विपक्षी खेमे के सरदार, कौन कितने असरदार?

अनिल जैन

बुधवार, 1 अगस्त 2018 (18:40 IST)
आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा की ओर से तो साफ है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधे पर ही सवार होकर मैदान में उतरेगी। इस सिलसिले में उसने नए सिरे से मोदी की ब्रांडिंग भी शुरू कर दी है। लेकिन दूसरी ओर विपक्षी खेमे में एकजुटता और नेतृत्व के सवाल पर अभी भी कुहासा छाया हुआ है।
 
इस कुहासे की बडी वजह क्षेत्रीय दलों के नेताओं की कुलांचें भरती अखिल भारतीय महत्वाकांक्षा तो है ही, साथ ही सबसे बडी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का ढुलमुल रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं है। कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर व्यापक विपक्षी एकता की बात तो करती रही है लेकिन इस दिशा में वह किसी भी स्तर पर कोई ठोस पहल करती दिखाई नहीं दी है। अलबत्ता उसकी ओर से ऐसे बयान जरूर आए हैं जिससे उसके कुछ संभावित सहयोगी उससे छिटकते नजर आए हैं।
 
तीन महीने पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलता है या वह सबसे बडी पार्टी के तौर पर उभरती है तो वे प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं।
 
कांग्रेस में राहुल के कुछ करीबी नेता तो इस आशय का बयान बहुत पहले से ही देते आ रहे थे, लेकिन उन्हें कोई गंभीरता से नहीं ले रहा था। लेकिन राहुल के बयान की जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने खिल्ली उडाई थी, वहीं कांग्रेस के ही कई संभावित सहयोगी दलों ने भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया जताई थी।
 
इसके बावजूद कांग्रेस की ओर से यही कहा जाता रहा कि राहुल ही प्रधानमंत्री होंगे। इतना ही नहीं, कांग्रेस की नवगठित कार्यसमिति ने तो बाकायदा इस आशय का प्रस्ताव भी पारित कर दिया। लेकिन पार्टी अपने इस प्रस्ताव पर दो दिन भी नहीं टिक सकी और उसकी ओर से कहा गया कि कांग्रेस का पहला लक्ष्य मौजूदा सरकार को हटाना है, लिहाजा इस लक्ष्य को हासिल करने के बाद ही वह बाकी बातों पर आगे बढ़ेगी।
 
पार्टी की ओर से यह भी कहा गया कि प्रधानमंत्री पद को लेकर कांग्रेस सभी विकल्प खुले रख रही है और इस सिलसिले में वह आरएसएस की विचारधारा से मुक्त किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकार कर सकती है। जाहिर है कि कांग्रेस के रणनीतिकारों को अहसास हो गया है कि 2019 में राहुल का प्रधानमंत्री बनना उतना आसान नहीं है जितना वे अभी तक मानते आ रहे थे। उनके नाम पर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा के अलावा किसी ने सहमति नहीं जताई। कांग्रेस के ही कुछ नेताओं की ज्यादा 'चतुराई’ के चलते कांग्रेस के सबसे भरोसेमंद मित्र रहे लालू प्रसाद यादव की पार्टी भी उनके नाम पर सहमति जताने से बचते दिखी।
 
दरअसल, कांग्रेस में भले ही राहुल का नेतृत्व निर्विवाद हो लेकिन कांग्रेस के बाहर उनके नेतृत्व को स्वीकार करने को कई क्षत्रप तैयार नहीं हैं। जब तक कांग्रेस का नेतृत्व सोनिया गांधी कर रही थीं, तब तक यह सवाल गौण था कि गठबंधन का नेता कौन होगा या उसकी धुरी कौन सा दल बनेगा। लेकिन कांग्रेस की कमान राहुल के हाथों में आते ही स्थिति बदल गई। वैसे विपक्षी खेमे में इस समय कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो अपनी सत्ता महज चार राज्यों तक सिमट जाने के बावजूद अखिल भारतीय मौजूदगी रखती है।
 
