ये महज संयोग है या कुछ और लेकिन 8 दिसंबर 2013 को जब आम आदमी पार्टी के दफ़्तर की खिड़की से अरविन्द केजरीवाल हाथ में माइक थामे नीचे खड़े समर्थकों को संबोधित कर रहे थे तो उन पर फूल बरस रहे थे। आज 14 फरवरी 2014 को जब वो दिल्ली स्थित आम आदमी पार्टी के उसी दफ़्तर की उसी खिड़की से नीचे खड़ी भीड़ को संबोधित कर रहे थे तो आसमान से बूँदें बरस रही थीं। अब तय सिर्फ ये होना है कि ये बूँदें आने वाले बेहतर समय के आशीष के रूप में उन पर बरस रही थीं या उस ख़्वाब के टूट जाने का मातम मना रही थीं जो इस देश के आम आदमी ने देखा था।
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आठ दिसंबर से अब तक के इन 68 दिनों में दिल्ली और देश की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे। 28 विधायकों की विजय की ऐतिहासिक उपलब्धि के साथ देश ने एक नई सुबह देखी। जात-पाँत के बंधन तोड़ते हुए महज डेढ़ साल पहले आंदोलन की कोख से उपजी एक पार्टी ने वो कर दिखाया जिसकी शायद ख़ुद उन्हें उम्मीद नहीं थी। बदलाव की जो तीव्र छटपटाहट जनता के मन में थी अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी सीधे उस अकुलाहट से जुड़ गई। नतीज़ा सामने था।
इस नई राजनीतिक अवधारणा का असर इतना जबर्दस्त था कि 32 सीटों वाली भाजपा ने सरकार बनाने से मना कर दिया। अपनी सफलता के ख़ुमार और असमंजस से उबरते हुए "आप" जनता के पास गई। वो पार्टी जिसने किसी का भी समर्थन लेने या देने से इंकार कर दिया था उसने कांग्रेस के 8 विधायकों का समर्थन लेकर सरकार बना ली। यहाँ तक भी सब ठीक था। क्योंकि लोग चाहते थे कि 28 सीटों के बावजूद लोगों के दिलों में तो उनके लिए बहुमत है ही और जो वादे उन्होंने किए हैं वो पूरे कर दिखाएँ। उन पर लगातार राजनीतिक हमले भी हो रहे थे। पर जनता उन्हें माफ करने को तैयार थी। उनको पता था नए हैं, समय लगेगा।
फिर दिक्कत कहाँ हुई? आम आदमी पार्टी द्वारा खड़ी की गई विश्वास की अभेद्य दीवार में पहली सेंध तब लगी जब अरविंद केजरीवाल के लिए बड़े बंगलो की बात सामने आई। इस टूटन को उसी सोशल मीडिया पर साफ महसूस किया जा सकता था जिस सोशल मीडिया की लहर पर सवार होकर अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी सत्ता तक पहुँची थी। दीवार की दूसरी ईंट तब गिरी जब पुलिस के तीन अधिकारियों को लेकर केजरीवाल धरने पर बैठे। तीसरी ईंट गिराई ख़ाप पंचायत पर अरविंद केजरीवाल के बयान ने। इसके बाद भी सीमेंट लगाकर इस टूटन को कुछ हद तक जोड़ा जा सकता था। पर जन लोकपाल बिल के मामले में ग़लत रुख अख्तियार कर केजरीवाल ख़ुद ही हिट विकेट हो गए।
....उम्मीदें तो बहुत थीं पर आज अगर ये सूरज डूबा है तो कल नए नाम से, नई उम्मीदों के साथ नई सुबह लेकर आए....क्योंकि हम अपने सपनों को मरने नहीं देंगे
जब अन्ना हजारे के आंदोलन से अलग होकर अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की राह पकड़ी थी तब उन्होंने बहुत मजबूती के साथ ये माना कि व्यवस्था के बाहर रहकर उसे कोसने की बजाय उसका हिस्सा बनकर उसे बदलना ज्यादा सही रास्ता है। उन्होंने कहा भी कि इस दलदल में उतरकर ही इस कीचड़ को साफ किया जा सकता है। दिग्विजयसिंह और अरुण जेटली जैसे नेता तो उनको शुरू से ही आँख दिखाकर कह रहे थे कि राजनीति में आओ तब पता चलेगा। तो ये तो तय था कि ये उनका ही चुना रास्ता है और इसकी राह रपटीली है। इस रपटीली राह पर उनका घोड़ा जनता की भावनाओं पर सवार होकर तेज़ी से दौड़ा। उन्होंने पहली कुछ बाधाएँ कुशलता से पार की। आम आदमी पार्टी की विजय के प्रभाव का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों और नेताओं के सिर पर केसरिया रंग की गाँधी टोपी आ गई और कांग्रेस के संजय निरुपम महाराष्ट्र में अपनी ही सरकार के ख़िलाफ बिजली के दाम कम करने की माँग को लेकर धरने पर बैठ गए। राहुल गाँधी तो 8 दिसंबर को ही "आप" से सीख लेने की बात कह चुके थे। वो अब सड़क पर दिखाई देने भी लगे हैं। ये छोटी बात नहीं थी। दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों की हर रणनीतिक बैठक में "आप" की चर्चा होने लगी।
हम लाख लानत-मलानत भेजें आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल पर, लाख नफरत करें उनसे पर ये तो मानना पड़ेगा की आम जनता से सीधे जुड़कर संवाद करने और नीतियाँ बनाने के नए राजनीतिक एजेंडा की इस देश को शिद्दत से जरूरत थी। हमें आम आदमी पार्टी और उसके हौव्वे की जरूरत मुख़्य धारा की पार्टियों को इस एजेंडा पर बनाए रखने के लिए ज़्यादा थी बजाय और किसी चीज़ के। और यही वो बात है जो कायम रहना चाहिए। वोट बैंक और घोटाले की राजनीति से तंग आ चुके देश को इस एजेंडा की ज़रूरत है- अरविंद केजरीवाल नहीं तो किसी और के जरिए ही सही। पर सड़े हुए तंत्र को आमूल-चूल बदलकर जनकेंद्रित बनाने के लिए छोटे नहीं व्यापक परिवर्तन की ही जरूरत है।
एक और अहम बात है, आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल भले फेल हो जाएँ पर हिंदुस्तान के अवाम की ख्वाहिशें और सपने कायम हैं। हमें इस उदाहरण को बाबा खड़गसिंह की तरह लेना है ताकि सच में लोगों का भरोसा कायम रहे। निश्चित ही अरविंद केजरीवाल को इस तरह कुर्सी नहीं छोड़नी चाहिए थी, चाहे ऐसा उन्होंने अपने जिद्दीपन के चलते किया हो या फिर किसी राजनीतिक लाभ की ख़ातिर पर उनको शायद इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि उम्मीदों के किस हिमालय को अपने कंधे पर उठाए घूम रहे थे। फिलहाल तो उन्होंने इसे धम्म से जमीन पर पटक दिया है। अब ये देश की जनता पर है कि वो मिलकर इसे अपने कंधे पर उठाए, अपने वोट को किसी के पास गिरवी ना रखे और उन नेताओं के सदन में पहुँचने के सारे रास्ते बंद करे जो देश की आँखों में मिर्च झोंकते हैं, जो माइक तोड़ते हैं और जो विधेयक की प्रतियाँ फाड़ते हैं। .... उम्मीदें तो बहुत थीं पर आज अगर ये सूरज डूबा है तो कल नए नाम से, नई उम्मीदों के साथ नई सुबह लेकर आए.... क्योंकि हम अपने सपनों को मरने नहीं देंगे।