देश को मिली आजादी के बाद से पहली बार मुस्लिम बाहुल्य राज्य जम्मू-कश्मीर में संघ का दो दिवसीय अखिल भारतीय प्रचारक सम्मेलन संपन्न हो गया है। इसका समापन 20 जुलाई को हुआ है। इस सम्मेलन में जिन दिग्गज हस्तियों ने शिरकत की थी उनमें संघ प्रमुख मोहन भागवत, वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी, दत्तात्रेय होसबोले, कृष्ण गोपाल शामिल थे। इनके अलावा 195 प्रचारक, संघ से संबद्ध सभी संगठनों के प्रमुख और शीर्ष नेताओं की मौजूदगी रही।
काबिलेगौर हो कि यह अखिल भारतीय प्रचारक सम्मेलन अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले और कश्मीर में बिगड़ते सुरक्षा हालात और बढ़ते आतंकवाद की पृष्ठभूमि में हुआ है। इस मौके पर देश के हालात समेत कई गंभीर व ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा हुई। इस दौरान हिन्दुत्व, गौरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा, बंगाल के हालात पर विशेष रूप से चर्चा हुई।
सम्मेलन के समापन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने जम्मू में संवाददाताओं से बात करते हुए कहा कि बैठक में अनेक मुद्दों पर विचार- विमर्श हुआ। वैद्य ने सबसे पहले हिन्दुत्व के बारे में कहा कि देश की पहचान ही हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व किसी भी अन्य धर्म के खिलाफ नहीं है। यह सभी के कल्याण के दर्शन में विश्वास रखता है।
इसके साथ ही गोरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा के संबंध में वे स्पष्ट बोले कि यह गलत है। संघ ने कभी भी किसी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया है। इस पर राजनीति करना और समाज के एक हिस्से को नीचा दिखाना- यह कतई ठीक नहीं है। सही मायने में कानून को अपना काम करना चाहिए। इसे संघ से जोड़ने की बजाए कानूनी कार्रवाई करना चाहिए। गोरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा को संघ से जोड़ने के बजाए हिंसकों पर दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। दोषियों को दंड देना चाहिए।
गोरक्षा के नाम पर हिंसा और पीट-पीटकर हो रहीं हत्या की घटनाओं से जुड़े सवालों के जवाब में वे बोले कि संघ किसी भी तरह की हिंसा का समर्थक नहीं है। हमने पहले भी यह कहा है। गोरक्षा एक अलग मुद्दा है। गोरक्षा का अभियान है, जो सैकड़ों वर्षों से चल रहा है। हम गोरक्षा से जुड़ीं घटनाओं का राजनीतिकरण किए जाने की बजाय उन पर रोक लगाने की मांग भी करते हैं। विपक्ष तथाकथित गोरक्षकों द्वारा हत्याएं करने के मुद्दे पर संसद में सरकार को घेरने की न केवल नाजायज कोशिश कर रहा है बल्कि इसका राजनीतिकरण करने का प्रयास भी कर रहा है। इसके साथ ही वैद्य ने ये आरोप भी लगाया कि मीडिया इस तरह की घटनाओं को एक विचारधारा से जोडऩे की कोशिश करता रहता है।
इस मौके पर वैद्य उन मीडिया रिपोर्ट्स पर चर्चा करने से भी नहीं चूके जिनके मुताबिक पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने कथित तौर पर संघ को आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की थी। वे इस बारे में बोले कि पूर्ववर्ती सरकार ने राजनीतिकरण कर संघ को इसमें घसीटने का घिनौना काम किया था, जो सरासर गलत था। अब पूर्ववर्ती सरकारों का पर्दाफाश हो गया है। संघ एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है या आतंकवादी संगठन, अब सब कुछ जनता के सामने है।
इसके साथ ही वैद्य ने बताया कि सम्मेलन में बंगाल के हालात पर भी चर्चा हुई है। बंगाल में हिन्दू खौफ में जी रहे हैं, वहां उन्हें निशाना बनाया जा रहा है और सरकार खामोश बैठी है। यह एक गंभीर मुद्दा है। संघ ने मार्च के सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर इसकी निंदा की थी लेकिन वहां हालात जस के तस हैं, सुधरे नहीं हैं।
