस, मेसेडोनिया तथा सर्बिया होते हुए पेरिस पहुंचे थे। अगले पन्ने पर... तो यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे... 

चांसलर मेर्कल का भी माथा ठनका : इन बातों से चांसलर मेर्कल का भी माथा अब ठनकने लगा है कि शरणार्थियों को जर्मनी आने का खुला निमंत्रण देकर उन्होंने साहस की जगह दुस्साहस का परिचय दिया है। उनके इरादे जितने नेक हैं, परिणाम उतने ही नारकीय हो सकते हैं। स्वयं उनकी ही पार्टी में उनके प्रति समर्थन बर्फ की तरह पिघलने लगा है। उनकी कुर्सी हिल रही है। इसलिए वे ऐसे उपाय ढूंढने लगी हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। यानी, शरणार्थिंयों को आने से नहीं रोकने की उनकी बात भी रह जाए और शरणार्थिंयों की आवक भी घट जाए।  

 ''यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे कि वे अपने ही महाद्वीप पर अल्पमत हो गए हैं।''
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनएचसीआर) के अनुसार, यूरोपीय संघ में अकेले सीरिया (38%), अफ़ग़ानिस्तान (12%) और पाकिस्तान (9%) के शरणार्थियों की संख्या ग़रीबी, अराजकता और कबीलाई कलह के लिए बदनाम अफ्रीकी देशों के शरणार्थियों से भी अधिक है। यूरोप आ रहे 92% शरर्णार्थी मुसलमान हैं।


ऐसा तभी हो सकता है, जब तुर्की को कुछ ले-दे कर पटाया जाए। पाकिस्तान से लेकर सीरिया और इराक तक के सभी शरणार्थी तुर्की में ही उन मानव-तस्कर दलालों के चुंगुल में फंसते हैं, जो उन्हें यूरोप पहुंचाने का सब्ज़बाग दिखाते हैं। ये तस्कर मोटी-मोटी रकमें लेकर इन शरणार्थिंयों को हवा भरी उन लचीली नौकाओं पर भेंड़-बकरियों की तरह लाद देते हैं, जो मौसम और भाग्य यदि  साथ देता है तो उन्हें एजियन सागर में तुर्की के निकटवर्ती ग्रीक द्वीपों तक पहुंचा देती हैं।

वहां  से कभी पैदल मार्च करते तो कभी बसों-ट्रेनों में धक्के खाते, दक्षिण-पूर्वी यूरोप के देशों में अटकते-भटकते, एक दिन वे जर्मनी की दक्षिणी सीमा पर पहुंचते हैं। तुर्की यदि मन बना ले, तो वह हर दिन हज़ारों शरणार्शियों की इस तस्करी को रोक सकता है। पर, वह फ़िलहाल रोक नहीं रहा है। मूलतः एक एशियाई मुस्लिम देश होते हुए भी तुर्की पर दशकों से यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की सनक सवार है। वह एक यूरोपीय देश कहलाने को बेचैन है। जर्मनी ही उसकी राह का रोड़ा बना हुआ था। ईसाइयत की प्रधानता वाले यूरोपीय संघ से उसे परे रख रहा था।

तुर्की करेगा मेर्कल का उद्धार!! : लेकिन, आब क्योंकि जर्मनी को ही गरज पड़ गई है, इसलिए चांसलर मेर्कल तुर्की के परले दर्जे के महत्वाकांक्षी राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन को कुछ ले-दे कर मनाने के विचार से 18 अक्टूबर को अंकारा पहुंच गयीं। एर्दोआन के आगे घुटने टेकते हुए प्रस्ताव रखा कि तुर्की यदि यूरोपीय संघ की बाहरी सीमाओं की रक्षा में सहयोग दे यानी नए शरणार्शियों को अपनी भूमि पर से होकर यूरोप जाने से रोकने और यूरोपीय देशों द्वारा लौटाए गए शरणार्थियों को वापस लेने के लिए राज़ी हो जाए तो तुर्की के नागरिकों को बिना वीसा यूरोपीय संघ के देशों की यात्रा करने की सुविधा 2016 से ही लागू की जा सकती है।

साथ ही तुर्की की जेब भी गरम की जा सकती है, राष्ट्रपति एर्दोआन की अलोकतांत्रिक स्वेच्छाचारिता की अनदेखी कर उन्हें यूरोपीय संघ के किसी शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया और यूरोपीय संघ में तुर्की की सदस्यता के लिए वार्ताओं को पुनः शुरू भी किया जा सकता है।

एर्दोआन जानते हैं कि जर्मनी और उसके वर्चस्व वाले यूरोपीय संघ को दोनों हाथ दुहने का यही सुनहरा मौका है। अतः उन्होंने अपनी संभावित सेवाओं के लिए इन सारी सुविधाओं के अलावा कम से कम सात अरब यूरो की मांग की, जिनमें से तीन अरब यूरो उन्हें तत्काल चाहियें। पहली नवंबर को तुर्की में दुबारा हुए संसदीय चुनवों से ठीक पहले चांसलर मेर्कल की इस यात्रा से एर्दोआन के अघोषित यूरोपीय बहिष्कार का न केवल अंत हुआ, स्वदेश में उनका कद और भी ऊंचा हो गया। उनकी पार्टी को इस बार वह पूर्ण बहुमत भी मिल गया, जिस के बल पर वे तुर्की को राष्ट्रपति की सत्ता वाली शासन प्रणाली में बदल सकते हैं।