इस नाते स्वाभाविक तौर पर विपक्षी एकता की धुरी वही बन सकती है और व्यावहारिक रूप से गठबंधन के नेतृत्व का दावा भी उसी का बनता है। लेकिन राहुल को नेता मानने में कांग्रेस से ही निकले कुछ क्षत्रपों का अहम आड़े आता है। इन क्षत्रपों में ममता बनर्जी और शरद पवार मुख्य हैं, जिनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस से ही हुई और लंबा समय भी कांग्रेस में ही गुजरा। इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती भी हैं जो राहुल को नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखतीं। इन सभी दिग्गजों को लगता है कि वरिष्ठता, अनुभव और जनाधार के लिहाज से उनकी अगुवाई में ही विपक्षी एकता होनी चाहिए या विपक्ष को वे ही एकजुट कर सकते हैं।
 
राजनीति की जमीनी हकीकतों को स्वीकार करते हुए कांग्रेस कार्यसमिति ने औपचारिक तौर यह फैसला भी किया है कि पार्टी अपने सहयोगी दलों के साथ गठबंधन तैयार कर चुनाव में उतरेगी। अन्य दलों से बात कर व्यापक गठबंधन बनाने का जिम्मा पार्टी ने राहुल को सौंपा गया है। हालांकि विपक्षी एकता की बात कांग्रेस पहले से करती आ रही है लेकिन राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के मौकों को छोड़कर उसने इस दिशा में कभी कोई ठोस पहल नहीं की।
 
हालांकि उस समय भी अखिलेश यादव और मायावती को तथा ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी को एक साथ लाने काम कांग्रेस ने नहीं बल्कि शरद यादव ने किया था। कांग्रेस ने तो गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में भी दूसरे विपक्षी दलों से बात तक नहीं की और अतिआत्मविश्वास दिखाते हुए वह अकेले ही मैदान में उतरी। नतीजा यह रहा कि गुजरात में वह अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद बहुमत से दूर रह गई और कर्नाटक में भी अकेले के दम पर अपनी सत्ता कायम रखने की उसकी हसरत पूरी नहीं हो सकी।
 
दरअसल, कांग्रेस अभी भी गठबंधन की राजनीति को पूरे मन से स्वीकार नहीं कर पाई है, बावजूद इसके कि देश की राजनीति में गठबंधन का युग शुरू हुए को लगभग तीन दशक हो चुके हैं। इन तीन दशकों में खुद कांग्रेस भी एक दशक तक गठबंधन सरकार चला चुकी है। इसके विपरीत भाजपा गठबंधन राजनीति की अनिवार्यता को न सिर्फ स्वीकार कर चुकी है, बल्कि वह अपने गठबंधन को दीर्घजीवी बनाना भी सीख गई है। इसलिए वह छह साल तक अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में भी सरकार चला चुकी है और अपने अकेले का बहुमत होते हुए भी वह पिछले चार साल से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार चला रही है।
 
बहरहाल, कांग्रेस कार्यसमिति का विपक्षी एकता संबंधी ताजा प्रस्ताव डेढ दशक पुराने उसके शिमला संकल्प की याद दिलाता है। मई 2003 में कांग्रेस महासमिति के शिमला अधिवेशन में गठबंधन राजनीति की अनिवार्यता को पहली बार औपचारिक तौर पर कुबूल किया गया था। इसके ठीक पांच साल पहले 1998 में कांग्रेस ने पचमढ़ी में आयोजित अपने चिंतन शिविर में गठबंधन की राजनीति को सिरे से खारिज करते हुए अकेले चलने का फैसला किया था।
 
यह फैसला उसके लिए नुकसानदायक साबित हुआ था और 1999 के आम चुनाव में भी उसकी हार का सिलसिला कायम रहा था। उस हार से ही सबक लेकर उसने 2003 में गठबंधन की राजनीति का दामन थामा और 2004 में वह भाजपा नीत गठबंधन को सत्ता से बेदखल कर सकी।
 