बहरहाल, संघ और मोदी सरकार देश में गौरक्षा के नाम पर जो हिंसाएं हुई हैं, उनके संबंध में कितनी भी दलीलें दे लेकिन सच कुछ और ही है। इन हिंसाओं में मारे गए बेगुनाह लोगों के कारण संघ और केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार की देश-दुनिया में अब तेजी से किरकिरी होने लगी है। इसी के चलते सरकार और संघ को अपना पक्ष जनता के सामने रखना पड़ रहा है।
साख पर दाग लगते देख न केवल प्रधानमंत्री ने गौहत्या के नाम पर हिंसा करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की बात की है। जब पानी सिर के ऊपर चढ़ने लगा और देश में माहौल बेकाबू होने लगा तो 29 जून को गुजरात के अहमदाबाद में पीएम मोदी को कहना पड़ा कि 'गौभक्ति के नाम पर हत्या को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। किसी को भी अपने हाथ में कानून लेने का अधिकार नहीं है।' अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य को भी इस मामले में अपना पक्ष रखना पड़ा।
सनद रहे कि इस समय देश में गाय से जुड़ी हिंसा के आधे से ज्यादा मामले (करीब 52 प्रतिशत) झूठी अफवाहों की वजह से घटित हुए हैं। हिंसा के ये मामले केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद बहुत तेजी से बढ़े हैं। 8 साल में गाय के नाम पर हिंसा में मरने वाले 86 प्रतिशत मुसलमान हैं।
काबिलेगौर हो कि 97 फीसदी घटनाएं मोदी के राज में हुई हैं। 28 सितंबर 2015 को उत्तरप्रदेश में दादरी के निकट बिसेहड़ा गांव के 52 वर्षीय मुहम्मद अखलाक को इस शुबहे के आधार पर पीट-पीटकर मार डाला कि उसने अपने घर में गाय का गोश्त रखा था।
18 मार्च 2016 को झारखंड के लातेहार जिले के बालूमाथ जंगल में 32 साल के मजलूम अंसारी और 15 साल के इम्तियाज खान को इसलिए मारकर पेड़ों पर लटका दिया गया, क्योंकि वे 8 बैलों को चतरा जिले के पशु बाजार में बेचने के लिए ले जा रहे थे।
31 मार्च 2017 को हरियाणा की नूह तहसील के जैसिंघपुर गांव के दूध व्यवसायी 55 वर्षीय पहलू खान को जयपुर-दिल्ली राजमार्ग पर उस समय कथित गौरक्षकों ने पीट-पीटकर मार डाला, जब वे जयपुर से कुछ गायों को दूध के लिए खरीदकर ला रहे थे। 22 जून 2017 को हरियाणा के 15 वर्षीय जुनैद को बल्लभगढ़ के निकट ईएमयू ट्रेन से सफर के दौरान चाकू घोंपकर मार डाला गया।
ये 4 घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं कि पिछले लगभग 3 वर्षों में बीफ के शक के आधार पर या गायों की कथित रूप से तस्करी के नाम पर स्वयंभू हिन्दू गौरक्षकों की टोलियां देशभर में जो उत्पात मचा रही हैं और उन्हें रोकने के लिए सरकार की ओर से कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती है। उलटे जिन-जिन राज्यों में ये घटनाएं हुईं वहां की राज्य सरकारें पीड़ित पक्ष के खिलाफ और दोषियों के बचाव में खड़ी दिखाई दीं।
इन वीभत्स घटनाओं पर केंद्र सरकार का रवैया तो खामोश तमाशाई वाला ही रहा है। पहलू खान के मामले में तो एक केंद्रीय मंत्री ने ये बयान तक दे डाला कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं जबकि दादरी में एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने अखलाक के हत्यारों का महिमामंडन तक किया और उनके घर जाकर आर्थिक रूप से उनकी मदद भी की।
ऐसे स्याह अंधेरों में सुप्रीम कोर्ट ने जरूर रोशनी दिखाने का काम किया। उससे और उम्मीद बंधी, जब अदालत ने केंद्र सरकार समेत 5 राज्यों राजस्थान, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र और कर्नाटक को उत्पाती गौरक्षकों पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर भी अभी तक अमल नहीं हो सका है।
मालूम हो कि हाल ही में इन हिंसात्मक घटनाओं को लेकर डाटा वेबसाइट इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट भी जारी हुई है। रिपोर्ट के अनुसार साल 2010 से 2017 के बीच गोवंश को लेकर हुई हिंसा में 57 प्रतिशत पीड़ित मुसलमान रहे हैं। इस दौरान गोवंश से जुड़ी हिंसा में मारे जाने वालों में 86 फीसदी लोग भी मुसलमान ही थे। इन 8 सालों में ऐसी 63 घटनाएं हुईं जिनमें 28 भारतीयों की जान गई है।
