नए प्रधानमंत्री के साथ नए भारत की यात्रा ...शुभ हो...

आज शपथ लेते ही नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने देश के भरोसे की बल्ली को हाथ में लेकर संभावनाओं और उम्मीदों की उस पतली रस्सी पर चलना शुरू कर दिया है, जिसके एक ओर गहरी निराशा, नकारात्मकता, ऐतिहासिक भूलों का बोझ, तरक्की की अधपकी ख़ुशी है और दूसरी तरफ आत्मविश्वास, विजय, तरक्की और उम्मीदों की नई सुबह है। वो कितनी कुशलता से इस रस्सी पर चलकर इस नकारात्मक दिखाई देने वाले सिरे से उस उजाले की किरण तक पहुँच पाएँगे, इसी पर सवा अरब भारतीयों का भविष्य टिका है। इसी में उनका अपना और भाजपा का भविष्य भी शामिल है। इस रस्सी पर पड़ने वाले उनके हर कदम को देश ही नहीं दुनिया भी साँस थामकर देखेगी। जहाँ बहुत से ऐसे भी लोग होंगे जो चाहेंगे कि उनका पैर अब फिसले कि तब, वहीं उन लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा बड़ी है जो चाहेंगे कि उनका जागती आँखों से देखा सपना पूरा हो। उनके वोट दरअसल उनके सुरक्षित भविष्य में किया गया निवेश है और वो चाहेंगे कि पाँच साल बाद उन्हें इतना आकर्षक लाभ मिले कि वो दोबारा इसी में निवेश करें।
WD

जैसे 16 मई 2014 आज़ाद भारत के इतिहास की एक बहुत अहम तारीख़ बन गई है उसी तरह 26 मई 2014 की ढलती शाम भी एक नए भारत के उदय की इबारत लिख रही है। जितनी अद्भुत और अनोखी मोदी की जीत रही है उतना ही भव्य उन्होंने अपने जनाभिषेक समारोह को भी बना दिया। अपने प्रस्तावक बने चायवाले से लेकर सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों तक सभी को बुलाकर उन्होंने अपनी पहुँच और कैनवास दोनों को ही विस्तार दिया है। अपने दिन की शुरुआत राजघाट पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की समाधि पर शीश झुकाकर करते ही उन्होंने एक साथ कई सारे संदेश दे दिए। राजघाट पर माथा टेककर नरेंद्र मोदी ने एक और अहम प्रतीक को छुआ है। संघ की कार्यशाला में तपे मोदी, हिंदू हृदय सम्राट की छवि वाले मोदी, सांप्रदायिक सदभाव को लेकर संदेह के दायरे में रहे मोदी, गोडसे को आज भी अपना हीरो मानने वालों के दिलों में भी बसने वाले मोदी ने ये संदेश देने की कोशिश की है कि वो अब एक संस्था, एक राजनीतिक दल के नहीं देश के नेता के रूप में कार्य करेंगे। अगर ऐसा है तो ये शुभ भी है......।

नरेन्द्र मोदी ये भी जानते हैं कि अभी जो शुरुआती समय है उसमें लोग उन्हें पूरा समय देंगे और उनकी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करने की स्थिति में होंगे। इस वक्त का वो भरपूर उपयोग अपने पक्ष में करना चाहेंगे। दूसरा वो अपने इस पूरे पाँच साल के कार्यकाल को ना केवल भारतीय जनता पार्टी और अपने पक्ष में करने के लिए उपयोग करेंगे, बल्कि उनकी निगाह लगातार 2019 के चुनावों पर भी बनी रहेगी।

ये अच्छा है कि संसद की सीढ़ी पर माथा टेकने से लेकर राजघाट पर फूल चढ़ाने तक मोदी एक के बाद बेहतर प्रतीक गढ़ रहे हैं। पर लंबे समय में तो ये ही बात मायने रखती है कि इन प्रतीकों को व्यवहार रूप में किस तरह अमल में लाया जाएगा। राजघाट पर तो अरविंद केजरीवाल भी गए थे। अन्ना हजारे जब जेल गए तो आंदोलन चरम पर था। देश उनके लिए सड़कों पर आ गया था। दाँव कांग्रेस के लिए उल्टा पड़ गया था। आज अरविंद केजरीवाल जेल में हैं पर ये प्रतीक अब बेकार हो गया है उनके लिए।

उम्मीद तो ये ही करें कि अब तक जिस तरह नरेन्द्र मोदी तमाम चुनौतियों का सामना करते आए हैं, उसी तरह अपने जीवन की अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना भी वो सफलतापूर्वक सामना कर ही लेंगे।
ब्रिटेन के अख़बार 'द गार्जियन' ने मोदी की जीत पर लिखा है - इंडियाज अनादर ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी'। यानी भारत की अपनी नियति से एक और मुलाकात। देश की आज़ादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने ऐतिहासिक उद्बोधन में कहा था कि 14 और 15 अगस्त की दरमियानी रात आधी रात को भारत ने अपनी नियति से मुलाकात की। उस दिन मिली आज़ादी को ब्रिटेन के एक अख़बार द्वारा यहाँ आकर मोदी की जीत से जोड़ना एक बड़ा संकेत है। नरेंद्र मोदी को यह साबित करना होगा कि उस आधी रात की सुबह अब होने वाली है।

भारत के चुनावों को लेकर टाइम पत्रिका के एक ख़ास अंक में शुरुआती पंक्तियों में लिखा गया था कि हर देश का अपना एक राष्ट्रीय विचार एक योजना है जैसे कि अमेरिका और चीन, पर भारत के पास अपना को राष्ट्रीय विचार, कोई स्पष्ट रूप से स्थापित लक्ष्य नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ये साबित करना होगा कि ऐसा नहीं है। भारत के पास स्पष्ट लक्ष्य भी है और विचार भी।

उम्मीद तो ये ही करें कि अब तक जिस तरह नरेन्द्र मोदी तमाम चुनौतियों का सामना करते आए हैं, उसी तरह अपने जीवन की अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना भी वो सफलतापूर्वक सामना कर ही लेंगे। वो रस्सी पर चलते हुए भी उस पार पहुँच ही जाएँगे और इस पर हमारी नज़र तो बनी ही रहेगी। .... शुभकामना।

वेबदुनिया पर पढ़ें