त्रासदी पर तमाशा और मातम पर मीम, सोशल मीडिया के बाजार में संवेदनाओं की नुमाइश

गरिमा मुद्‍गल

मंगलवार, 17 जून 2025 (16:29 IST)
what is our social responsibility as a citizen: हाल ही में हुई कुछ घटनाओं ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम एक ऐसे समाज का हिस्सा बन गए हैं जहां मातम पर मीम बनाना और त्रासदी को ट्रेंडिंग टॉपिक बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने को बेताब रहना सामान्य हो गया है? अहमदाबाद प्लेन क्रैश जैसी हृदय विदारक घटना हो, या सोनम राजा रघुवंशी और मेरठ मुस्कान साहिल सौरभ केस जैसे वीभत्स हत्याकांड, सोशल मीडिया पर जिस तरह से इन हादसों, मातम और मौत को सनसनी में बदलने की होड़ लगी है, वह सचमुच शर्मनाक है। सोच कर देखी, क्या किसी के दुख को 'व्यूज' के लिए इस्तेमाल करना सामाजिक और सामूहिक संवेदनशून्यता का चरम उदाहरण नहीं है।

सोशल मीडिया पर इस तरह की दुखद घटनाओं के चंद मिनटों में ही, बिना मामले की सच्चाई और गंभीरता की जांच का इंतजार किए, जिस तरह लोग त्वरित वीडियो बनाकर पोस्ट करने को आतुर दिखाई देते हैं, उससे जान पड़ता है जैसे लोग दुखद मौकों की ताड़ में ही हैं। यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि हम कहां जा रहे हैं, जहां मानवीय संवेदनाएं और नैतिकता सिर्फ एक क्लिक दूर हैं, जिन्हें आसानी से दरकिनार किया जा सकता है।

रिश्तों की मर्यादा और सोशल मीडिया का 'हल्कापन'
विगत कुछ दिनों में समाज में प्रेम और पति-पत्नी के रिश्तों को तार-तार करती कुछ घटनाओं ने सच में विचलित कर दिया। हाल ही हुए राजा रघुवंशी हत्याकांड का था जहां नवविवाहित पत्नी सोनम ने अपने प्रेमी राज के साथ मिलकर हत्या की साजिश रची और खुद की मौजूदगी में अपने पति की हत्या करवा उसे गहरी खाई में धकेल दिया। इससे पहले का केस मेरठ का था जहां सौरभ हत्याकांड में उसकी पत्नी मुस्कान और प्रेमी साहिल ने जिस क्रूरता से हत्या को अंजाम दिया, वो निश्चित ही घिनौना था।

लेकिन इन घटनाओं के बाद सोशल मीडिया पर जिस हल्के तरीके से इन हत्याओं की आड़ में पति-पत्नी के रिश्ते पर जो 'चुटकुलेबाजी' की गई, उसे क्या क्रूरता और संवेदनहीनता में नहीं रखना चाहिए? नीला ड्रम, जिसमें सौरभ की हत्या के बाद उसके शरीर के टुकड़ों को बेरहमी से काट कर उसे सीमेंट से सील किया गया, लोगों ने उसी ड्रम को मजाक बनाकर उस पर छिछले चुटकुले गढ़ दिए। तो कहीं सोनम बेवफा है का जुमला सोशल मीडिया में कहकहे लगवा रहा था।

क़त्ल, बेवफाई और धोखेबाजी जैसे संगीन और क्रूर अपराधों को हंसोड़ेपन की बलि देता ये समाज सोशल मीडिया पर जिस तरह कहकहे लगाता दिखा, उसने निश्चित ही हमारे समाज के एक बहुत ही विकृत रूप को बेनकाब किया है। ये हत्याएं किसी ने एक बार कीं, लेकिन सोशल मीडिया पर लोगों के इस हल्केपन ने न सिर्फ मृत आत्माओं और उनके परिजनों को आहत किया, बल्कि मनुष्यता को भी लज्जित किया।

आज हम एक ऐसे डिजिटल युग में जी रहे हैं, जहां हर घटना तुरंत वायरल हो जाती है। सोशल मीडिया ने हमें आवाज़ दी है, लेकिन उसी ने हमारी संवेदनाओं को कुंद भी कर दिया है। 'लाइक्स', 'फॉलोअर्स' और 'शेयर' की दौड़ में हम भूल जाते हैं कि हर तस्वीर, हर वीडियो के पीछे एक इंसान का दर्द और उसकी निजी जिंदगी है। त्रासदी कोई एंटरटेनमेंट नहीं, बल्कि एक मानवीय अनुभव है जिसके प्रति संवेदनशीलता और सम्मान का भाव रखना अनिवार्य है।

