मेरे पिता विट्ठलदासजी मोटी गोरखपुर में रहते थे और मैं मुंबई में। जब भी उनसे मिलने मैं गोरखपुर जाता, वे मुझे दस दिन के विपश्यना साधना के एक शिविर में सम्मिलित होने को उत्साहित करते। वे ऐसे शिविर में पिछले चार वर्षों से प्रतिवर्ष जाते थे। मिलने पर वे कहते कि विपश्यना साधना से शरीर का शोधन प्राकृतिक चिकित्सा से भी अच्छा और तेज होता है।
मैं उनका सात वर्ष तक आरोग्य मंदिर में सहकारी चिकित्सक रहा हूँ और प्राकृतिक चिकित्सा की शक्ति समझता हूँ। अतः मुझे उनकी बातों पर विश्वास न होता। 17 फरवरी 1980 को मैं उन्हें मुंबई ले जाने के लिए उनके शिविर के अंतिम दिन इगतपुरी पहुँचा तो एक बार फिर उन्होंने मुझे इस साधना का अनुभव लेने को उकसाया। मैंने उनकी आज्ञापालन हेतु दस दिन के शिविर के लिए अपना नाम लिखवा ही दिया। सुना है पुराने जमाने में ऋषि-मुनि शांति की खोज में जंगल और पहाड़ों पर जाकर तपस्या किया करते थे। वे ऐसी जगह इसलिए जाते थे कि अंदर शांति ढूँढने के लिए बाहर भी शांति तो होनी ही चाहिए।
इगतपुरी का धम्मगिरि भी एक ऐसा ही सुंदर, सुरम्य, शांत स्थान है। पहाड़ी की चोटी पर स्थित, शहर के कोलाहल से दूर, पहाड़ियों से घिरी हुई, वृक्षों और फूलों से लदी हुई प्रकृति की गोद में बना यह आश्रम और उसका शांत, पवित्र वातावरण देखकर तबीयत खुश हो गई। मुझे लगा कि अपने नाम 'विपश्यना इंटरनेशनल एकेडमी' के अनुरूप ही वह स्थान है। 250 विद्यार्थी आए थे, जिनमें 100 विदेशी थे। विद्यार्थी हर उम्र के थे-बूढ़े, जवान, स्त्रियाँ, लड़कियाँ।
इन अनुशासनप्रिय विद्यार्थियों के चेहरों से इनके दृढ़संकल्प की झलक मिलती थी और लगा कि सभी कड़ी मेहनत के लिए तैयार हैं। सारा वातावरण एक विश्वविद्यालय की तरह था। सभी जाति, धर्म, वर्ग के लोग वहाँ उपस्थित थे। शांति तो सबको चाहिए ही। भले वह मुसलमान हो, हिन्दू , सिख या ईसाई हो। वहाँ संप्रदाय निरपेक्ष वातावरण मिला। विश्वविद्यालय की तरह न जीवन-भर किसी को गुरु मानना, न ही किसी आश्रम की तरह भगवा वस्त्र पहनना, न कंठी न माला, न ताबीज, न अँगूठी।
कल्याणमित्र श्री सत्यनारायण गोयनका (गुरुजी) विपश्यना साधना सिखाने का यह कार्य स्वांतः सुखाय और बहुजनहिताय कर रहे हैं। यह सारा कार्य वे अपने गुरुजी की स्मृति में स्थापित 'सयाजी ऊ बा खिन मेमोरियल ट्रस्ट' के माध्यम से कर रहे हैं। प्रशिक्षण के बीच मेरे सामने एक घटना घटी।
गुरुजी की तबीयत कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रही थी। वजन कम हो रहा था और वे अपने को बहुत अशक्त महसूस कर रहे थे। डॉक्टरी परीक्षा हुई- खून, पेशाब, शौच की जाँच की गई और पाया गया कि उन्हें डायबिटीज हो गई है और रक्त में चीनी 180 मिलीग्राम पहुँच गई है। इधर कुछ अनपेक्षित व्यस्तता के कारण वे शरीर की पूरी देखभाल नहीं कर सके थे। यह सब उसी का दुष्परिणाम था। गुरुजी को जब बताया गया कि उन्हें डायबिटीज हो गई है और इसको ठीक करने के लिए उन्हें भोजन संबंधी एवं कुछ अन्य नियम पालन करने होंगे और दवा लेनी होगी।
