जाऊंगा कहां...उड़ जाऊंगा उनके संग

केदारनाथ सिंह : स्मृति शेष
 
18 जनवरी 2018 की ठंड भरी शाम...कोलकाता के बेलियाहाटा इलाके से हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार कृष्णबिहारी मिश्र से मिलकर अपने होटल लौट रहा हूं। वहीं हिंदी लेखक, पत्रकार और वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कृपाशंकर चौबे से मुलाकात हो गई है..हावड़ा के अपने घर लौटते वक्त मेरे ही साथ टैक्सी में बैठ गए हैं। सियालदह स्टेशन के पास आते ही वे फोन लगाते हैं, फोन के  दूसरी छोर पर स्थित व्यक्ति से अनुरोध करते हैं, देखीं, तनी अस्पतलवा में इंतजाम कराईं (अस्पताल में अच्छा-सा इंतजाम कराएं)..तभी पता चलता है कि केदारनाथ सिंह अस्पताल में भर्ती हैं।
 
रिटायर होने के बाद से तकरीबन हर साल जाड़े में एक महीना बिताने केदारनाथ सिंह कोलकाता में अपनी बहन के पास आते हैं। इस बार भी आएं हैं, लेकिन बरसों बाद ठंड की मार झेल रहा कोलकाता में उन्हें दिल्ली जैसी ठंड छोड़ नहीं पाई...वे बीमार हो गए हैं। कृपाशंकर चौबे से पता चलता है कि न्यूमोनिया है.. रास्ते में अस्पताल आता है और कृपाशंकर चौबे टैक्सी से उतर जाते हैं। मैं भी उतरना चाहता हूं, लेकिन मेरी फ्लाइट अल्सुबह है..फिर मुझे तेज खांसी भी है..इसलिए अस्पताल नहीं जा पाता...कृपा जी मना कर देते हैं..
 
केदारजी से आखिरी आत्मीय मुलाकात एक अक्टूबर 2017 को दिल्ली के फिरोजशाह रोड स्थित रूसी सांस्कृतिक केंद्र की झुटपुटी शाम में होती है। हमारे मित्र और केदार जी के अजीज अजित राय का जन्मदिन है...एक टेबल पर उनके बगल में वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र बैठे हैं और उनके बगल में जनसत्ता के सहायक संपादक सूर्यनाथ सिंह। सूर्यनाथ सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में केदार जी के शिष्य़ रहे हैं। मुझे देखकर वे चहक जाते हैं...भोजपुरी में बोलते हैं, काहो, इहवें मुलाकात होई (क्या यहीं मुलाकात होगी..) केदार जी का पैग खत्म हो गया है..सूर्यनाथ सिंह उनके लिए पैग लाने बार के पास जाने लगते हैं तो वे उन्हें रोक देते हैं, ए, सूर्यनाथ, उमेशो खातिर ले आव (सूर्यनाथ, उमेश के लिए भी लाओ)...मैं मुस्कुराते हुए मना कर देता हूं तो केदारजी उलाहना देते हैं, कब शुरू करब (कब शुरू करोगे)..
 
केदारजी जब भी किसी भोजपुरी भाषी से मिलते, भोजपुरी में ही बात करते। हम भोजपुरी भाषियों की एक बुरी आदत है। अगर हम कुछ सफल हो जाते हैं या अपने इलाके के जिला स्तरीय शहरों में भी रहने लगते हैं, भोजपुरी को अपनी जुबान से हटाने लगते हैं। लेकिन केदार जी अलग थे। अच्युता जी हों या अजित राय, मैं रहूं या मेरी पत्नी, सबसे भोजपुरी में ही बात करते थे..कहते थे, तहन लोग के देखि के भोजपुरी के मिठास यादि आ जाले (आप लोगों को देखते ही भोजपुरी की मिठास याद आ जाती है।) रूसी सांस्कृतिक केंद्र से लौटने लगा था तो उन्होंने मुझे अपने अंकवार में भर लिया था, मेरे घर का लैंडलाइन नंबर लिया था। लंबी बात करने के लिए..लेकिन
केदार जी को लेकर कई स्मृतियां हैं..उनकी कविताओं के जानकार बहुत हैं।
 
मैं तो उनकी सहज देहाती इंन्सानियत का साक्षी कहीं ज्यादा हूं। जिस बलिया के वे थे, वहीं का मैं भी हूं। लेकिन उन्हें पहली बार देखा था, 1991 में उनके गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जयंती पर द्विवेदी जी के गांव ओझवलिया में। कृपाशंकर चौबे की पहल पर हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्मदिन मनाया जा रहा था। द्विवेदी जी का गांव जैसे उस दिन साहित्यिक तीर्थ बन गया था। जिस दिन कार्यक्रम था, अगस्त के आखिरी हफ्ते के किसी दिन, उसी दिन अचानक गंगा की लहरें उफनती हुई आ गई थीं..उस बाढ़ को पार करते हुए नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन, आचार्य राममूर्ति सरीखी हिंदी की बड़ी हस्तियां ओझवलिया जुटी थीं...उस कार्यक्रम में हम लोग भी सहभागी थे..ओझवलिया की उस मुलाकात में बालसुलभ हिचक बनी रही, इसलिए ज्यादा बातचीत नहीं हो पाई।
 