इस तरह की दिल दहला देने वाली घटनाओं पर समाज की ऐसी प्रतिक्रिया भी एक गंभीर चिंता है। क्या हम वास्तव में एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहां मानवीय त्रासदी सिर्फ मनोरंजन का एक जरिया बनकर रह जाएगी? क्या हम अपनी संवेदनाएं पूरी तरह से खो चुके हैं? इन सवालों के जवाब हमें ही तलाशने होंगे।

AI की दोहरी मार
हाल ही में, अहमदाबाद में दुखद प्लेन क्रैश की खबर ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। अपनों को खोने का दर्द, वो चीखें, वो सूनी आंखें... हर तरफ मातम पसरा था। लेकिन इस मातम के बीच भी कुछ ऐसी प्रवृत्तियां देखने को मिलीं, जो सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम इंसानियत से दूर होते जा रहे हैं? एक तरफ परिवार अपने प्रियजनों की राख बटोर रहे थे, वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर 'मातम पर मीम बनाते लोग' सक्रिय थे। त्रासदी को 'ट्रेंडिंग टॉपिक' बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने को बेताब लोग, अपने लाइक्स और शेयरों की गिनती में मानवीय संवेदनाओं को कुचलते दिखे। हद तो तब हो गई जब AI का हथियार उठाकर मुर्दों पर क्रिएटिविटी दिखाते लोग' भी सामने आए। दुर्घटना की तस्वीरों को विकृत करना, मृतकों के चेहरे पर बेतुके 'फिल्टर' लगाना या उनकी अंतिम यात्रा को 'कलात्मक' रूप देने की कोशिश करना... यह सिर्फ असंवेदनशीलता नहीं, बल्कि क्रूरता की पराकाष्ठा है। ये हरकतें न केवल पीड़ितों के परिवारों के घावों पर नमक छिड़कती हैं, बल्कि समाज में नैतिक पतन का भी संकेत देती हैं।

आज के दौर में AI का हथियार उठाकर मुर्दों पर क्रिएटिविटी दिखाते लोग इस स्थिति को और भी भयावह बन रहे हैं। डिजिटल साधनों का दुरुपयोग कर ऐसी घटनाओं पर असंवेदनशील सामग्री बनाना एक नया निम्न स्तर है। दुखद घटनाओं को बस एक ट्रेंडिंग टॉपिक समझकर उस पर अपनी तथाकथित 'क्रिएटिविटी' दिखाना, यह दिखाता है कि हमारी नैतिक सीमाएं कितनी धुंधली हो गई हैं।

त्रासदी पर मीडिया की गिद्ध दृष्टि: मुद्दों को ट्रेंडिंग बनाने होड़
मुद्दे को भुनाने के लिए परिवारों पर गिद्धों की तरह झपटती, घावों को नोचती कुरेदती मीडिया भी इस पाश्विकता का एक बड़ा हिस्सा है। सनसनीखेज हेडलाइंस और टीआरपी की दौड़ में, मीडिया भी अक्सर पीड़ितों के दर्द को सार्वजनिक तमाशा बना देती है।

इस सबके बीच, मीडिया की भूमिका भी सवालों के घेरे में आती है। मुद्दे को भुनाने की होड़ में परिवारों पर गिद्धों की तरह झपटती, घावों को नोचती कुरेदती मीडिया' का रवैया अक्सर देखने को मिलता है। सनसनीखेज हेडलाइंस, पीड़ित परिवारों के निजी पलों को कैमरे में कैद करने की झपट, और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना - यह सब सिर्फ टीआरपी की अंधी दौड़ का परिणाम है। खबरों को सनसनीखेज बनाना, दुःख को एक 'शो' में बदलना, क्या यही पत्रकारिता का धर्म है? जब कोई 'सोनम राजा रघुवंशी, मेरठ मुस्कान साहिल सौरभ केस' जैसा संवेदनशील मामला सामने आता है, तो मीडिया की यह हड़बड़ी और भी भयावह रूप ले लेती है, जहां व्यक्तिगत त्रासदी को सार्वजनिक तमाशा बना दिया जाता है।

यह समय है जब हमें रुककर सोचने की ज़रूरत है। क्या हम वाकई इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि किसी के दुख को भी ट्रेंडिंग टॉपिक बना दें? क्या हमारी नैतिकता इतनी गिर गई है कि हम मृतकों का अपमान करें? मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, और हमें, एक समाज के तौर पर, अपने डिजिटल व्यवहार पर नियंत्रण रखना सीखना होगा। तभी हम सच्ची मानवीय संवेदनाओं को बचा पाएंगे और भविष्य में ऐसी त्रासदियों पर पूरी गरिमा और सम्मान के साथ प्रतिक्रिया दे पाएंगे।

 

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