अफजल गुरु : अब राष्ट्रीय स्वाभिमान से समझौता ना हो...

इसे देर से लिया सही फैसला कह कर आगे बढ़ जाना अन्याय होगा। आज "देर है अंधेर नहीं" से कहीं ज्यादा प्रासंगिक और चर्चित है - "जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड" यानि न्याय में देरी भी अन्याय ही है। और ये देरी तब और भी ज्यादा अक्षम्य हो जाती है जब राष्ट्र का स्वाभिमान दाँव पर लगा हो।

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जब राष्ट्र की सर्वोच्च सत्ता पर, संसद पर हमला हुआ हो...जब समूचे देश के पुरुषार्थ को चुनौती दी गई हो... लोकतंत्र को ढहाने की कोशिश की गई हो। छोटे से छोटा राष्ट्र और कमजोर से कमजोर आदमी भी अपनी आबरू पर हुए हमले के बाद न्याय पाने के लिए मैदान में कूद पड़ता है।

अपने आपको दुनिया का चौधरी मानने वाला अमेरिका तो बिना किसी न्यायालय में गए घर मेंघुस कर ओसामा बिन लादेन जैसे दुर्दांत आतंकी को मार आता है। जब मर्जी इराक पर हमला कर सद्दाम हुसैन को उठा लाता है। अफगानिस्तान पर बम बरसाता है। लीबिया में गद्दाफी को मार गिराता है.... और हम पूरी न्याय प्रक्रिया अपनाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमल में लाने में आठ साल लगा देते हैं? क्यों ? क्योंकि जम्मू कश्मीर में अशांति हो जाएगी? क्योंकि गिलानी जैसे लोग वहाँ से बैठ कर गीदड़ भभकियाँ दे रहे हैं?

दरअसल मसला दया याचिका का है ही नहीं.... मसला राजनीति का है... राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो कैसे रातोंरात बिना किसी को कानोकान ख़बर हुए कसाब को फाँसी दी जा सकती है वो भी हमने देखा, अब अफजल गुरु का मामला भी देखा।
जिस गिलानी पर इसी संसद हमले को लेकर मुकदमा चला, जिस गिलानी को हमारे कोर्ट ने इस मामले से साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया था वो ही गिलानी इस देश की न्याय व्यवस्था पर ऊँगली उठा रहे हैं? वो ही न्याय व्यवस्था जिसने आपको बरी कर दिया? वो ही देश जिसके नेशनल टेलीविजन पर आपको वो सब कहने के लिए समय मिल रहा है जो आप कहना चाहते हैं?

अफजल गुरु मामले में ऐतिहासिक तेजी के साथ काम हुआ था। 20 दिन में पुलिस जाँच पूरी हुई थी। डेढ़ महीने में केस फाइल हुआ। एक साल में ट्रायल कोर्ट की कार्रवाई पूरी हो गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केस को पूरा समय दिया। सारे सबूतों की फिर पड़ताल हुई।

सुप्रीम कोर्ट ने 4 अगस्त 2005 को उसकी फाँसी की सजा पर मुहर लगा दी थी। उसकी पत्नी ने 3 अक्टूबर 2006 को दया याचिका लगाई। उसे फाँसी देने में अक्टूबर 2006 के बाद से अब तक का जो समय लगा वो गैर जरूरी, असहनीय और अक्षम्य है। क्या दया याचिकाओं को लेकर कोई समय सीमा तय नहीं होनी चाहिए?

दरअसल मसला दया याचिका का है ही नहीं.... मसला राजनीति का है... राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो कैसे रातोंरात बिना किसी को कानोकान ख़बर हुए कसाब को फाँसी दी जा सकती है वो भी हमने देखा, अब अफजल गुरु का मामला भी देखा। और अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं हो तो कैसे सालोंसाल मामले को लटकाया जा सकता है ये भी हमने देखा।

सवाल ये है कि राष्ट्रहित और राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े इतने अहम मसलों को भी राजनीतिक इच्छाशक्ति का मोहताज होना चाहिए?.... इसीलिए इस फाँसी को केवल देर आयद दुरुस्त आयद कह कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उम्मीद करें कि आगे राष्ट्र हित के अहम मसलों पर हमें राजनीतिक नपुंसकता की बजाय राष्ट्रीय स्वाभिमान उज्ज्वल लौ दिखाई दे।

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