पश्चिम के श्वेत भाल पर लगा काला टीका आज और प्रगाढ़ हो गया। एक बार फिर अमेरिका की जनता ने बराक हुसैन ओबामा का लोकतिलक किया। उन्हें उस सफेद इमारत में बैठने का फिर से मौका दिया जहाँ से दुनिया की महाशक्ति की कमान चलती है। ओबामा का पिछले चुनाव में प्रचार के अंतिम चरणों में ही जीतना तय हो गया था।
उनके तब के प्रतिद्वंदी जॉन मैक्केन तो उनके सामने बौने और एक कोने में दुबके नजर आए। उसके बाद भी उनकी पिछली बार की जीत चमत्कारी थी। उसमें एक अश्वेत व्यक्ति के पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति बनने का रोमांच था। बुश के दो कार्यकालों से उपजा असंतोष था। आर्थिक मंदी से उबर जाने की छटपटाहट थी। 9/11 के हमले की कसक थी। ओबामा एक ऐसे मसीहा के रूप में उभरे थे जो जादू की छड़ी घुमाकर अमेरिका की सारी मुसीबतों को हर लेंगे।
निश्चित ही ओबामा 2008 से लेकर 2012 के अपने कार्यकाल में चमत्कार या जादू तो नहीं कर पाए। पर हाँ उन्होंने ओसामा बिन लादेन को मार गिराने जैसे कारनामे जरूर किए। वो आर्थिक मंदी को आर्थिक तेजी में तो नहीं बदल पाए, लेकिन आर्थिक मंदी के जख्मों पर ‘बेल-आउट’ पैकेज का मरहम लगाकर फौरी राहत जरूर दी। मंदी से धीरे- धीरे उबारने के उपाय जरूर किए। ओसामा की मौत ने 9/11 की टीस को भी थोड़ा कम किया। वो ये भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि आज नहीं तो कल मैं आपके सपने जरूर पूरे करूँगा।
इस बार के चुनाव पिछली बार की तरह सीधे और स्पष्ट नहीं थे। मुकाबला कड़ा था। खुद ओबामा आत्मविश्वास से उतने लबरेज नहीं नजर आए जितने कि वो अक्सर होते हैं। इसीलिए शुरुआती वाद-विवाद में वो पिछड़ भी गए। पर उन्होंने और उनकी टीम ने खुद को संभालते हुए गति पकड़ी। सैंडी तूफान के दौरान उनके प्रशासन की मुस्तैदी और इस प्राकृतिक विनाश से उपजी सहानुभूति ने भी मदद की। ओबामा ने मुद्दों पर अपनी पकड़ मजबूत की। जैसे उन्होंने कहा कि वो अधिक आय वाले लोगों पर अधिक टैक्स लगाकर अर्थव्यवस्था को मजबूती देंगे। जबकि रोमनी कह रहे थे कि वो टैक्स नहीं लगाएँगे। जाहिर है रोमनी की घोषणा अव्यावहारिक थी और समझदार वोटरों ने उसे दरकिनार कर दिया।
अमेरिकी चुनाव का दिलचस्प पहलू ये है कि कुल 50 राज्यों में से आधिकांश की प्रतिबद्धता तय है। वो या तो डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार को वोट देते हैं या फिर रिपब्लिकन पार्टी को। आठ राज्य ही ऐसे हैं जहाँ वोट इतने स्पष्ट रूप से तय नहीं हैं। इन्हें पर्पल राज्य कहा जाता है। ये ही लोग परिणाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शायद ऐसे लोग ही बदलाव ला भी सकते हैं, जो सही और गलत का फैसला केवल प्रतिबद्धता के आधार पर नहीं करते। क्या एक परिपक्व लोकतंत्र के लिए ये पहली शर्त भी नहीं होना चाहिए कि वोट केवल सही और गलत के आधार पर दिए जाएँ?
बहरहाल, ओबामा एक ऐसे अमेरिका की दोबारा कमान संभाल रहे हैं जिसे दुनिया का नेता बने रहने के लिए अब कड़ा संघर्ष करना होगा। उन्हें केवल देश की व्यवस्था को पटरी पर नहीं लाना है, बल्कि दुनिया में अमेरिकी चौधराहट को बनाए रखने की भी जिम्मेदारी है। जहाँ उसे चीन के बढ़ती ताकत को रोकना है वहीं इस्लामी देशों में बढ़ते विरोध का सामना भी करना है। हालाँकि ओबामा की जीत में अनिवासी भारतीयों का भी बड़ा योगदान है, मगर भारत के माथे पर वीजा नियम कड़े करने और आउटसोर्सिंग घटाने की चिंता की लकीरें भी हैं।
कुल मिलाकर ओबामा ने अपनी मेहनत से दोबारा जीतने का करिश्मा कर दिखाया है। जीत के तुरंत बाद वाले भाषण में वो फिर उतने ही आश्वस्त और आत्मविश्वास से लबरेज नजर आए। जैसा कि उन्होंने अपने भाषण में कहा ये करोड़ों अमेरिकियों के उम्मीदों और सपनों की जीत है। देखना ये होगा कि अमेरिका इस नई पारी में ओबामा से वो सब हासिल कर पाता है या नहीं जिसके बदले उसने अपने सपनों और उम्मीदों का सौदा किया है।