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इस पर उन्होंने कहा कि वे इस रोग को तीन दिन तक विपश्यना साधना से ठीक करने की कोशिश करेंगे। अगर तीन दिन में ठीक नहीं हुआ तो दवा का प्रयोग करेंगे। तीन दिन बाद रक्त की पूर्ववत परीक्षा की गई और हम सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब पाया गया कि चीनी घटकर 90 मिलीग्राम हो गई है जो स्वाभाविक स्थिति है। मैं इस आश्चर्यजनक घटना का हल ढूँढ़ने में मशगूल हो गया। मुझे याद आया कि जब मैं लंदन के आस्टियोपैथी कॉलेज में अपनी आस्टियोपैथी की पढ़ाई पूरी कर रहा था, तब मुझे बताया गया था कि यदि डायबिटीज के रोगी को पेट के उस स्थान पर जहाँ ड्योडिनम और पैंक्रियाज गुँथे होते हैं, हथेली को रखकर दो-तीन मिनट रोज धीरे-धीरे दबाया जाए तो वहाँ का रक्त-संचालन बढ़ता है व डायबिटीज के रोगी को इससे रोग निवारण में मदद मिलती है।
अब तक विपश्यना की कुछ सीढ़ियाँ मैं भी चढ़ गया था। विपश्यना करते समय मैं भी अपने शरीर पर होने वाले तरह-तरह के स्पंदनों को अनुभव कर पाता था। मैंने भी अपना ध्यान ड्योडिनम और पैंक्रियाज पर केंद्रीत किया। मैंने महसूस किया कि इस स्थान पर धीरे-धीरे आकुंचन और फैलाव पैदा हो रहा है। हाथ द्वारा जो दबाव केवल ऊपर से संभव था वह ध्यान द्वारा चारों तरफ से डाला जा सकता था। यदि इस क्रिया से इंसुलिन शरीर को ज्यादा मिली और डायबिटीज ठीक हो गई तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।
मुझे दूध या इससे बनी कोई चीज से एलर्जी है। जब भी मैं दूध, दही, खोया, पनीर या उनसे बनी कोई चीज खाता हूँ तब मेरा गला खराब हो जाता है, जुकाम हो जाता है, कफ बनने लगता है और सीने में भारीपन महसूस होने लगता है। विपश्यना के दौरान दस दिन तक मैं रोज खालिस दूध की बनी चाय पीता रहा और भोजन के साथ दही ले रहा था, मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। समझ में नहीं आया कि बात क्या है? क्या मैं अपनी एलर्जी से मुक्त हो गया हूँ? लगा विपश्यना द्वारा ऐंड्रोक्रीनल ग्रंथियाँ ज्यादा अच्छा कार्य कर रही थीं और मैं अपनी एलर्जी से बचा रहा और यदि मैं घर आकर भी घंटेभर नियमित साधना करता रहता तो शायद इस एलर्जी से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता।
गुरुजी के विपश्यना साधना सीखने का कारण उनका भयानक सिरदर्द ही तो था जिसके निदान और चिकित्सा के लिए वे सारी दुनिया घूमे और कोई भी उन्हें दर्द से मुक्त नहीं कर सका। आखिर वे विपश्यना साधना से ही रोग मुक्त हुए। मानसिक रोगों से कितने ही साधकों को विपश्यना ने मुक्ति दिलाई है क्योंकि उद्धेलित मन को न केवल समता में रहने का पाठ पढ़ाती है बल्कि इसके साथ ही साधक के हाथ लगती है- 'चिंतामुक्त रहने की कला।'
आज के जीवन में जैसे-जैसे तनाव बढ़ते हैं, रफ्तार तेज होती जाती है, अपने को इस अंधी दौड़ से अलग रख पाने की क्षमता की जरूरत भी बढ़ती जाती है और निश्चय ही इस अंधी दौड़ से बचने और तनाव से मुक्ति का सही उपाय है विपश्यना।