सत्याग्रह के प्रयोग की प्रासंगिकता...

- डॉ. कश्मीर उप्पल
 
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने विश्वभर के देशों में हलचल मचा रखी है। विश्व की सबसे प्राचीन पारिवारिक उत्पादन की परंपरा को केंद्रीय और बड़े पैमाने की उत्पादन की प्रणाली ने हिलाकर रख दिया है। इससे उत्पन्न पर्यावरण संकट ने मनुष्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
 
हमारे देश में भी उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप आम आदमी के सम्मुख आमदनी, रोजगार और पर्यावरण का संकट खड़ा हो गया है। इससे कई राज्यों में असंतोष, आक्रोश और अलगाव के स्वर उठने लगे हैं। इस तरह की सामाजिक असहमतियों को पक्ष और विपक्ष की राजनीति कह देना समस्या का सरलीकरण है।
 
गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह का यह शताब्दी वर्ष हमारे देश के संकट के इस दौर में आशा की एक किरण के रूप में आया है। यह समय किसी एक सरकार पर दोषारोपण का नहीं है। देश की पिछली सरकारों ने गांधीजी को पूज्यनीय महापुरुष के रूप में स्थापित कर रखा था, परंतु सरकार की नीतियों में गांधी कहीं नहीं थे।
 
आज हमारे सामने अत्यंत उदारीकृत पूंजीवाद संकुचित आस्थाओं के गठजोड़ के साथ उपस्थित है। महात्मा गांधी के विचार बड़े पैमाने पर उत्पादन के विरोध में कार्ल मार्क्स से भी अधिक क्रांतिकारी हैं। इसीलिए गांधीजी के पूज्यनीय महापुरुष के स्वरूप को ही विलोपित करने के प्रयास हो रहे हैं। यह भी एक स्वागतयोग्य प्रयास है। हमें समझ लेना चाहिए कि पूजा-भाव और निंदा-भाव में गांधीजी हैं ही नहीं।
 
हमारे सामने चंपारण सत्याग्रह के इस शताब्दी वर्ष में एक अवसर आया है कि हम हाड़-मांस के चलते-फिरते गांधी के विचारों और कार्यों को समझें। अंतत: जमीन पर चलता हुआ निडर गांधी ही हमारे काम आएगा। हमें यह समझने में देर हो गई है कि गांधी इस देश की विराट परंपरा के गर्भ से पैदा हुए थे और यह विराट परंपरा कभी खत्म होने वाली नहीं है।
 
गांधीजी ने सिर्फ राजनीतिक लड़ाई लड़ी होती तो वे सिर्फ इतिहास की चीज बनकर रह जाते। गांधी ने अपनी लड़ाई को एक सभ्यता के सांचे में ढाला था। यह पूछने पर कि आप किस धर्म के अनुयायी हैं? गांधी ने कहा था- मैं कहा करता था कि मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। पहले मैं 'ईश्वर सत्य है' ऐसा कहा करता था लेकिन अब मैं कहता हूं कि 'सत्य ईश्वर है'। ऐसे लोग तो हैं, जो ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करते हैं किंतु ऐसा कोई नहीं हैं, जो सत्य के अस्तित्व से इंकार करता हो। इस तरह गांधी, ईश्वर को एक काल विशेष से निकालकर हर युग के सत्य के रूप में स्थापित कर देते हैं।
 
आजकल कई लोग गांधी के चरखे का मजाक उड़ाते हैं। वे नहीं जानते कि औद्यौगिक उपनिवेशवाद और गरीबी से लड़ने में स्वदेशी आंदोलन का कितना भारी दबाव इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था पर पड़ा था। लंदन की प्रतिष्ठित पत्रिका 'यूनिटी' में 6 नवंबर 1922 को प्रकाशित एक लेख के अनुसार गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन के कारण हिन्दुस्तान में आंतरिक राजस्व में 7 हजार करोड़ पौंड और इंग्लैंड पहुंचने वाले राजस्व में 2 हजार करोड़ पौंड की गिरावट केवल 1 वर्ष में देखी गई है। भारत में माल न बिकने के कारण लंकाशायर और मैनचेस्टर में कपड़ों की मिलें एक के बाद एक बंद होने लगी हैं। आज के मूल्यों पर 9 हजार करोड़ पौंड की वह हानि कितनी बड़ी होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता हैं।
 
गांधीजी जब प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने 1931 में इंग्लैंड पहुंचे थे तो वहां की अधिकांश कपड़ा मिलें बंद थीं। इंग्लैंड के मजदूरों ने गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन के विरोध में प्रदर्शन किया था। गांधीजी ने मजदूरों की सभा में बताया कि इंग्लैंड में बेरोजगारों की संख्या 30 लाख है जबकि इंग्लैंड की नीतियों के कारण भारत में 30 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं। 
 
गांधीजी ने आगे कहा कि इंग्लैंड के मजदूरों को 70 सिलिंग प्रतिमास की दर से बेरोजगारी भत्ता मिल रहा है जबकि भारत के लोगों की कुल औसत आय 7 सिलिंग 6 पैसे प्रतिमाह प्रति व्यक्ति थी। इसी सभा में गांधीजी ने अपनी प्रसिद्ध उक्ति कही थी- 'ईश्वर में भी हिम्मत नहीं है कि वह भूखे के सामने रोटी के अलावा किसी और शक्ल में उपस्थित हो सके।'
 
आज उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की चूलें हिलाकर रख दी हैं। इसीलिए गांधीजी के सत्य के प्रयोग का एक और अवसर हमारे सामने है। हम चाहें तो गांधी आज भी हमारे साथ चलने को तैयार हैं। हमें यह भी याद रखना होगा कि गांधी मार्ग पर चलने के लिए हमें बहुत कुछ जोड़ना नहीं है, वरन्‌ अपना बहुत कुछ छोड़ना है। अपने आपको हल्का करना है। (सप्रेस)
 
(डॉ. कश्मीर उप्पल शासकीय महाविद्यालय इटारसी (जिला होशंगाबाद, मप्र) से सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)

साभार- सप्रेस 

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