दिल्ली का चुनाव देश में क्या गुल खिलाएगा?

शायद ही किसी ने सोचा होगा कि महज 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा का चुनाव इतना हाई प्रोफाइल और आक्रामक हो जाएगा। वैसे पिछले कुछ सालों में समूचे देश की ही राजनीति एक तरह से टीवी और सोशल इवेंट में बदल गई है, लेकिन दिल्ली के चुनाव में ऐसा खास तौर पर हो रहा है। शायद महानगरीय चरित्र वाले देश के इस एकमात्र राज्य के लिए और देश की राजधानी होने के नाते यह एक बाध्यता हो।
दरअसल, अगर हालात सामान्य होते तो राष्ट्रीय राजनीति में दिल्ली चुनाव के कोई खास मायने नहीं होते। तब तो कतई नहीं जब लोकसभा चुनाव में चार साल से भी ज्यादा का वक्त बाकी हो। आम चुनाव नजदीक होते हैं तो उससे ठीक पहले होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर दिलचस्पी महज इस वजह से होती है कि इससे हवा के रुख का पता चलता है। वैसे पिछले कुछ नतीजों ने यह धारणा भी झुठला दी है क्योंकि विधानसभा चुनाव नतीजे कुछ रहे और जब लोकसभा के चुनाव हुए तो उसी राज्य के नतीजे कुछ और आए। इसके बावजूद अगर पूरे देश को दिल्ली के चुनाव नतीजों का बेसब्री से इंतजार है तो इसकी कुछ खास वजहे हैं। जैसे एक यह कि नतीजों के बाद खुद भाजपा की अंदस्र्नी राजनीति में काफी कुछ बदलाव आ सकता है।
 
केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा दिल्ली में एक ऐसी पार्टी से लड़ रही है, जिसको वजूद में आए अभी बमुश्किल दो साल ही हुए हैं और उसके नेताओं का संसदीय राजनीतिक तजुर्बा भी इतना ही है। इस पार्टी का वजूद दिल्ली के बाहर अभी एक-दो राज्यों तक ही सीमित है। ऐसी पार्टी को लेकर भाजपा ने अपने प्रचार अभियान में जिस तरह की आक्रामकता दिखाई है उसके पीछे उसकी खीझ और घबराहट ही ज्यादा दिखाई दी है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने सत्ता में आने के बाद महज आठ महीने के अल्प समय में देश को ही नहीं पूरी दुनिया को अपनी नेतृत्व क्षमता का कायल बना लिया है। सवाल है कि फिर एक नई पार्टी और नए नेता के मुकाबले उन्हें इतना मुखर और आक्रामक होने की जरूरत क्यों पड़ी? उनका दावा है कि जब से उन्होंने सत्ता संभाली है, चीजें पटरी पर लौट रही हैं, जनता को राहत मिली है। फिर उनके भाषणों और मुद्राओं मे असुरक्षा बोध क्यों झलक रहा है? क्यों उन्हें अपने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ ही अपने आधे से ज्यादा मंत्रिमंडल, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों और अपनी पार्टी के लगभग सवा सौ सांसदों को प्रचार के लिए मैदान में उतरना पड़ा। इस पैमाने पर ताकत तो प्रायः लोकसभा चुनाव में ही झोंकी जाती है।
 
भाजपा अपने को 'पार्टी विद ए डिफरेंस' कहती आई है। वह दावा करती है कि उसका  चाल, चरित्र और चेहरा बाकी पार्टियों से अलग है। चूंकि अभी वह केंद्र की सत्ता में है। ऐसे में उससे ज्यादा जिम्मेदारी की अपेक्षा थी लेकिन उसका पूरा जोर नकारात्मक राजनीति पर रहा। दिल्ली के विकास के लिए अपनी योजनाएं और कार्यक्रम रखने से ज्यादा रुचि उसने विज्ञापन और दूसरे माध्यमों से अपने प्रतिद्वंद्वी नेता का मजाक उड़ाने और उन पर निजी हमले करने में दिखाई। दूसरी ओर उसके मुकाबले में आम आदमी पार्टी ने भी लगभग वैसा ही रवैया अपनाया। उसका भी जोर अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टी पर पलटवार और लोकलुभावन वायदे करने पर ही ज्यादा रहा। इस सबके चलते दिल्ली के वास्तविक मुद्दे गौण हो गए। पूरे चुनाव अभियान के दौरान व्यक्तित्वों का टकराव ही छाया रहा। 
 