30 नवंबर को अंकारा में यूरोपीय संघ और तुर्की के बीच उस सौदेबाज़ी पर हस्ताक्षर भी हो गए, जिसके लिए चांसलर मेर्कल बहुत लालायित थीं। इस तरह नए शरणार्थिंयों की आवक को रोकने का काम कुछ ही महीनों में तुर्की संभाल लेगा और चांसलर मेर्कल गर्व से आगे भी कह सकेंगी कि जर्मनी ने तो अपने दरवाज़े बंद नहीं किये हैं।

शरणार्थी घटेंगे, तुर्क बढ़ेंगे: शरणार्थिंयों का आना तो संभवतः कम हो जाएगा, पर वीसा लेने की अनिवार्यता नहीं रह जाने से तुर्क नागरिकों का आना कहीं बढ़ जाएगा। तुर्की यदि कभी यूरोपीय संघ का सदस्य बन गया, तो उसके नागरिकों को भी संघ के देशों में कहीं भी रहने-बसने और नौकरी-धंधा करने का अधिकार मिल जाएगा। तब तुर्की ही यूरोपीय संघ में सबसे अधिक और सबसे तेज़ गति से बढ़ती हुई जनसंख्या वाला देश कहलाएगा। उसी की सेना सबसे बड़ी सेना होगी और यूरोप की सरकार के समान यूरोपीय आयोग में उसी के सबसे अधिक आयुक्त भी होंगे।

''यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे'' : ठीक इस समय भी पश्चिमी यूरोप के लगभग सभी देशों में तुर्क प्रवासियों का समुदाय सभी विदेशियों के बीच सबसे बड़ा समुदाय है। यूरोप के दक्षिणपंथी पहले से ही कहते रहे हैं कि तुर्की यूरोप के इस्लामीकरण का अगुआ है। वे आरोप लगाते हैं कि 1529 और 1683 में ऑस्ट्रियन साम्राज्य की राजधानी वियेना का घेराव करने के बावजूद जो यूरोप तुर्की के हाथ नहीं लग सका, उसी यूरोप के नेता इस महाद्वीप को तुर्की के कदमों पर भेंट चढ़ाने जा रहे हैं।

हंगरी के प्रधानमंत्री विक्तोर ओर्बान की भी यही भविष्यवाणी है कि ''यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे कि वे अपने ही महाद्वीप पर अल्पमत हो गए हैं।'' संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनएचसीआर) के अनुसार, यूरोपीय संघ में अकेले सीरिया (38%), अफ़ग़ानिस्तान (12%) और पाकिस्तान (9%) के शरणार्थियों की संख्या ग़रीबी, अराजकता और कबीलाई कलह के लिए बदनाम अफ्रीकी देशों के शरणार्थियों से भी अधिक है। यूरोप आ रहे 92% शरर्णार्थी मुससमान हैं।

ऐसे में यूरोप में अपनी सरकारों से असंतुष्ट लोग यह भी पूछते हैं कि इस्लामी देशों के शरणार्थियों को शरण देना और उन पर अरबों डॉलर ख़र्च करना ईसाई यूरोप का ही कर्तव्य क्यों होना चाहिये? पेट्रो डॉलर के धनी साउदी अरब, खाड़ी की अमीरातों या ''इस्लामी क्रांति'' के जन्मदाता रहे ईरान को अपने इन मुसलमान भाइयों के भले की चिंता क्यों नहीं सताती? यह भी किसी की समझ में नहीं आता कि इस्लामी जगत के वही लोग, जो यह कहते नहीं थकते कि यूरोप-अमेरिका इस्लाम के दुश्मन हैं, उसे मिटा देना चाहते हैं, जो हर गाहे-बगाहे पश्चिमी देशों के विरुद्ध उग्र प्रदर्शन करते हैं, वे अपनी जान बचाने या जीवन संवारने के लिए पश्चिम के उसी यूरोप-अमेरिका की तरफ भला क्यों भागते हैं? यूरोप-अमेरिका में पैर रखना तो उनके लिए पाप होना चाहिये!

कहने की आवश्यकता नहीं कि जर्मनी और यूरोप पर टूट पड़ी शरणार्थी समस्या जितने प्रश्न उठाती है, उतने उत्तर साउदी अरब को छोड़ कर किसी के पास नहीं हैं। साउदी अरब के पास हर प्रश्न का एक ही उत्तर है मस्जिदें। उसने जर्मनी आ रहे शरणार्थिंयों के लिए 200 मस्जिदें बनवा कर देने की पेशकश की है! 
इस लेख का पहला भाग पढ़ना न भूलें, जर्मनी को चाहिए अब शरणार्थियों से शरण.. 

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