शिक्षा का पैटर्न कैसा भी हो और शिक्षा कैसी भी हो, शिक्षक को तो पढ़ाना है भले ही वह समझता हो कि यह व्यर्थ है। ऐसे माहौल के बीच में देश और दुनिया में कई महान शिक्षक और शिक्षाविद् जन्में हैं। भारत का शिक्षा तंत्र या शिक्षा से देश को क्या लाभ मिल रहा है यह कैसे व्यर्थ कही जाएगी? हमारे देश के करोड़ों लोग मदरसों में पढ़ते हैं, सरस्वती विद्यालय में पढ़ते हैं और कान्वेंट स्कूल में अधिकतर लोग पढ़ते हैं। हमारी शिक्षा हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई में बंटी हुई है, क्या ये सही है? ये अपने अपने स्कूल में क्या पढ़ा रहे हैं?
कितने बच्चे साइंस लेते हैं और कितने बच्चे वैज्ञानिक बनते हैं? क्या इसका कोई रिकार्ड है? देखने पर तो यही लगता है कि बड़े होकर अधिकतर बच्चे राइट विंग या लेफ्ट विंग के हो जाते हैं। सड़क पर आंदोलन करते हैं और स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या कुछ नहीं करते हैं यह किसी से छुपा नहीं है। उन्हें देश में नई व्यवस्था कायम करना है परंतु विज्ञान की कोई नई खोज नहीं करना है या मानव जाति की भलाई के लिए उनको कुछ देकर नहीं जाना है। ये ही घातक लोग अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे लोगों पर शासन करते हैं। यह सभी जानते हैं कि अल्बर्ट आइंस्टीन को क्यों जर्मन छोड़कर जाना पड़ा था।
देश की स्कूली और कॉलेज की शिक्षा क्या बनाती है?
हमारे देश की शिक्षा हमें क्या बनाती है, यह सोचना चाहिए देश के लोगों को। ओशो रजनीश अपने प्रवचन 'शिक्षा में क्रांति' में कहते हैं कि 'मैं जब पढ़ता था तो वे कहते थे कि पढ़ोगे लिखोगे तो होगे नवाब, तुमको नवाब बना देंगे, तुमको तहसीलदार बनाएंगे। तुम राष्ट्रपति हो जाओगे। ये प्रलोभन हैं और ये प्रलोभन हम छोटे-छोटे बच्चों के मन में जगाते हैं। हमने कभी उनको सिखाया क्या कि तुम ऐसा जीवन बसर करना कि तुम शांत रहो, आनंदित रहो! साइंटिस्ट बनो। नहीं। हमने सिखाया, तुम ऐसा जीवन बसर करना कि तुम ऊंची से ऊंची कुर्सी पर पहुंच जाओ। तुम्हारी तनख्वाह बड़ी से बड़ी हो जाए, तुम्हारे कपड़े अच्छे से अच्छे हो जाएं, तुम्हारा मकान ऊंचे से ऊंचा हो जाए, हमने यह सिखाया है। हमने हमेशा यह सिखाया है कि तुम लोभ को आगे से आगे खींचना, क्योंकि लोभ ही सफलता है और जो असफल है उसके लिए कोई स्थान है?... फिर सफल होने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े। सफल होने के बाद कोई नहीं पूछता है कि कितने पाप करके तुम सफल हुए हो।
दूसरा ओशो यह भी कहते हैं कि अतीत में जो शिक्षा प्रचलित थी वह पर्याप्त नहीं है, अधूरी है, सतही है। वह सिर्फ ऐसे लोग निर्मित करती है जो रोजी-रोटी कमा सकते हैं लेकिन जीवन के लिए वह कोई अंतर्दृष्टि नहीं देती। वह न केवल अधूरी है, बल्कि घातक भी है क्योंकि वह प्रतिस्पर्धा पर आधारित है। किसी भी प्रकार की प्रतिस्पर्धा, गहरे में हिंसक होती है और प्रेम-रहित लोगों को पैदा करती है। उनका पूरा प्रयास होता है, जीवन में कुछ पाना है- नाम, कीर्ति, सब तरह की महत्वाकांक्षाएं। स्वभावतः, उन्हें लड़ना पड़ता है और उसके लिए संघर्षरत रहना पड़ता है। उससे उनका आनंद और उनका मैत्री-भाव खो जाता है। लगता है, जैसे हर व्यक्ति पूरे विश्व के साथ लड़ रहा है।
कोई वैज्ञानिक नहीं बनना चाहता : कोई भी व्यक्ति साइंटिस्ट नहीं बनना चाहता वह चाहता है- अमीर बनना, ताकतवर बनना और लोगों पर शासन करना। किसी के भीतर भी यह जानने की जिज्ञासा नहीं है कि आखिर ब्रह्मांड क्या है, मनुष्य क्या है। कैसे भौतिक और रसायन विज्ञान काम करता और किस तरह एक स्पेस शटल उड़कर अंतरिक्ष में चला जाता है। ईमानदारी से दुनिया में जितने भी वैज्ञानिक या दार्शनिक हुए हैं वे आपकी शिक्षा प्रणाली का परिणाम नहीं है। उन्होंने स्कूली शिक्षा से अलग हटकर कुछ जानने का प्रयास किया और वे सफल हुए हैं और उनके कारण ही शिक्षा में भी क्रांति हुई है। दुनिया को बेहतर बनाने में एक साइंटिस्ट का ही योगदान रहा है किसी राजनीतिज्ञ या धार्मिक नेता का नहीं।
सोचो यदि बिजली के आविष्कारक थॉमस एडिसन नहीं होते तो कंप्यूटर के आविष्कारक प्रोफेसर चार्ल्स बैबेज भी नहीं होते ऐसे में न तो दुनिया में उजाला होता और ना ही मनुष्य अंतरिक्ष में पहुंच पाता। आज दुनिया में जो भी तकनीकी क्रांतियां हुई हैं इन दो के कारण हुई है। वैज्ञानिकों के कारण ही आज मनुष्य अपने इतिहास के सबसे बेहतर युग में जी रहा है परंतु यदि कोई यह समझता है कि मार्क्स, लेनीन, माओ, प्रॉफेट या अवतारों के कारण दुनिया बेहतर हुई है तो उसे फिर से सोचना होगा कि क्या कहीं वह भी तो इस दुनिया को फिर से नर्क की ओर धकेलने में शामिल तो नहीं है। दुनिया को खोजकर्ता वैज्ञानिकों की जरूरत है किसी धार्मिक या राजनीतिक नेता की नहीं।
भविष्य में यदि हम ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक सोच के लोगों को पैदा नहीं करेंगे तो यह तय है कि हम धार्मिक या सांस्कृति युद्ध ही लड़ रहे होंगे और यह काम तो हम पिछले 2 हजार वर्षों से कर ही रहे हैं, क्या परिणाम हुआ इसका जरा सोचें। तो निश्चित ही वर्तमान में शिक्षा में क्रांति की जरूरत है। हमें बच्चों के मन में जहर नहीं अमृत भरना है।