तुर्क राष्ट्रपति की इज्जत और जर्मन मीडिया की साख

तुर्की के राष्ट्रपति चाहते हैं कि जर्मनी के एक पत्रकार के खिलाफ आपराधिक मामला चले क्योंकि व्यंग्य करने वाले इस पत्रकार ने अपने टीवी प्रोग्राम में उनकी बेइज्जती की है। इस मामले ने जर्मनी की सरकार को भारी दबाव में डाल दिया है।
 
मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का दावा करने वाला जर्मनी अपने ही मीडियाकर्मी के खिलाफ मुकदमा कर सकता है। वह भी ऐसे देश के अनुरोध पर जहां पत्रकारों का बुरा हाल है। जर्मन मीडिया में राजनीति का इतना दखल कभी-कभी ही दिखता है। इस मामले ने आम लोगों में हलचल मचा रखी है, तो अंतरराष्ट्रीय मीडिया के लिए यह एक लिटमस टेस्ट बन सकता है।
 
पैंतीस साल के जर्मन कॉमेडियन और पत्रकार यान बोएमरमन जर्मनी के राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल जेडडीएफ पर व्यंग्यात्मक प्रोग्राम करते हैं। उन्होंने अपने एक लाइव प्रोग्राम में तुर्की के राष्ट्रपति रज्जब तैयब एर्दवान पर ऐसी कविता पढ़ी, जिसमें अपशब्दों की भरमार थी। एर्दवान को बेहद बुरा चरित्र वाला व्यक्ति बताया गया। उन्हें बकरियों के साथ सेक्स करने वाला और बच्चों की पोर्नोग्राफी देखने वाला कहा गया। इतना ही नहीं, बोएमरमन ने कविता पढ़ने से पहले यह भी कह दिया कि हो सकता है कि उनकी इस कविता पर बवाल मच जाए।
 
ऐसा ही हुआ। तुर्क मूल के कुछ लोगों ने टीवी चैनल के सामने प्रदर्शन किया और बाद में यह मामला तुर्की के राष्ट्रपति तक पहुंच गया। इस प्रोग्राम का रिपीट टेलीकास्ट रोक दिया गया और वेबसाइट पर से इस हिस्से को हटाना पड़ा। हालांकि टेलीविजन चैनल का कहना है कि यह एक व्यंग्यात्मक प्रोग्राम है और इसे उसी नजर से देखना चाहिए। लेकिन तुर्क राष्ट्रपति ने इसे अपनी इज्जत का सवाल बना लिया और पत्रकार के खिलाफ कार्यवाही की मांग करने लगे।
 
जर्मन मीडिया का कानून : प्रेस की आजादी के मामले में दुनियाभर में 12वें नंबर पर खड़े जर्मन मीडिया में सरकार का दखल नहीं है लेकिन अवमानना से जुड़ा इसका कानून कहता है कि अगर कोई पत्रकार किसी राष्ट्राध्यक्ष पर अपमानजनक टिप्पणी करता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। शर्त है कि वह राष्ट्राध्यक्ष निजी तौर पर इसकी मांग करे और जर्मनी ऐसा करने को तैयार हो जाए। एर्दवान ने इस कानून का इस्तेमाल किया और अब बोएमरमन के प्रोग्राम की जांच हो रही है। अगर वे दोषी साबित हुए तो जुर्माने के अलावा उन्हें दो साल तक की कैद हो सकती है।
 
जर्मनी की सरकार का तुर्की जैसे देश के दबाव में आना हैरान करता है। तुर्की में फ्री मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी का बुरा हाल है। इन पर जबरदस्त सरकारी नियंत्रण है और कई मौकों पर पत्रकारों को रिपोर्टिंग से रोका जाता है। जर्मनी के एक पत्रकार को तुर्की से इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसकी रिपोर्टों में सरकार की आलोचना होती थी। एर्दवान के हालिया अमेरिकी दौरे में तुर्क पत्रकारों को मौके पर नहीं पहुंचने दिया गया या उन्हें राष्ट्रपति के निजी गार्डों ने खदेड़ दिया।
 
मीडिया को कुचलता तुर्की : रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स की ताजा रैंकिंग में तुर्की को 180 देशों में 149वें नंबर पर जगह मिली है यानी तुर्की में मीडिया का हाल भारत, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भी बुरा है। जर्मन पत्रकार पर कार्रवाई की मांग कर रहे तुर्की ने अभी पिछले महीने ही अपने दो प्रतिष्ठित पत्रकारों को गिरफ्तार किया है। उन पर देश के खुफिया दस्तावेजों की रिपोर्टिंग का आरोप है और अगर उन्हें दोषी पाया गया, तो लंबी सजा मिल सकती है। दूसरी तरफ जर्मन मीडिया है, जिसके अखबार ज्यूड डॉयचे साइटुंग ने अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों के साथ मिलकर पनामा पेपर्स का खुलासा किया है।
 
मीडिया के लिए यह कितनी चिंता की बात है कि लोकतंत्र की अगुवाई करने वाला देश लोकतंत्र पर अंकुश लगाने वाले देश के दबाव में आ गया। जर्मन कानून जरूर मुकदमे की इजाजत देता है, लेकिन कूटनीतिक स्तर पर इस मामले को इतना आगे नहीं बढ़ने देना ही समझदारी थी। उलटे जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल इस मुद्दे पर तुर्क राष्ट्रपति के साथ खड़ी दिख रही हैं।
 
तुर्की से दबता जर्मनी : शायद इसकी एक वजह शरणार्थी संकट भी है। यूरोपीय संघ में हुए समझौते के तहत तुर्की शरणार्थियों की खेप वापस ले रहा है और जर्मनी इस समझौते में किसी तरह की अड़चन नहीं आने देना चाहता है। वैसे जर्मनी और तुर्की के बेहद करीबी रिश्ते हैं, क्योंकि जर्मनी में सबसे ज्यादा तुर्क मूल के प्रवासी रहते हैं। इन दोनों देशों से जुड़ा कोई भी विवाद बड़ा रूप ले लेता है। इस बात में कोई शक नहीं कि व्यंग्य में इस्तेमाल की गई भाषा भद्दी थी और उसका मजा बहुत खराब था। इसकी निंदा या आलोचना हो सकती थी। इसके साथ व्यंग्य की सीमा पर बहस हो सकती थी, लेकिन कानून के दायरे में आने के बाद इस मामले ने नया मोड़ ले लिया है।
 
पूरी दुनिया की राजनीति मीडिया को प्रभावित करने की कोशिश करती है और मीडिया का दावा रहता है कि उस पर राजनीतिक दबाव बना रहता है। इस मामले में यह बात साबित भी हो गई है। मामले की अदालती जांच शुरू होने वाली है जो यह तय करेगी कि आजाद मीडिया का क्या मतलब है। डोनाल्ड ट्रंप से लेकर नरेंद्र मोदी तक पर व्यंग्य कसने वाले पत्रकारों के लिए भी यह एक नजीर बन सकती है।
 

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