दिल्ली आने के बाद मिलना हुआ और अंतरंगता बनी, तब जब यह पता चला कि उन्हें मिडिल स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने वाले गुरु मेरे फूफा थे। अकाल में सारस का कवि जिस चकिया गांव का निवासी था, उससे बिल्कुल सटा हुआ गांव है तिवारी का मिल्की। दोनों गांव इतने संश्लिष्ट हैं कि गांव वालों के अलावा बाहरी लोगों को कम ही पता होगा कि किस गांव की सीमा कहां मिलती है और कहां खत्म होती है। तिवारी के मिल्की में मेरी सबसे बड़ी बुआ थीं। मेरे फूफा जगदीश तिवारी अध्यापक थे। लेकिन 18 अगस्त 1942 की लोमहर्षक छात्र क्रांति के बाद फरार हो गए थे। जिस बैरिया थाने पर छात्रों ने तिरंगा फहराया था, वह उनके स्कूल के नजदीक था और केदारजी भी वहीं पढ़ने जाते थे। फूफाजी के बारे में 1999 तक केदार जी को यही आभास था कि वे गुजर गए हैं। एक रात अजित राय के घर तत्व चिंतन के दौरान उन्होंने अपने अंग्रेजी के उस गुरु को भावुक अंदाज में याद किया और लगे हाथों उनके निधन की भी बात कर दी तो मैंने उन्हें टोक दिया था। 
 
उनसे मैंने तब कहा था कि अगर मेरे खानदान के लोग यह सुन लें तो आपकी शामत आ जाएगी। 
तब उन्होंने प्रतिप्रश्न उछाल दिया था, क्यों?
“क्योंकि वे मेरी खानदान के सबसे बड़े जिंदा दामाद हैं..”
 
यह सुन केदार जी आश्चर्य से भर गए...अगली बार जब चकिया गए तो संयोग ऐसा था कि फूफा भी अपने गांव आए थे। केदार जी को जब पता चला तो वे भागते हुए फूफा के घर पहुंचे, तब तक फूफा कोलकाता के लिए निकल चुके थे।
 
केदार जी जब पहली बार दिल्ली स्थित मेरे घर आए तो सीधे किचेन में पहुंच गए...मेरी पत्नी से बोला, सुन तनी पकउड़ी बनाव (सुनो, थोड़ा पकौड़ी बनाओ)
 
पत्नी आज भी उसे याद करती रहती हैं...
 
केदार जी की कविताएं बेहद सहज हैं..भाषा का गंभीर वितान उनमें कम ही नजर आता है..लेकिन जिस सहजता से वे अंतरतम को छू लेती हैं, कुछ वैसा ही उनका अपना अंदाज भी था..जब भी मिलते, कंधे पर हाथ रखते हुए या अंकवार में भरते हुए उलाहना भरी डांट सुनाते, अब तू पिटइब, काताना दिन भइल मिलला? (अब तुम पिटोगे, कितने दिन हुए मिले)
 
कम लोगों को पता है कि केदार जी अपनी पढ़ाई-लिखाई के बाद बलिया में ही किसी कॉलेज में पढ़ाना चाहते थे। तब बलिया में दो ही डिग्री कॉलेज थे, सतीशचंद्र कॉलेज और टीडी कॉलेज। लेकिन उन्हें बलिया में नौकरी नहीं मिली। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें पडरौना में नौकरी मिली और वहां के कॉलेज के वे प्रिंसिपल भी बने। केदार जी को इस बात का संतोष था कि अगर वे जेएनयू नहीं आते तो उन्हें वैसी पहचान नहीं मिलती, जैसी मिली। लेकिन वह बलिया की सेवा ना कर पाने के दर्द से जूझते रहे। 1992 में उन्होंने बलिया के प्रखर प्रत्रकार और सेनानी एवं दैनिक के संपादक काशीप्रसाद उन्मेष को लिखे एक पत्र में केदारजी ने अपना यह दर्द बयान किया था..
 
