बिना देखे विरोध प्रदर्शन का औचित्य

फिल्में अभिव्यक्ति और मनोरंजन की माध्यम होती है। इनको इसी रूप में लेना चाहिए। इतिहास के चरित्र अपनी जगह पर होते हैं। फ़िल्म से उसे बदला नहीं जा सकता, लेकिन विरोध से उसे प्रचार अवश्य मिल जाता है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में प्रचार का बड़ा महत्व होता है। किसी फिल्म का विरोध जितना अधिक होता है, वह प्रचार में उतना ही आगे निकल जाती है। एक बार फिर यही हो रहा है।
 
 
संजय लीला भंसाली की फ़िल्म के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। सिनेमा को लेकर अक्सर ऐसा होता रहा है। कई बार विवादों के चलते फिल्में हिट भी रही हैं। उसके कई उदाहरण भी रहे हैं। आशुतोष गोवारिकर की साल 2008 में आई फिल्म 'जोधा अकबर' को लेकर भी बहुत बवाल हुआ था। ऐश्वर्या राय और रितिक रोशन की फिल्म को राजस्थान में राजपूतों ने गोवारिकर पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगाकर फिल्म की स्क्रीनिंग को रोक दिया था।
 
 
2013 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गोलियों की रासलीलाः रामलीला' भी काफी विवादों में रही है। इस फिल्म में रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण मुख्य किरदार में थे। भंसाली, दीपिका और रणवीर पर एफआईआर दर्ज करवाने के बाद इसका नाम बदल दिया गया था। पहले फिल्म का नाम 'रामलीला' था।
 
इससे पहले 2015 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' पर भी इतिहास से छेड़छाड़ और भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लग चुका है। 'बाजीराव मस्तानी' के रिलीज के समय इस फिल्म का पुणे में जमकर विरोध हुआ था। 'पीके' पर भी धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप लगा था। फिल्म में धर्मों के कुछ रीति-रिवाजों को अंधविश्वास के तौर पर दिखाया गया था, लेकिन विरोध के बावजूद यह फिल्म हिट रही थी।
 
 
विरोध अब प्रचलन बन चुका है। कौन सी कहानी कब परोसनी है,यह जनता नहीं कुछ मुट्ठीभर लोग तय करते हैं। उससे वह अपनी सस्ती लोकप्रियता का परिचय देते हैं। ऐसा नहीं कि यह पहली फिल्म है। कई बार हो चुका है, कई फिल्मों को विरोध का सामना करना पड़ा, जबकि उनकी कहानी सामान्य ही होती है। फिल्में हमेशा अपनी कला और अभिनय की वजह से समाज में कुछ ना कुछ संदेश देती हैं, लेकिन बिना मतलब किसी विचारधारा के नाम फिल्म को रोका जाना उसकी कला के साथ खिलवाड़ करना माना जाएगा। इसलिए पहले देखें, फिर विरोध करें।
 
 
फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली बार-बार अपनी फिल्म के बारे में सफाई दे चुके हैं। उन्होंने कहा, पहले देख लें लोग, फिर विरोध करें, लेकिन लोग कहां मानेंगे। इससे उनकी विचारधारा का टकराव होता है। इसका सीधा फायदा राजनीतिक दलों को होने वाला है, क्योंकि कुछ लोग विरोध करेंगे, कुछ पैरोकार बनेंगे। फायदा राजनीतिक दलों को होता है। नुकसान तो आम दर्शकों को होता है। फिल्म बनाने वाले को भी तनाव से गुजरना पड़ता है।
 
 
अखिर क्या कहानी होगी कौनसा इतिहास उस फिल्म में गढ़ा गया है, यह तो फिल्म देखने के बाद ही पता चलेगा। बॉलीवुड में इतिहास से जुड़े किरदारों या किसी घटना पर आधारित फिल्में समय-समय पर बनती रही हैं और खूब चली भी हैं। अपवाद छोड़ दें तो फिल्म मनोरंजन के लिए बनती हैं। ऐसा भी नहीं कि फ़िल्म की कहानी से नया इतिहास बन जाएगा। ऐसे में फ़िल्म को मनोरंजन के तौर पर ही लेना चाहिए। सड़कों पर चलने वाला विरोध प्रदर्शन अंततः फ़िल्म का मुफ्त में प्रचार करने वाला साबित होता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है।

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