- कुशाग्र अग्रवाल
विजयादशमी या दशहरा केवल एक पर्व मात्र नहीं है। यह प्रतीक है कई सारी बातों का। सच, साहस, अच्छाई, बुराई, निःस्वार्थ सहायता, मित्रता, वीरता और सबसे बढ़कर दंभ जैसे अलग-अलग भले-बुरे तत्वों का प्रतीक। जहां भले प्रतीकों की बुरे प्रतीकों पर विजय हुई और हर युग के लिए इस आदर्श वाक्य को सीख की तरह लेने की परंपरा बनाई गई।
आश्विन माह की दशमी के दिन मनाए जाने वाले दशहरे के पूर्व समापन होता है, नौ दिवसीय मातृशक्ति के पर्व नवरात्रि का। दशहरे के रावण दहन के लिए कई दिनों पहले से तैयारियां शुरू हो जाती हैं और रावण की भव्य प्रतिकृति बनाने की होड़-सी लग जाती है।
फिर दशहरे के दिन लोगों का हुजूम अपने आसपास के किसी सार्वजनिक रावण दहन स्थल पर एकत्र होता है जहां आतिशबाजी के बाद नियत समय पर रावण तथा उसके मित्र-रिश्तेदारों के भी तैयार पुतले जलाए जाते हैं तथा लोग विजयी भाव से घर लौटते हैं। कुछ स्थानों पर इसी दिन घर लौटने के पश्चात अपने परिचितों तथा रिश्तेदारों के घर शमी के पत्तों के साथ शुभकामनाएं देने जाते हैं। मिलने वाले को शमी के पत्ते देकर उसके घर में सुख-समृद्धि तथा खुशियां आने की कामना की जाती है। मुद्दा यह है कि हम इन त्योहारों पर सिर्फ परंपरा निभाते हैं या वाकई इनसे जुड़े संदेशों को भी जीवन में उतारते हैं।
इसके अलावा इस दिन घरों में अथवा संस्थानों में शस्त्र पूजा भी की जाती है ताकि बल में और वृद्धि हो तथा संकट के समय वे शस्त्र रक्षा हेतु काम आ सकें। कई जगहों पर दशहरे के अगले दिन 'बासी दशहरा मिलन' की परंपरा भी है। इसके पीछे मूल उद्देश्य अपने मित्रों, रिश्तेदारों व परिचितों के साथ मिलकर बैठना और अच्छा समय बिताना होता है।