दरअसल आज की स्थिति में भाजपा नरेंद्र मोदी और अमित शाह पार्टी के पर्याय हो गए हैं। वे जो कुछ कहते हैं वही पार्टी की नीति और जो कुछ वे करते हैं वही पार्टी की रीति होती है। दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने भले ही किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया हो लेकिन व्यावहारिक तौर उसने यह चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा है। उसके तमाम चुनावी इश्तिहार और अन्य प्रचार सामग्री भी इसी बात की तसदीक करती है। ऐसे में अगर दिल्ली का चुनाव भाजपा जीतती है तो यह एक तरह से मोदी की ही जीत होगी। उसके बाद पार्टी का वह तबका जो 'मोदी युग' आने के बाद से खुद को हाशिए पर या उपेक्षित महसूस कर रहा है (भले ही इसे जाहिर न कर पा रहा हो), पहले से भी ज्यादा अलग-थलग पड़ जाएगा। पार्टी और सरकार में एकतरफा फैसले लेने का सिलसिला बढ़ेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दिल्ली में भाजपा की सरकार नहीं बन पाई तो हाशिए पर जा चुके नेताओं को मुखर होने का मौका मिल जाएगा। भाजपा की केंद्रीय राजनीति मे पहली बार मोदी दबाव में होंगे। पार्टी में यह आवाज उठने लगेगी कि पार्टी को 'वन मैन शो' बनाकर बहुत दिनों तक खड़ा नहीं रखा जा सकता।
 
दरअसल, नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी यह अच्छी तरह समझते हैं कि अगर यह स्थिति आई तो उनके लिए पार्टी के गुटों, वरिष्ठ नेताओं और मंत्रियों पर नकेल कसे रखना आसान नहीं रह जाएगा। कुल मिलाकर उनकी सरपरस्ती की वह धाक और हनक नहीं रह पाएगी जो आज है। पिछले कुछ समय मे मोदी ने और उनकी शह पर अमित शाह ने तमाम दबावों से मुक्त होकर फैसले किए हैं। किरण बेदी को पार्टी में शामिल होते ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने का फैसला भी उनमें से एक है। अगर दिल्ली के परिणाम प्रतिकूल आए तो ऐसे फैसले फिर नही हो पाएंगे। 
 
लोकसभा चुनाव और उसके बाद चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में मोदी की जो लहर चली, उसमें मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस का तो सफाया हुआ ही, तमाम राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियां भी हाशिए पर पहुंच गईं। क्षेत्रीय पार्टियों के लिए यह ऐसा सदमा है, जिससे वे अभी तक उबर नही पाई हैं। ऐसी पार्टियों के लिए दिल्ली चुनाव के नतीजे उत्सुकता का विषय बने हुए है। वे सोच रही हैं कि अगर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली मे मोदी का विजय रथ रोक सकती है, तो वे क्यों नहीं? अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली में भाजपा को रोकने मे कामयाब हो गई तो फिर दिल्ली का नतीजा देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के लिए संजीवनी का काम करेगा। इसका सबसे बड़ा असर बिहार में देखने को मिलेगा, जहां इसी साल नवंबर में चुनाव होना है। बिहार में जनता परिवार को एक करने की बात हो रही है। जाहिर है, संजीवनी मिलने के बाद क्षेत्रीय दल पूरे देश मे नए सिरे से अपना ताना-बाना बुनेंगे।
  
देश में आम लोगों के लिए दिल्ली चुनाव के नतीजों का महत्व अलग कारण से है। वे जानना चाहते हैं कि क्या मोदी का जादू अब भी कायम है? लोकसभा चुनाव में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर कामरूप तक मोदी के नाम पर ही वोट पड़े थे। लोगों ने उन्हें एक ऐसे करिश्माई नेता के रूप मे देखा था, जिसके आते ही देश पटरी पर आ जाएगा। लेकिन आठ महीने का वक्त बीतने पर अब सवाल भी उठने लगा है कि जिन मुद्दों पर वोट लिए गए थे, उनका क्या हुआ? दिल्ली के नतीजे उन्हें आश्वस्त कर सकते है कि निराश मत होइए, थोड़ा इंतजार कीजिए, सारी चीजें पटरी पर आ जाएंगी। लेकिन नतीजे झटका भी दे सकते है। शायद यही वे वजहें हैं, जिनके चलते दिल्ली के चुनाव इस बार बेहद महत्वपूर्ण हो गए और सारा देश उत्सुकता से उसके नतीजों की प्रतीक्षा कर रहा है।
 

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