आज की गतिशील एवं प्रतिस्पर्धात्मक जीवन पद्धति में व्यक्ति बार-बार क्रोधित होता है। क्रोध के कारण पारस्परिक संबंध, व्यवसाय एवं आरोग्य में बाधा पहुँचती है। प्रकृति का नियम ही ऐसा है कि क्रोध पैदा करने वाला व्यक्ति क्रोध का पहला शिकार स्वयं बनता है। क्रोध के कारण बेचैनी आती है।
यह स्पष्ट है कि अनचाही होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। मनचाही के सामर्थ्यवान व्यक्ति के जीवन में भी अनचाही होती रहती है। विश्व के सबसे सामर्थ्यवान व्यक्ति के जीवन में भी अनचाही होती रहती है और वह उसे रोकने में असमर्थ हो जाता है। क्रोध करना हानिकारक है, क्रोध बार-बार सिर पर सवार होता रहता है।
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इस समस्या के समाधान के लिए क्रोध का सही कारण अपने भीतर ढूँढना होगा। चित्त को किसी अन्य आलंबन में लगा देने से केवल थोड़ी देर के लिए क्रोध से क्रोध का सही ढंग से पर्यवेक्षण करना आवश्यक है। क्रोध जागने पर तत्क्षण शरीर पर जागी हुई संवेदना और उससे छुटकारा पा सकते हैं। लाभ, ईर्ष्या, वासना आदि अन्य विकारों से भी इस प्रकार मुक्ति संभव है।
किसी व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष माहादि विकारों को विपश्यना द्वारा जड़ से उखाड़ने में शारीरिक संवेदनाओं का बड़ा महत्व है। चूँकि मन में कोई विकार या संस्कार जागते ही शरीर पर संवेदना जागती है।
यद्यपि संवेदना वह शरीर पर अनुभव करता है, पर यह मन ही है जो अनुभव करता है। बुद्ध की शिक्षा में वेदना मुख्यतः शारीरिक संवेदना है। इसका एक व्यावहारिक लाभ यह है कि शारीरिक संवेदनाएँ मूर्त और ठोस हैं, इसलिए इनके आधार पर वास्तविकता पर अधिक पकड़ हो सकती है। शारीरिक संवेदनाओं का दूसरा लाभ यह है कि ये सदा उपस्थित रहती हैं। संवेदनाओं के प्रति निरंतर जागरूकता एवं तटस्थता संस्कारों से छुटकारा दिलाती है।
यह आग की तरह है जो जलने के लिए अपने जलावन को काम में लाती हैं। जब तक जलावन है, आग जलती रहेगी। नया जलावन डालना छोड़ दें तो जलते रहने के लिए उसे पुराने जलावन को काम में लाना होगा। अंततः आग बुझ जाती है।
इसी प्रकार संस्कार के जलावन पर ही भवचक्र चलता है। संवेदनाओं के प्रति प्रतिक्रिया करके ही कोई नया संस्कार बनाता है। तटस्थ भाव से संवेदनाओं को देखने का अर्थ है नए संस्कार नहीं बनाना। जब नया संस्कार बनाना रुक जाता है तो चित की धारा पूर्व संचित संस्कारों को काम में लाने लगती है। इस प्रकार सभी संस्कार समूल नष्ट हो जाते हैं।