नतीजे कमोबेश उन लोगों के आकलन के मुताबिक ही आए हैं जो धूल फाँक कर, गाँव चौराहों पर घूमकर राजनीति की नब्ज पर हाथ रखे हुए थे। ओपीनियन पोल और एक्जिट पोल का जो हुआ सो हुआ। जो भी है छत्तीसगढ़ के ठेठ नक्सली इलाके से लेकर नई दिल्ली के पॉश इलाकों तक पड़े वोट लोकतंत्र को मजबूत ही कर रहे हैं।
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चार राज्यों के जो परिणाम आज आए हैं उनके लिए लंबे-चौड़े राजनीतिक विश्लेषण लिखने और करने की बजाय तीन ही शब्द ज़ेहन में आ रहे हैं- साहस, सक्रियता और नायकत्व की जीत। देखते हैं कैसे-
साहस : अब जोड़-तोड़, पिछले दरवाजे और जमावट की राजनीति के दिन लद गए हैं और शिक्षा और जागरूकता के बढ़ने के साथ ऐसा और भी होगा। आपको साहस के साथ राजनीतिक निर्णय लेने होंगे। चौबीस घंटे चलने वाले मीडिया और सोशल मीडिया के जमाने में जोखिम कम करने के लिए किए जाने वाले समझौते जनता के सामने आने में वक्त नहीं लगता। अरविंद केजरीवाल ने साहस दिखाया। अन्ना हजारे के नाराज़ हो जाने और आंदोलन के कई और साथियों के बिछुड़ जाने की कीमत पर भी वो अपनी राह पर निकल पड़े।
उन्होंने नई दिल्ली सीट से सीधे शीला दीक्षित के ख़िलाफ लड़ाई लड़ने का साहस दिखाया। तब उन्हें नतीजा नहीं पता था पर उन्होंने पराक्रम दिखाया। स्याही की कालिख और स्टिंग के दंश को सहते हुए भी उन्होंने अपना साहस बनाए रखा। भाजपा ने साहस दिखाया कि उन्होंने आडवाणी के नाराज हो जाने की कीमत पर भी मोदी को ना केवल चुनाव की कमान सौंपी बल्कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया और चारों राज्यों में खुलकर प्रचार करने दिया। ये ही नहीं दिल्ली में ऐन चुनाव के बीच अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को बदलने का साहस भी दिखाया। कांग्रेस ना तो मध्यप्रदेश में सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का साहस दिखा पाई ना अपने ठेकेदार बने नेताओं- दिग्विजय और कमलनाथ पर अंकुश लगा पाई। छत्तीसगढ़ में रमनसिंह के अहं का साहस ही विपरीत धारा में भी नाव को किनारे ला पाया। अब लिजलिजी और जनता को भरमाने वाली राजनीति के जमाने चले गए हैं।
सक्रियता : आप पाँच साल सोए रहो, चुनाव में जागो और जोड़-तोड़ से जीत जाओ, नहीं चलेगा। दिग्विजयसिंह तो मुख्यमंत्री रहते हुए ये कह चुके हैं कि चुनाव काम करके नहीं जोड़-तोड़ से जीते जाते हैं। जनता ने 2003 में उनके मुँह पर जोरदार तमाचा मारा था। शायद उनको इसकी गूँज अब भी सुनाई नहीं दे रही है। पाँच साल कांग्रेस मजबूत विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पाई। जब शिवराजसिंह चौहान अपनी जन-आशीर्वाद यात्रा का अंतिम चरण पूरा कर रहे थे तब कांग्रेस ये तय कर रही थी कि चुनाव प्रचार की कमान किसे सौंपें?
इन चुनावों ने सपा बसपा जैसे दलों को भी स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वो अब केवल जोड़-तोड़ के लिए सीटें जीतने की राजनीति बंद करें
राजस्थान में भाजपा ना केवल सक्रिय रही बल्कि उन्होंने कांग्रेस की नाकामियों पर भी जमकर प्रहार किए। अशोक गेहलोत लगभग अकेले पड़ गए। दिल्ली में शीला ने आप और भाजपा की सक्रियता को नज़रअंदाज़ किया और बिजली और प्याज की बढ़ी हुई कीमतों पर ग़लतबयानी की और ख़ामियाजा भुगताना पड़ा।
नायक : कई मायनों में ये नायकत्व की जीत है और ना चाहते हुए भी भारतीय लोकतंत्र उसी दिशा में बढ़ रहा है। अरविंद केजरीवाल नायक बनकर उभरे हैं। हर्षवर्धन को नायक के रूप में ही पेश किया गया। शिवराज मध्यप्रदेश में एक नायक, एक अकेले योद्धा के रूप में लड़े। वसुंधरा पूरे राजस्थान में भाजपा का चेहरा बनी रहीं। छत्तीसगढ़ में मोदी के नायकत्व ने ही लगभग हार की कगार पर पहुंच चुकी पार्टी को जिता दिया। मोदी को भाजपा ने महानायक के रूप में प्रस्तुत किया और ये उनकी लोकसभा के लिए भी तैयारी है। ये भी सही है कि लंबे समय में बहुत ज़्यादा नायक आधारित मॉडल लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, पर बड़ी चुनौती ये भी है कि बहुत सारे अच्छे लोग एक जगह नहीं मिल पाते। अरविंद केजरीवाल ख़ुद कितने ही अच्छे हों सारे अच्छे उम्मीदवार लाना उनके लिए भी टेढ़ी खीर है। इसीलिए जनता ये सोचती है कि अरविंद केजरीवाल को नेतृत्व मिल जाए इसलिए उसके पीछे खड़े हो जाओ और उसके उम्मीदवार को जीता दो। लंबे समय में जागरूकता के साथ और भी अच्छे लोग राजनीति में आएँ तो ही भला होगा।
कुल मिलाकर ये कि वो लोग जो गाँव की ग़रीब जनता को अशिक्षा के उसी अंधेरे में रखना चाहते हैं जहाँ वो सोच ना सकें.... अब नहीं चलेगा। जागरूकता के साथ लोग बस सही के साथ खड़े होंगे अंधभक्ति के साथ नहीं। एक और अहम बात जो इन चुनावों ने स्पष्ट की है वो ये की तीसरे मोर्चे और सपा बसपा जैसे दलों को भी संदेश दे दिया है कि वो अब केवल जोड़-तोड़ के लिए सीटें जीतने की राजनीति बंद करें। कांग्रेस को तो इस हार की आहट तब ही सुन लेनी चाहिए थी जब वो इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन के सामने निर्भया के लिए न्याय माँग रहे युवाओं पर पानी और लाठी बरसा रही थी। जब वो लोगों से पाँच रुपए में लोगों को भरपेट खाना खिला रही थी। जब घोटालेबाज मंत्रियों को बेशर्मी से बचा रही थी। जो लोग अभी मिले समर्थन से उत्साहित हैं, उन्हें भी बहुत संभलकर चलना होगा। जनता का दिल टूटता है तो उसकी आवाज वोटिंग मशीनों से निकलती ही है।