आम बजट 2013-14 : रस्सी पर दौड़ने का प्रयास

सभी टकटकी लगाए पी. चिदंबरम की ओर देख रहे थे। उम्मीद थी कि वो कोई जादू करेंगे। जादू जो आम जनता और उद्योग दोनों को चमत्कृत कर दे। ...और जानकार मान रहे थे कि ऐसा जादू कर पाना बहुत मुश्किल है। मुश्किल इसलिए कि वित्तमंत्री को दो सिरों के बीच समन्वय बनाना था- एक तरफ आने वाले चुनावों को देखते हुए लोकलुभावन बजट देना
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था तो दूसरी ओर आर्थिक मंदी से उबरने और गिरती विकास दर को थामने के लिए कड़े कदम उठाए जाने जरूरी थे। इन दोनों ही सिरों के बीच रस्सी बँधी थी और एक कुशल नट की तरह वित्तमंत्री को इस पर चलते हुए पार निकलना था। ....आज पेश किए गए बजट में वित्तमंत्री ने इस रस्सी पर संभलकर चलने की बजाय इस पर दौड़ने का प्रयास किया है। ..... और अभी वो पार नहीं पहुँच पाए हैं।


दरअसल हमारे यहाँ आम बजट जनआकांक्षाओं की पूर्ति का बड़ा प्रतीक बन गया है। हालाँकि पिछले कुछ सालों में उठाए गए कदमों के कारण ऐसा रह नहीं गया है। अर्थव्यवस्था को सतत चलने वाली प्रक्रिया ज्यादा प्रभावित करती है, कर रही है। आम आदमी को सीधे प्रभावित करने वाले पेट्रोल, डीजल और गैस बजट से बाहर हो गए हैं। इसके अलावा आमा आदमी की दिलचस्पी इसमें होती है कि इनकम टैक्स में क्या परिवर्तन हो रहा है और कौन-सी चीजें हैं जो सस्ती या महँगी हो रही हैं।

उस आधार पर देखें तो बजट में कुछ ख़ास नहीं है। इनकम टैक्स के स्लैब वैसे ही रखे गए हैं। हाँ 2 से 5 लाख के बीच की सालाना आय वालों को दो हजार साठ रुपए वार्षिक का फायदा जरूर पहुँचाया गया है। इसके अलावा विलासिता कि वस्तुएँ महँगी हुई हैं। 2 हजार रुपए से अधिक के मोबाइल फोन पर ड्‍यूटी 1 प्रतिशत से बढ़ाकर 6 प्रतिशत कर दी गई है। मतलब स्मार्टफोन के दीवाने अब कुछ ज्यादा खर्च करने को मजबूर होंगे। ये भी सही है कि कामकाजी लोगों के लिए ये फोन एक बड़ी जरूरत बन गए हैं और उनका बजट प्रभावित होगा।

चिदंबरम ने पतली-तनी हुई रस्सी पर तेजी से दौड़ने का प्रयास तो किया है पर वो पार निकल जाएँगे या फिसलकर नीचे गिर जाएँगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा
आयातित लक्जरी कारें और मोटर साइकल भी महँगी हो जाएँगी। पहला घर खरीदने वालों को 25 लाख के लोन पर 1 लाख की छूट भी राहत भरी है।
सरकार की बड़ी चुनौती ये है कि जो विकास दर आठ प्रतिशत होनी चाहिए थी वो लड़खड़ाते हुए 6 प्रतिशत पर आ चुकी है। इसे कैसे आगे बढ़ाया जाए। बाकी सारे आर्थिक उपाय इसी दिशा में किए गए हैं।

सवाल ये है कि विकास की ये रफ्तार सुस्त हुई क्यों? नियमों और कड़े आर्थिक उपायों की कमी पहले भी नहीं थी। कागज पर तो सबकुछ है- सवाल ये है कि जमीन पर क्या है? वित्तमंत्री कहते हैं कि करों का जो कुल योगदान जीडीपी में होना चाहिए वो नहीं है। क्यों नहीं है? इसलिए नहीं कि आपने टैक्स कम लगाया है। इसलिए है कि आप टैक्स वसूल नहीं पा रहे हैं। नौकरी पेशा के पास तो ख़ैर कोई विकल्प नहीं है पर उद्योगपतियों से प्रभावी रूप से टैक्स वसूल कर पाना सरकार के लिए अब भी बड़ी चुनौती है। जितना पैसा नौकरी पेशा कमाता है उससे अधिक पैसा कमाकर भी उद्योगपति उससे आधा भी टैक्स नहीं भरता। महँगी चिकित्सा सुविधाओं के इस दौर में सालाना 15 हजार की छूट अप्रासंगिक है। बढ़ी हुई महँगाई में सालाना 2 लाख में घर चलाना भी नौकरीपेशा के लिए बड़ी चुनौती है।

सभी चाहते हैं कि आर्थिक विकास की राह पर देश तेज गति से दौड़े। इसके लिए कड़े कदमों के लिए और अपना योगदान देने के लिए भी लोग तैयार हैं। सवाल ये है कि ये कड़ाई किसलिए है- क्या सचमुच आर्थिक विकास के लिए? या अपनी अक्षमता छुपाने के लिए? सरकार में लाखों करोड़ों के घोटाले होते रहें, सरकारी खर्चों पर लगाम लगाने कि कोई कोशिश दिखाई नहीं दे और फिर आप आम आदमी का जितना तेल निकाल सकें निकाल लें? ये कहाँ का न्याय है? आप खेती किसानी को बढ़ावा नहीं देना चाहते आपने पिछले तमाम सालों में केवल सर्विस सेक्टर यानी सेवा क्षेत्र के जरिए अपनी विकास दर बढ़ानी चाही, आपने उत्पादन पर ध्यान नहीं दिया, इस सब का खामियाजा देश क्यों भुगते?

निर्भया फंड - महिलाओं के लिए 1 हजार करोड़ के निर्भया फंड का आर्थिक महत्व चाहे जो भी हो, उसके राजनीतिक और सामाजिक मायने बहुत दूरगामी हैं। एक कॉलेज छात्रा के साथ हुए बलात्कार का मामला जिस तरह एक बड़ी सामाजिक लड़ाई में तब्दील हो गया, जिस तरह हजारों युवा सड़कों पर आ गए, जिस तरह सत्ताधीशों की कुर्सियाँ हिलती दिखाई दीं, ये उस सब की जीत का प्रतीक है। जन आंदोलन यदि सही तरीके से खड़े किए जाएँ तो वो समाज और देश की दिशा बदल सकते हैं।

बहरहाल चिदंबरम ने पतली-तनी हुई रस्सी पर तेजी से दौड़ने का प्रयास तो किया है पर वो पार निकल जाएँगे या फिसलकर नीचे गिर जाएँगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

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