केदारजी अब नहीं हैं, इसके बाद साल 2004 के जून की एक शाम मुझे बेसाख्ता याद आ रही है..उन दिनों मैं अपने गांव में था..स्कूटर एक्सीडेंट में बायां पैर चोटिल था..इसलिए लंगड़ा के चलता था..गांव के घर में बैठे-बैठे रोजाना बोर होता था..एक दिन अखबार में पढ़ा कि आज शाम बलिया के टाउन हाल में केदार जी का कार्यक्रम है..लंगड़ाते हुए बलिया के लिए बस पकड़ ली। शाम को टाउन हाल पहुंचा तो वहां के कर्ता-धर्ता लोग केदारजी के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त थे। 
 
केदार जी गुलाबदेबी महिला महाविद्यालय के पास सदानंद शाही जी के साथ ठहरे हुए थे...कार्यक्रम में देर हो रही थी...लेकिन केदारजी नहीं आ रहे थे..उस कार्यक्रम के कर्ताधर्ता अपने गुरु डॉक्टर रघुवंशमणि पाठक से मैंने अनुरोध किया कि हमें केदारजी के पास भेज दीजिए। लेकिन उन्हें लगता था कि कुमार आशान और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि कहीं बिदक न जाए। लिहाजा उन्होंने मुझे मौका नहीं दिया..बहरहाल मैं चुपचाप एक सीट पर बैठ गया..
 
थोड़ी देर में हल्ला मचा...केदार जी आ गए..अंबेसडर कार से वे टाउनहाल में आए...कार से उतरे.. स्वागतकर्ताओं की भीड़ माला लेकर उनकी ओर बढ़ी..मैं भी लंगड़ाते हुए उनके स्वागत को देखने निकला और एक किनारे खड़ा हो गया..भीड़ में जा भी नहीं सकता..अचानक केदार जी की नज़र मुझ पर पड़ी...एक आयोजक से माला लिए...और मेरी ओर चल पड़े...पूरी भीड़ भौंचक्क...केदारजी मेरे पास पहुंचे और खींच लिया..जब उन्हें पता चला कि पैर में चोट है तो मुझे सहारा देकर ले चले...उनका यह अपनत्व मुझे गहरे तक भिगो गया..
 
प्रतिभाओं के उभार के पीछे माटी से बिलगाव की नियति का भी बड़ा हाथ होता है...केदार जी इस दर्द से ताजिंदगी जूझते रहे और यह दर्द ही उनकी कविताओं में कभी दृश्य बनकर तो कभी बिंब बनकर आता रहा...रिटायरमेंट के बाद वे मौका लगते ही बलिया के चकिया गांव चले जाते...शायद वे सोचते थे कि गांव की माटी का कर्ज ना चुका पाए तो क्या...उसके सान्निध्य में कुछ वक्त तो गुजार लें..
 
केदार जी की छोटी कविताएं मुझे बहुत पसंद हैं..निर्मल वर्मा का गद्य जिस तरह रेशमी छुअन से भर देता है, जिससे गुजरते हुए लगता है कि जैसे दर्द भी कहीं अंदर तक सहलाता है..केदार जी की काव्य रचनाएं भी मुझे ऐसा ही अहसास देती है...चाहे हाथ कविता हो या जाना...वे अंदर तक ना सिर्फ बेध देती हैं..बल्कि जिंदगी के लिए एक आश्वस्तिबोध से भी भर देती हैं..
 
चकिया से कुछ किलोमीटर पूरब सरयू नदी पर मांझी में पुल है..बिहार और उत्तर प्रदेश को रेलवे से जोड़ने वाले इस पुल की ख्याति मांझी का पुल के तौर पर ही है। इस पुल पर रातों को जब ट्रेन गुजरती हैं, तो उसकी आवाज दूर तक सुनाई देती है..केदार जी ने इस पुल को भी अपने ढंग से याद किया है...लेकिन किस तरह जरा आप भी देखिए..
 
अगर इस बस्ती से गुज़रो 
तो जो बैठे हों चुप 
उन्हें सुनने की कोशिश करना 
उन्हें घटना याद है 
पर वे बोलना भूल गए हैं।
 
 
पता नहीं जाते वक्त उन्हें ऐसा अनुभव हुआ था या नहीं..
इस तरह अड़ियल साँस को
मैंने पहली बार देखा
मृत्यु से खेलते
और पंजा लड़ाते हुए
तुच्छ
असह्य
गरिमामय साँस को
मैंने पहली बार देखा
इतने पास से।
 
लेकिन केदारजी हमारे आसपास रहेंगे...अपनी इस रचना की ही तरह..
जाऊंगा कहाँ 
रहूँगा यहीं
किसी किवाड़ पर 
हाथ के निशान की तरह 
पड़ा रहूँगा
किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गंध में 
छिपा रहूँगा मैं
दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में 
अपने स्थायी पते के 
अक्षरों के नीचे
या बन सका 
तो ऊंची ढलानों पर 
नमक ढोते खच्चरों की 
घंटी बन जाऊंगा 
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील
जाऊंगा कहाँ
देखना 
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बादल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी 
लौट आऊँगा मैं भी 
सुबह जब उड़ेंगे 
उड़ जाऊंगा उनके संग...

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