अकेले सत्ता-सुख भोगने की अपनी मानसिकता के चलते कांग्रेस ने 2014 से लेकर अब तक उन सभी राज्यों में अकेले ही चुनाव लड़ा और हारी है, जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला रहा। हार के कई कडुवे घूंट पीने के बाद अब कांग्रेस ने एक बार फिर गठबंधन की राजनीति में आस्था जताई है। लेकिन सबसे बडा सवाल यही है कि यदि क्षेत्रीय नेता राहुल का नेतृत्व कुबूल नहीं करेंगे तो फिर उनकी जगह नेता कौन होगा?
 
इस सिलसिले में पहला नाम आता है ममता बनर्जी का। वे आठ वर्षों से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। अपनी पार्टी और सरकार के साथ ही अपने जनाधार पर भी उन्होंने अभी तक मजबूत पकड बना रखी है। लेकिन उनकी तुनकमिजाजी और गठबंधन राजनीति की अनुभवहीनता उनकी अखिल भारतीय महत्वाकांक्षा की राह का सबसे बडा रोडा है।
 
दूसरा नाम आता है मायावती का। आज की तारीख में वे देश की सबसे बड़ी दलित नेता के तौर पर मान्य हैं। चार मर्तबा देश के सबसे बडे सूबे की मुख्यमंत्री रही हैं। उनके पास प्रशासनिक अनुभव भी है और नौकरशाही पर लगाम कसना भी उन्हें खूब आता है।
 
उनका सबसे कमजोर पक्ष यह है कि मौजूदा लोकसभा में उनका एक भी सदस्य नहीं है, लिहाजा आगामी चुनाव में उन्हें अपने गठबंधन के साझेदारों से न सिर्फ ज्यादा से ज्यादा से सीटें हासिल करनी करनी होंगी बल्कि हासिल की गई सीटों में से ज्यादा से ज्यादा जीतना भी होंगी। गठबंधन चलाने की अनुभवहीनता तो उनके खाते दर्ज है ही।
 
उनकी सबसे बडी ताकत दलित और महिला होना है। कांग्रेस ने उनके नाम को स्वीकार करने के परोक्ष संकेत दिए हैं। कांग्रेस पूर्व में दलित वर्ग से राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और प्रधान न्यायाधीश तो बनवा चुकी है। अब देखने वाली बात होगी कि दलित प्रधानमंत्री बनाने की अपनी प्रतिबद्धता पर वह कायम रह पाती है या नहीं।
 
प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की दौड में तीसरा और बडा नाम है मराठा क्षत्रप शरद पवार का। लंबे समय तक मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री के रूप में प्रशासनिक अनुभव रखने वाले पवार का महाराष्ट्र में अच्छा खासा जनाधार है। हर तरह के संसाधनों से संपन्न यह मराठा सरदार सियासी जोडतोड़ का भी खासा तजुर्बा रखता है। बड़े कारपोरेट घरानों से उनकी यारी भी जगजाहिर है। हर राजनीतिक दल में उनके बेशुमार दोस्त हैं।
 
प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम आने पर शिवसेना तो मराठी माणुस के नाम उन्हें समर्थन देगी ही, अकाली दल और बीजू जनता दल जैसी धुर कांग्रेस विरोधी पार्टियां भी उन्हें समर्थन देने में संकोच नहीं करेंगी। उनके साथ समस्या यही है कि वे 75 की उम्र पार कर चुके हैं। इसके अलावा उनकी अपनी पार्टी का महाराष्ट्र के बाहर कोई आधार नहीं है। यहां सवाल आता है कि प्रधानमंत्री बनने का अवसर आने पर क्या वे अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर देंगे और क्या कांग्रेस उन्हें स्वीकार कर लेगी?
 
प्रधानमंत्री पद के लिए विभिन्न विपक्षी नेताओं की दावेदारी से जुडे तमाम सवालों का जवाब आने वाले दिनों में ही मिल पाएगा।

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