रिपोर्ट के अनुसार साल 2017 में गाय से जुड़ी हिंसा के मामलों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। गाय से जुड़ी हिंसा के 63 मामलों में 32 बीजेपी शासित प्रदेशों में दर्ज किए गए हैं, जबकि 8 मामले कांग्रेस शासित राज्यों में दर्ज हैं, बाकी मामले दूसरी पार्टियों द्वारा शासित प्रदेशों में हुए हैं। इंडिया स्पेंड ने 25 जून 2017 तक के आंकड़ों के आधार पर ये विश्लेषण किया है।
इस समय गाय को लेकर देश में एक तरह से भय का माहौल बन गया है। इसकी वजह से आम इंसान खौफ में जी रहा है खासकर मुस्लिम और दलित। बताते चलूं कि साल 2010 से इस साल तक सबसे ज्यादा गोवंश से जुड़ी हिंसा वर्ष 2016 में ही दर्ज हुई है। इनमें भीड़ द्वारा हमला करने, गौरक्षकों द्वारा हमला करने, हत्या, हत्या की कोशिश उत्पीड़न, सामूहिक बलात्कार जैसे मामले शामिल हैं।
2 मामलों में पीड़ितों को जंजीर से बांधकर नंगा करके घुमाया और पीटा गया जबकि अन्य 2 में पीड़ित को फांसी पर लटका दिया गया। गोवंश से जुड़ी हिंसा के सबसे ज्यादा 10 मामले उत्तरप्रदेश में दर्ज किए गए हैं। इसके बाद हरियाणा में 9, गुजरात में 6, कर्नाटक में 6, मध्यप्रदेश में 4, दिल्ली में 4 और राजस्थान में 4 दर्ज हैं। इनमें से 21 प्रतिशत मामले ही दक्षिण या पूर्वी भारत (बंगाल और ओडिशा समेत) में दर्ज हैं। पूर्वोत्तर भारत में इस दौरान गोवंश से जुड़ी हिंसा का केवल 1 ही मामला दर्ज हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार 30 अप्रैल 2017 को असम में गोवंश को लेकर 2 लोगों के बीच विवाद हुआ था। इस विवाद के चलते उनकी हत्या कर दी गई।
सनद रहे कि पिछले 8 सालों में गाय से जुड़ी हिंसा के 63 मामलों में 61 मामले केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार बनने के बाद ही हुए हैं। साल 2016 में गोवंश से जुड़ी हिंसा के 26 मामले दर्ज किए गए। 25 जून 2017 तक ऐसी हिंसाओं को लेकर अब तक 20 मामले दर्ज किए जा चुके हैं।
इन दर्ज मामलों में करीब 5 प्रतिशत आरोपियों के गिरफ्तारी की कोई सूचना तक नहीं है जबकि 13 मामलों में यानी करीब 21 फीसदी में पुलिस ने पीड़ित या भुक्तभोगियों के खिलाफ ही केस दर्ज कर दिया है। मतलब साफ है कि हिंसा के शिकार बनो और उल्टे सजा काटने के लिए भी तैयार रहो। इसे ही कहते हैं अंधा कानून। खैर..।
कानूनी मामलों में होने वाली शिनाख्त तक भी ठीक है लेकिन गौरक्षकों द्वारा गुप्त बैठक करना कितना लाजिमी है? अपुष्ट सूत्रों की मानें तो बीते समय कथित तौर पर विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल के उग्र नेताओं द्वारा एक बैठक करने की बात सामने आई है। इस बैठक में पीएम मोदी की बात को हवा में उड़ाकर स्वयं मोदी और योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अभियान चलाने की बात चर्चाओं में है। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है यह जांच का विषय है। अगर यह बात सच होती तो बड़ा ही गंभीर मामला होता। चिंता का सबब बनता।
वैसे भी अब हिंसक गौरक्षकों को किसी का भी डर नहीं रह गया है। वे कानून को हाथ में लेने से भी नहीं हिचकते हैं। इसकी एक खास वजह है। अब इन उत्पातियों को लेकर केंद्र में सत्ताधारी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों का कोई बड़ा नेता ईमानदारी से इनके खिलाफ खड़ा नहीं हो रहा है। कोई कुछ असरकारी बोल तक नहीं बोल रहा है।
गुजरात हिंसा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मौजूदा प्रधानमंत्री को, जो उस समय राज्य के मुख्यमंत्री थे, राजधर्म निभाने की सलाह दी थी लेकिन आज कोई नेता ऐसी सलाह क्यों नहीं देता है? आखिर क्यों कहीं से कोई उम्मीद नजर नहीं आती है?